केन्द्र :
एक बुर्कापोश परिवार की लड़की और एक हलजोतवा काश्तकार के बेटे की मुहब्बत।
परिधि :
• एक गाँव का साल दर साल बदहाल और बदइंतजाम होते चला जाना।
• बयालीस साल पहले बनी एक नहर, जिसने इलाके में हरित क्रांति कर दी थी, धीरे-धीरे ध्वस्त हो गयी।
• पच्चीस साल पहले लायी गयी बिजली के सिर्फ अब गड़े हुए खम्भे बच गये हैं।
• स्टेशन पर जहाँ अनेकों गाड़ियाँ समय पर आकर आवागमन उपलब्ध कराती थीं, अब इक्की-दुक्की आती हैं और जो आती भी हैं उनका कोई टाइम-टेबुल नहीं होता। क्या अब सिर्फ वही स्टेशन आबाद रहेगा जहाँ से होकर दिल्ली, पटना अथवा अन्य महानगरों के लिए गाड़ियाँ गुजरती हैं?
• इलाके की प्रसि़द्व चीनी मिल बंद कर दी गयी, जिससे किसानों को आर्थिक संबल देने वाली गन्ने की मुख्य उपज बेमानी हो गयी।
• देश बँटा फिर भी धर्म और जाति के आधार पर तब गाँव नहीं बँटे। अब आजादी के पचास साल बाद और नयी सहस्राब्दी के दरवाजे पर गाँव मजहब ही नहीं बल्कि अगड़े-पिछड़े और विभिन्न जातियों के आधार पर बनने-बँटने लगे।
• प्यार करने वाली लड़की नहर को दुरुस्त करने की माँग को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गयी। बुर्के की सरहद से निकलकर सार्वजनिक हित में नेतृत्व की इस पहल पर पूरा इलाका एक हर्षमिश्रित आश्चर्य से भर उठा। वह मरणासन्न स्थिति पर पहुँच गयी, फिर भी प्रशासन या सरकार के किसी गुर्गे में कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। लड़के ने कहा, 'अनशन तोड़ दो, सल्तनत। यह अंग्रेजों का राज नहीं है जब गांधी जी के उपवास और असहयोग अवज्ञा आंदोलन की भी नोटिस कर ली जाती थी। पिछले दस-पन्द्रह सालों में ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं कि माँगें बिना टेरर और मिलिटेंसी के, बिना भारी नुकसान हुए पूरी हो गयी हों। आखिर अब हमारे पास बेहिसाब गोली, बम, बारूद है.....इनसे जब तक रेल की पटरी न उड़े, विस्फोट न हो, लोग न मरें...सरकार को क्यों जागना चाहिए?'
वृत :
सल्तनत ने पहली बार सुई-धागा पकड़कर एक रूमाल सिला था और उसमें क्रोशिए द्वारा उर्दू एवं हिन्दी के बूटेदार हरूफों में कशीदाकारी करके लिखा था - भैरव ।
भैरव को वह रूमाल भेंट करते हुए एक दिव्य अनुभूति से उसका चेहरा खिल उठा था। भैरव को लगा था जैसे सल्तनत रूमाल नहीं अपनी कोई बड़ी सल्तनत सौंप रही है। उसने रूमाल को चूम लिया था तो सल्तनत को लगा जैसे उसे सचमुच की आज कोई बड़ी सल्तनत मिल गयी।
दोनों ने एक-दूसरे को मुग्ध एवं आसक्त होकर यों निहारा जैसे एक दिल हो तो दूसरा धड़कन।
वे दो जिस्म एक जान होने की मंजिल के सफर में आगे बढ़ चले। उनके सपने...उनकी कल्पनाएँ...उनकी भावनाएँ क्रमशः अंतरंग, एकाकार और अविभाज्य होती चली गयीं। आपस में सुख-दुख का वार्तालाप तथा दुनियादारी का विमर्श एक राग की प्रतीति देने लगा जैसे तबले और सितार की लयात्मक जुगलबंदी हो। जिंदगी हसीन है, इसका एहसास और भरोसा एक बड़ा आकार लेने लगा...बावजूद इसके कि उनके अपने-अपने खाते में कई निजी तकलीफें और रुकावटें थीं तथा गाँव के सामूहिक खाते में भी कई तरह की परेशानियाँ और नाइंसाफियाँ थीं।
इन्हें ऐसी ही बेसुरी और खुरदरी चीजें जोड़कर रखने लगीं। इन्हें इन सबसे जूझना था और इनके समाधान के लिए जद्दोजहद करना था। जद्दोजहद ही इनकी मुहब्बत की बुनियाद थी।
यह बुनियाद वहाँ से शुरू हुई जब सल्तनत के मझले मामू कामरेड तौफीक मियाँ ने भैरव के भीतर निहित उस ऊष्मा को पहचान लिया जो एक ईमानदार और जुझारू आदमी के भीतर होती है।
सल्तनत की तेज-तर्रार और तीक्ष्ण मेधा को परखते हुए उन्होंने पढ़ाई के प्रति एकाग्रचित होने की सलाह देते हुए कहा था, 'प्रभुदयाल का बेटा भैरव तुम्हें मैट्रिक पास कराने में मदद कर सकता है। मैंने उसे जाँचकर देखा है, उसकी सलाहियत और शराफत का अपना एक अलग अंदाज है।'
सल्तनत को जैसे मुँह माँगी मुराद मिल गयी हो। खुश होते हुए उसने इसरार किया, 'मुझे किसी भी तरह मैट्रिक पास करना है, मामू। बड़े मामू की बंदिशों से मुझे निजात दिलाइए। वे कहते हैं कि मैं जवान हो गयी हूँ, स्कूल नहीं जा सकती। मुझे समझ में नहीं आता मामू कि हमारा जवान होना गुनाह क्यों बन जाता है कि हम कहीं खुलेआम आने-जाने के काबिल नहीं रह जाते। कितना बुरा हुआ कि आपा, अम्मी, खाला, ममानी आदि सभी जवान हो गयीं। ये सभी घर में बंद रहती हैं और अब मैं भी....।'
कामरेड तौफीक ने कहा था, 'बुर्का और बंदिशें हमारी तंगदिली का सरंजाम हैं, सल्तनत। बड़े भाई अब इस उम्र में इस जहनियत से शायद ही निकल पायें। तुम उनको लेकर मगजपच्ची में न पड़ो। तुम पढ़ना चाहती हो, पढ़ो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।'
'तो भैरव मेरी मदद कर देगा...बड़े मामू इसकी इजाजत दे देंगे?' सल्तनत भैरव को अब तक काफी जान चुकी थी कि पढ़ने में वह काफी जहीन है और दुनियादारी की गहरी समझ रखता है।
'मैं उन्हें समझा दूँगा और भैरव भी मेरा कहा नहीं टालेगा।' तौफीक ने आश्वस्त किया।
यहीं से भैरव और सल्तनत एक-दूसरे को किताबों के जरिये समझने लगे और करीब आने लगे। शफीक मियाँ जिद्दी, खुर्राट, दकियानूस और दीनपरस्त इंसान थे, इसलिए भैरव का आना उन्हें नागवार गुजर जाता था। गाहे-ब-गाहे वे बिदक पड़ते थे कि आखिर सल्तनत और कितना पढ़ेगी?
सल्तनत अदब से कह देती, 'छोटे मामू से पूछ लीजिए, जिस दिन वे मना कर देंगे, मैं पढ़ाई छोड़ दूँगी।'
शफीक मियाँ की यह मजबूरी थी। वे तौफीक के कहे को नकार नहीं सकते थे, चूँकि सभी भाइयों में एक यही थे जो उनका एहतराम करते थे और हर आड़े वक्त में रुपये-पैसे तथा इल्म, अक्ल से उनकी इमदाद करते थे। इमदाद की इन्हें हमेशा जरूरत बनी रहती थी। चूँकि खेती-गृहस्थी वे करते नहीं थे। कमाई के नाम पर वे सिर्फ साल में चार महीने मोहिनी शुगर मिल, वारसलीगंज में सीजनल नौकरी करते थे। पूरे इलाके के गन्ने की पेराई समाप्त होते ही मिल के ज्यादातर कर्मचारी की सेवा स्थगित कर दी जाती थी। शफीक मियाँ तौल बाबू थे। धर्मकाँटे पर गन्ने से लदी बैलगाड़ी, ट्रैक्टर या ट्रक का वजन करते थे। अतः इनकी नौकरी मिल चालू होने के पहले शुरू हो जाती थी और मिल बंद होने के काफी पहले खत्म हो जाती थी। इसके बाद वे बँटाई की आधी उपज और तौफीक से मिलने वाली सहायता पर ही निर्भर रहते थे तथा खाली वक्त में रोज पाँचों वक्त नमाज के पाबंद बन जाते थे। कुरान शरीफ का अध्ययन करना और उसका अर्थ टटोलना-समझना उनका एक खास शौक था। मालूमात बढ़ जाने से वे छिटपुट तकरीर करने में दिलचस्पी लेने लगे थे। कमाई का एक अच्छा जरिया उन्हें बनता दिखने लगा था। इस उम्मीद में वे कोई दूसरा रोजगार भी ढूँढ़ न सके और उम्मीद थी कि पूरी होने की जगह सिर्फ आगे खिंचती चली गयी। ले-देकर तौफीक मियाँ ही उनके सहारे का ठौर बने रह गये। वरना उनके अन्य दो भाई दो-चार साल में बमुश्किल तफरीह करने की गर्ज से कभी गाँव तशरीफ ले आते थे।
इन दो मेहमान बन गये भाइयों, हनीफ एवं रदीफ से गाँव-घर के रिश्ते को इसी से समझा जा सकता है कि यहाँ ऐसे कई लोग होंगे जो इन्हें पहचानते तक नहीं। छुटपन से ही वे कलकत्ता में छोटी-मोटी फुटपाथी दुकानदारी करते हुए एक बड़े फ्रुट सेलर हो गये। जाने को तो तौफीक मियाँ भी शहर गये लेकिन गाँव से संपर्क और रिश्तेदारी में फासला कभी नहीं आने दिया। हर छोटे-बड़े से अपना दुआ-सलाम बनाये रखा। उनके घुल-मिल जाने के इस स्वभाव के कारण हरेक को यह तक पता है कि वे सीपीएम के एक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं और अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा भी पहचाने जाते हैं।
जमशेदपुर की एक स्टील कंपनी में अदना मजदूर होकर भी प्रबंधन द्वारा मान्यताप्राप्त जेबी यूनियन के सामानांतर सीटू की चलनेवाली यूनियन में वे नेतृत्व की अगली पंक्ति की हैसियत रखते थे।
भैरव को इनके बारे में विस्तार से जकीर ने बताया था। गाँव में वे जब भी आते जकीर उनके उठने-बैठने और घूमने-फिरने में खुद को अनिवार्य रूप से शामिल कर लेता। दोनों के घरों के बीच सिर्फ एक दीवार का फर्क था, इसलिए तौफीक भी जब अकेले बोर होने लगते तो जकीर को पुकार लेते। दोनों की उम्र में यों काफी फासला था, लेकिन वे उम्र से ज्यादा जमाने के साथ-साथ चलनेवाले नजरिये और गलत एवं नाइंसाफी से लड़नेवाले जोशीले-जवान इरादों के खैरख्वाह थे। उन्हें युवाओं के साथ संवाद करना अच्छा लगता था। वे इसी बहाने किसी सुलगती चिनगारी की थाह ले लेना चाहते थे अथवा कोई चिनगारी धीरे से सुलगा देना चाहते थे।
जकीर हाई स्कूल की अपनी अधूरी पढ़ाई तक भैरव का निकटतम सहपाठी रहा था, इसलिए दोनों के बीच सान्निध्य था। जकीर ज्यादा पढ़ नहीं सका। चूँकि पढ़ाई के दरमियान ही वालिदा की अशक्तता के कारण पन्द्रह बीघे की जमीन-जोत की देखरेख उसके ही मत्थे आ गयी। उसके दोनों बड़े भाइयों की खेती-गृहस्थी से कोई खास मतलब नहीं था। कलकत्ता में वे जूते-चप्पल की दुकान चलाते थे। भैरव जकीर की अधूरी पढ़ाई को कोसते हुए झल्ला उठता था,'आखिर क्यों लोग अच्छी खासी जमीन-जोत होने पर भी इसे छोड़कर नौकरी या व्यवसाय के पीछे पगला जाते हैं। जमीन से वे संतोषजनक उपार्जन करने की कोशिश क्यों नहीं करते? बड़े-बड़े किसान के बेटे भी, देखा गया है कि एक अदद छोटी नौकरी के लिए लालायित हैं।'
भैरव ने इसी मानसिकता के तहत तौफीक मियाँ से भी पूछ लिया था, 'अंकल, आपकी तरक्कीपसंद जहनियत के बारे में जकीर मुझे अर्से से बहुत कुछ बतलाता रहा है। मै आपसे बेहद प्रभावित हूँ, लेकिन आपको लेकर मेरे मन में एक संशय भी ठहरा हुआ है, क्या उसे मैं आपके सामने जाहिर करने की छूट ले सकता हूँ?'
तौफीक ने उसके भोले-से चेहरे पर उग आयी जिज्ञासु और बेचैन लकीरों को पढ़ लिया। बड़े तपाक से कहा उन्होंने, 'पूछो भैरव, जरूर पूछो। मैं जानता हूँ तुम्हारे संशय साधारण नहीं विलक्षण होंगे। तुमने पिछली हर मुलाकात में अपना यही परिचय तो दिया है मुझे।'
'अंकल, हम अक्सर पढ़ते-सुनते हैं कि अमुक गाँव का ऐसा कायाकल्प हो गया...ऐसी तरक्की हो गयी। पंजाब और केरल में गाँव अब शहरों में तब्दील हो गये...जबकि अपना यह गाँव लतीफगंज, यह अंचल वारसलीगंज और यह अनुमंडल नवादा लगातार छीजता, पिछड़ता और रेंगता दिखता है। पच्चीस साल पहले यहाँ की स्थिति कई गुना बेहतर थी...आप खुद इसके गवाह हैं। क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यहाँ जो भी सुविधाएँ बहाल थीं, वे इसलिए सिकुड़ती-सिमटती चली गयीं कि यहाँ के सार्वजनिक हकों के लिए लड़ने-भिड़ने अथवा आवाज बुलंद करने की रहनुमाई करनेवाला कोई धाकड़ व्यक्ति सामने नहीं आया या पैदा नहीं हुआ। आप छात्र-जीवन से ही संघर्ष और आंदोलन का महत्व जानते थे तथा आपमें अन्याय के खिलाफ एक व्यग्रता और तुर्शी भी व्याप्त थी...फिर क्यों आपने अपने इस गाँव को यथास्थिति में छोड़कर शहर में नौकरी करना पसंद किया और अपने संघर्ष की जमीन बदलकर औद्योगिक नगरी कर ली, जबकि आप पर गाँव-जवार का सबसे ज्यादा और सबसे पहला हक था?'
तौफीक मियाँ एकटक भैरव का मुँह देख रहे थे और देखते रह गये। उन्हें लगा जैसे सवाल भैरव ने नहीं उन्होंने खुद ही अपने आप से पूछा है...और वर्षों से पूछते रहे हैं। इसके कई जवाब भी उन्होंने ढूँढ़े हैं लेकिन वे आज तक खुद को संतुष्ट नहीं कर पाये। यह एक बड़ी विचित्र स्थिति होती है जब आदमी खुद के बारे में खुद ही सवाल करके खुद जवाब ढूँढे़ और फिर भी संतुष्ट नहीं हो पाये। पता नहीं क्यों उन्हें लगा कि भैरव के रूप में उनकी अपनी युवावस्था रिवाइंड हो गयी है। अचानक उन्होंने अपने हृदय के उस कक्ष का द्वारा खुला पाया जिसमें वे अपने अतिप्रिय जनों को उच्चासन पर बिठाकर रखते थे। भैरव को भी उन्होंने उस कक्ष में प्रविष्ट कर लिया। उन्हें उसमें वह कौंध दिखाई पड़ गयी जिसकी तलाश वे हमेशा ही करते रहे हैं। गाँव में पहले भी उन्होंने कई बार भैरव जैसे कई लड़कों को उम्मीद भरी निगाहों से देखा है और प्रेरित करने की कोशिश की है कि शायद जो वे नहीं कर सके ये लड़के कर पायें। लेकिन सभी उन्हीं की तरह रोजी-रोटी के अन्तहीन भँवर में फँसकर कुंद और मंद हो गये।
उन्होंने कितना चाहा था कि मर मिटे अपने इस गाँव-जवार के लिए...लेकिन हर कोई क्या इस काबिल होता है कि मर-मिटने का उसे नसीब मिल जाये। घर, समाज, धर्म, जाति, संस्कार, हैसियत कितना कुछ है जो उसे सीमित, प्रभावित और मजबूर कर देता है। तौफीक ने भैरव पर एक गहरे सान्निध्य की निगाह डाली और कहा, 'भैरव, नौकरी न मिली होती तो शायद मैं गाँव में रहकर इन चीजों में खुद को खपा देता जो तुम कह रहे हो। लेकिन जब मुझे एक नौकरी मिल गयी तो उसे छोड़ना मेरे वश में नहीं रह गया। अपने घर-परिवार के लिए एक नियमित आमदनी के जरिये की हमें सख्त जरूरत थी, दोस्त। पूरा घर मुझे एक अच्छी नौकरी में देखने के लिए रात-दिन दुआएँ कर रहा था...मैं कैसे ठुकरा देता उसे?'
भैरव को लगा कि दुआएँ तो यहाँ की बहुत सारी समस्याएँ और जहालतें भी कर रही थीं आपकी रहनुमाई की...लेकिन ये आवाजें आपको स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ीं। वह इसके आगे कोई जिरह नहीं कर सका। उसकी अपनी स्थिति भी तो इसी प्रकार है। उसे भी तो पैसे कमाने होंगे। पूरा घर उसकी ओर भी टकटकी लगाये हुए है। उसके पिता प्रभुदयाल खेती पर निर्भर थे। अपनी जमीन एक-डेढ़ बीघा ही थी। अतः उन्हें कुछ और जमीन बँटाई पर लेनी होती थी। शफीक की तरह वे भी सीजनल नौकरी करते थे। लेकिन चीनी मिल में नहीं, नहर विभाग में। बरसात में जब गाँव के बगल से निचले तल पर बहने वाली सकरी नदी पानी से उपरा जाती थी तो नदी पर शटर गिराकर पानी ऊपरी तल पर बने नहर में ठेल दिया जाता था। नहर का वरदान बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू की देन थी। वे पन्द्रह-बीस कोस नीचे इस नदी के ही बाजू वाले मौर के निवासी थे। नदी ऐसी थी कि उसमें पानी लबालब होने के बाद भी आजू-बाजेू के गाँववालों को कोई लाभ नहीं पहुँचता था और यह पूरा इलाका पानी के बिना कृषि के मामले में बहुत ही पिछड़ा हुआ था।
मुख्यमंत्री श्रीबाबू ने अपने दम पर एक बहुत बड़ी परियोजना पास करवायी और नदी की करवट में मीलों नहर खुदवाकर नदी पर लोहे के शटर लगवाये और पूरे इलाके को हरा-भरा कर दिया। उस समय श्रीवाबू को शायद भ्रष्टाचार और घोटाला का व्याकरण नहीं मालूम था। नेता होने का मतलब वे जनता का सेवक होना समझते थे।
नहर से किसानों की खुशहाली तो बढ़ी ही, सैकड़ों ग्रामीणों को सीजनल नौकरी भी मिली।
प्रभुदयाल भी इसमें बहाल हो गये। वे शटर ऑपरेटर थे। जल-सतह के हिसाब से शटर को ऊपर-नीचे करते थे।
आज नहर की हालत जर्जर है और वह अब भगवान भरोसे है। उसकी देखभाल करने वालों की नौकरी खत्म हो गयी है। सिंचाई साधन के बिना खेतों का उपजाऊपन धीरे-धीरे कम होने लगा है। प्रभुदयाल जैसा छोटा किसान बहुत मुश्किलों से गुजरने लगा है।
चेहरा बुझ गया भैरव का। उसकी मानसिक दशा को तौफीक ने ताड़ लिया। कहा, 'उदास नहीं होते यंग मैन। हर दुख की अपनी एक मियाद होती है। परिस्थितियाँ आदमी को लाचार जरूर करती हैं लेकिन धुन के पक्के आदमी को वह परास्त नहीं करती। मेरी बहुत सारी सीमाएँ थीं जिन्हें मैं लाँघ नहीं सका। तुममें मुझसे बड़ी इच्छा-शक्ति है, तुम लँघ सकते हो इन्हें। जानता हूँ कि अपने घर को सँभाल लेने का दायित्व तुम्हीं पर आनेवाला है। लेकिन इसकी चिन्ता किये बिना पहले तुम अपनी तालीम पूरी करो। पढ़ो...खूब पढ़ो...तुम्हें बहुत कुछ पढ़ना है। सिर्फ किताबें ही नहीं इंसानों को पढ़ो...गाँव को पढ़ो...देश को पढ़ो...दुनिया को पढ़ो...पूरी कायनात को पढ़ो...पढ़ने का कोई अंत नहीं है, भैरव। कितना कुछ जमा कर रखा है पढ़ने के लिए। लेकिन मैं अब पढ़ नहीं सकूँगा...चाहता हूँ कि इन्हें तुम पढ़ो।'
भैरव को तौफीक का यह चेहरा किसी सूफी-संत का आभास दे रहा था। उसने पूछना चाहा कि क्या एक गरीब खेतिहर काश्तकार के बेटे का इतना कुछ पढ़ना लाजिमी है? उसने कहा, 'अंकल, मैं हमेशा बाढ़ आयी नदी में कूद जाने के लिए व्याकुल हो जाता हूँ। मुझे आप ऐसी किताबें दीजिए कि पढ़कर तैरना और पार उतरना सीख जाऊँ।'
'तैरना तो तुम पानी में उतरने के बाद ही सीख सकोगे, भैरव। हाँ, किस हालत में कितना दूर तुम्हें जाना है, इसका इल्म किताब जरूर देगी।'
'यह मेरे लिए एक बड़ी बात होगी, कामरेड अंकल।'
'यह बहुत बड़ी बात भी नहीं होगी, कामरेड भैरव।'
कामरेड संबोधन के आदान-प्रदान पर दोनों एक साथ हँस पड़े...ऐसी हँसी जो आपसी लगाव को अनौपचारिक कर देती है।
यही वह स्थल था जब तौफीक ने पढ़ाई आगे ले चलने में भैरव को सल्तनत का सहचर बना दिया। तौफीक ही थे जिनके बलबूते सल्तनत और उसका परिवार लतीफगंज में रह रहा था। वरना उसके जालिम और ऐयाश बाप ने अब तक पता नहीं उसकी माँ और भाई-बहनों की क्या दुर्गति कर दी होती। उसकी माँ को तो उस बेरहम ने पागल ही बना डाला था। मिन्नत बेगम अपनी तीन बेटियों और तीन बेटों को पालते-सँभालते एवं देखरेख करते निढाल और निश्चेष्ट हो जाती थी। उसके कामुक बाप ने समझा कि यह औरत निहायत ठंढी और ढीली हो गयी है। उसने एक कमसिन उम्र लड़की से दूसरी शादी कर ली और मिन्नत को घर की नौकरानी का दर्जा पकड़ा दिया। दो-चार साल बाद जब उसे दूसरी भी कुछ पुरानी होती दिखने लगी तो उसने तीसरी शादी कर ली। अब तक सल्तनत और उसकी दोनों बड़ी बहनें जन्नत और निकहत भी सयानी हो गयी थीं। मिन्नत अपनी बेटियों की मदद से घर का सारा काम करती...रसोई से लेकर घर के जानवरों का सानी-पानी और जन-मजूरों के रोटी-सत्तू तक। इसमें कुछ भूल-चूक हो जाये तो उस बेचारी को उसका कमीना शौहर जानवर से बढ़कर पिटाई करता और ऊपर से उसके साथ होकर सौतें भी जी भरकर कहर ढातीं। इन यातनाओं के बीच उसकी सहन-शक्ति पता नहीं कब जवाब दे गयी और उसका मानसिक संतुलन बिगड़ गया। बस उसके लिए न कोई बंधन रह गया, न नियम, न नियंत्रण, न अनुशासन। कभी नंग-धड़ंग हो जाना, कभी गाली-गलौज, कभी भाषणबाजी शुरू कर देना, कभी इस गली, कभी उस मोहल्ले में भटकते-डोलते निकल जाना। इन स्वेच्छाचारी हरकतों के कारण वह और भी पिटने लगी। माँ के प्रति स्वाभाविक पक्षधरता के कारण बच्चों पर भी सितम वरपा होने लगा।
बड़ी लड़की जन्नत शादी की उम्र को कई साल पहले छू चुकी थी और अपने बाप के वहशी रवैये से बहुत मुरझायी, मायूस और हताश रहने लगी थी। तौफीक ने देखा कि इसका बेगैरत बाप इस जवान लड़की की कोई परवाह करनेवाला नहीं है तो उन्होंने अपनी पहल करके अपने पड़ोस के गाँव मंजौर के एक लड़के इदरीश को तय किया और शादी करा दी। लड़का खाता-पीता किसान परिवार का था।
इसी वक्त उन्हें यह भी महसूस हुआ कि यहाँ मिन्नत और उसके अन्य बच्चों की बरबादी के सिवा कुछ नहीं होनेवाला तो शफीक के मना करने पर भी उन्हें अपने घर ले आये। शफीक अपने एकछत्र रहन-सहन में किसी हिस्सेदार का हस्तक्षेप नहीं चाहते थे। लेकिन वे अपने इस निहायत संजीदे एवं रौबीले भाई के रास्ते में अवरोध भी बनने का दम कहाँ रखते थे। लिहाजा वे तौफीक की गैरहाजिरी में अपनी इस सगी बहन और उसके बच्चों के प्रति बेमुरौव्वत हो जाया करते। बच्चों पर खूब कड़ाई बरतते...डाँट-फटकार करते और उन्हें घर से निकलने नहीं देते। मिन्नत की ऊल-जलूल हरकतों की अनदेखी नहीं करके उबल पड़ते और कभी-कभी तो अपना हाथ भी उठा देते। फिर भी वह अपनी विक्षिप्तावस्था में बेरोक-टोक निकल पड़ती गाँव के इस छोर...उस छोर। शफीक को बड़ी तौहीन लगती। खासकर तब जब वह किसी के कोई काम बिगाड़ देती और बिगड़े काम के नुकसान का रोना लेकर वो आदमी चेताने घर पहुँच जाता। वह अक्सर खूँटे से बँधे जानवरों को खोलकर स्वछंद घूमने के लिए हाँक देती...दीवार या गोइठौर पर ठोके हुए गोइठे को उखाड़कर नीचे गिरा देती...किसी को कुछ रखते देखती तो उसकी तरफ झपट पड़ती...किसी के कपड़े बाहर सूख रहे हों तो उन्हें कुएँ पर ले जाकर खँगालने लग जाती।
शफीक बेजब्त होकर मिन्नत पर डंडे बरसा देते। ऐसे में जन्नत, निकहत और सल्तनत को लगता कि जल्लाद बाप ने मामू के रूप में अपना वेश बदलकर यहाँ भी पिंड नहीं छोड़ा।
एक बार इसी तरह की नृशंस पिटाई के बाद मिन्नत घर से निकल गयी तो रात भर वापस नहीं आयी। बेटियों में निकहत और सल्तनत भी अब नादान नहीं थीं। वे समझ सकती थीं कि माँ माँ होती है चाहे वह पागल ही क्यों न हो। वे चिन्ता से परेशान हो गयीं। इनका बाहर निकलना मना था, यहाँ तक कि माँ को ढूँढ़ने की भी इजाजत नहीं थी। भाइयों में मझले और बड़े को तौफीक मामू ने पढ़ने के लिए अपने साथ ही रख लिया था। तीनों में जो छोटा था वह हद से ज्यादा शरीफ और सुस्त था। दुनियादारी उसे ज्यादा समझ में नहीं आती थी और उसकी देह भी जरा-सी तब हिलती थी जब उसे घंटों उकसाया जाये अथवा कोसा जाये। दो-चार जमात के बाद ही उसने पढ़ाई से तौबा कर ली और अपना समय ढोर-डंगरों के पीछे, पेड़ों पर या फिर जकीर मियाँ के खेतों पर बिताने लगा। माटी को विभिन्न क्रियाओं से गुजरते देखना और उसमें एक नन्हे सूक्ष्म जीव का विभिन्न चरणों के विकास द्वारा फसल के रूप में तैयार होते देखना उसके लिए सबसे पसंदीदा दृश्य था।
अतः इस सनकमिजाज माँ की चिन्ता करने वाला कोई नहीं था। शफीक ने कहा, 'इस उलटखोपड़ी के लिए इतना हैरान-परेशान होने की जरूरत भी क्या है? यह जिन्दा रहे या मर जाये कोई फर्क तो पड़ता नहीं...बल्कि इसका मर जाना ही हम सबके लिए ज्यादा तसल्लीबख्श होगा।'
इस दुष्ट बकवास पर सभी बहनें मन मसोसकर रह गयीं, लेकिन सल्तनत ने इसे बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया। वह अपनी अम्मा को ढूँढ़ने निकल गयी और उसने बुर्के को भी नजरअंदाज कर दिया, जबकि घर से निकलने पर उसे पहनना एक अनिवार्य नियम था। सल्तनत ने इस बंदिश की ऐसी-तैसी कर दी और अपनी सभी कर्मेन्द्रियों की शत-प्रतिशत क्षमता लगाकर अम्मा को ढूँढ़ने लगी। बुर्के में वह सिर्फ एक सुराख से आँख भर का ही इस्तेमाल कर पाती...नाक, मुँह, कान आदि होकर भी लगभग नहीं होते।
वर्षों बाद वह अपनी खुली आँखों से इस गाँव के चप्पे-चप्पे को निहार रही थी और उन्हें अपने भीतर जज्ब कर रही थी। गाँववाले भी देख रहे थे सल्तनत का निखरा-खिला बेपर्दा रूप जो माँ की तलाश में चिन्तातुर और गमजदा था। मिन्नत कहीं नहीं थी...न जानवरों के पीछे...न तालाब और कुएँ के आसपास...न घनी झाड़ियों और फसलों के बीच। जब इस गाँव में कोई रूठा, टूटा, हारा व्यक्ति कहीं नहीं होता था तो अन्ततः उसे बगल के सुनसान से होकर गुजरने वाली रेल लाइनों पर दूर-दूर तक ढूंढ़ा जाता था। ये रेल पटरियाँ अब धरती पर कहीं आने-जाने में सहयोग करने की बनिस्वत परलोक भेजने का माध्यम ज्यादा हो गयी थीं। पहले समय पर दो-चार लोकल ट्रेनें आती थीं। लोग लगातार इनके जरिये आसानी से और सस्ते में आना-जाना कर लिया करते थे। अब इनका कोई टाइम-टेबुल नहीं रह गया था। दिन के दस बजे वाली गाड़ी रात के दस बजे भी आ सकती थी या भोर के चार बजे भी। अतः अब कोई रेलगाड़ी के भरोसे स्टेशन नहीं आता।
इस स्टेशन पर मालगाड़ी के वैगन लोड किये जाते थे। कभी लकड़ियाँ...कभी पुआल...कभी ईख। अब वैगन भी नहीं आते, क्योंकि जंगल साफ हो गये...धान की उपज नहर के जर्जर होने से आधी से भी कम हो गयी...उचित मूल्य और प्रोत्साहन न मिलने के कारण किसानों ने घाटे में आकर ईख उपजाना भी छोड़ दिया।
स्टेशन के बगल में एक बाजार बस गया था। सैकड़ों ग्रामीणों का रोजगार चलता था। अब यह जगह बियावान-सूनसान हो गयी है।
सन्नाटे में बेमौके आनेवाली गाड़ियों से मरने के लिए रेल की पटरियाँ बहुत उपयुक्त माध्यम हो गयीं। सल्तनत रेल लाइनों की तरफ बढ़ गयी। दूर रेल की पटरियों पर चलता एक लड़का दिखा। उसने सोचा कि कहीं यह भी मरने तो नहीं आ गया। यह उन दिनों की बात है जब भैरव ने उसकी पढ़ाई में सहयोग करना शुरू नहीं किया था।
उस लड़के ने दूर से ही ताड़ लिया। पास आकर कहा उसने, 'मैं प्रभुदयाल का बेटा भैरव। तुम्हारी अम्मा आज रेल लाइन पर नहीं है...अलबत्ता कल थी और अब मेरे घर में है...जीवित। मैं पटरी पर से उठाकर उन्हें घर ले गया। तुम्हारे घर पहुँचाना उचित नहीं समझा, यह सोचकर कि शायद तुमलोगों को अब इनकी जरूरत नहीं रही।'
सल्तनत का कंठ जैसे अवरुद्ध हो गया। भैरव की वाणी और मुखाकृति उसे कुछ अलग लग रही थी। उसने पूछा, 'लेकिन तुम इधर रोज क्या करने आते हो?'
भैरव ने कहा, 'उजड़े दयार पर मर्सिया पढ़ने आता हूँ। तुम्हारी अम्मा की तरह इस वधस्थल पर कई लोग मिल जाते हैं...निराश, बोझिल, बदहवास।' उसने सल्तनत के चेहरे की प्रतिक्रिया देखी, फिर कहा, 'मेरे साथ घर चलो।'
भैरव आगे बढ़ गया। सल्तनत ने उसका अनुसरण कर लिया।
घर पहुँचकर देखा तो उसकी अम्मा एकदम नहायी-धोयी, साफ-सुथरी सामान्य जैसी तरोताजा लग रही थी और भैरव की माँ से कुछ बचकानी छेड़छाड़ तथा चुहल कर रही थी।
'सल्तनत।' भैरव ने पुकारा तो लगा जैसे कोई आलाप गूँज गया हो।
चौंक उठी सल्तनत। इस लड़के को उसका नाम कैसे मालूम। देर से पढ़ाई शुरू करने के कारण वह जल्दी वयस्क दिखने लगी। फिर आठ क्लास के बाद उसे स्कूल जाने ही नहीं दिया गया। उस वक्त तो यह भैरव स्कूल में उसे कहीं नहीं दिखा था।
भैरव ने राग मल्हार जैसी अपनी आवाज आगे बढ़ायी, 'सुना है कि तुम्हारे फिरकापरस्त मामू बुर्के में भी घर से निकलने की इजाजत नहीं देते। लेकिन आज तुम घर से भी निकल आयी और बुर्के की हद से भी। मैं समझ सकता हूँ कि आज तुमने बहुत बड़ा जोखिम उठाकर एक लाजवाब दिलेरी दिखायी है। सल्तनत, ऐसी दिलेरी बहुत जरूरी है जिंदगी के लिए। अपनी माँ अगर पागल भी हो तो वह माँ के हक से बेदखल नहीं होती। तुम्हारी अम्मा को तुम सबके सहारे और सहानुभूति की जरूरत है। कल ये रेल की पटरी पर लेटी थीं...मैं न पहुँच गया होता तो आज दो-चार टुकड़ों में बँटकर वहाँ छितरायी होतीं। जिसे खुदकुशी करने का ज्ञान हो उसे दिमाग से बिलकुल गैरहाजिर नहीं माना जा सकता। देखो तो अभी कितनी भली-चंगी लग रही हैं। इन्हें बचाओ, सल्तनत...चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। माँ को बचाना हमारी एक बड़ी नैतिकता है...एक बड़ा फर्ज है।'
सल्तनत को लगा जैसे किसी सि़द्ध मौलवी की दिल के पार उतर जानेवाली तकरीर सुन रही हो। रूखा-सूखा-सा लगने वाला यह खुरदरा लड़का क्या दिमाग से इतना चमकदार है? उसने बहुत कृत्तज्ञता से उसे देर तक निहारा और पूछा, 'भैरव, क्या मैं पूछ सकती हूँ कि तुम्हें मेरा नाम कैसे मालूम हो गया?'
'तुम्हारा पड़ोसी जकीर मेरा जिगरी दोस्त है। तुम उससे पढ़ने के लिए जो नॉवेल लिया करती हो, दरअसल वे मेरे ही दिये होते हैं। मैं भी इधर-उधर से माँगकर जुगाड़ करता हूँ। नॉवेल पढ़ना मेरा भी शौक है। तुम्हारे बारे में जकीर मुझे अक्सर बताया करता है। गाँव में घटे गलत और नाजायज के खिलाफ तुम्हारे गुस्से का वह खास जिक्र किया करता है।'
'मैं तुम्हारा शुक्रगुजार हूँ, भैरव। तुमने मेरी माँ को बचाया।' सल्तनत ने बात बदल दी।
वह चली गयी। उसकी अम्मा ने साथ जाने इनकार कर दिया। उस दिन वह भैरव के घर ही रह गयी।
सल्तनत घर पहुँची तो वहाँ एक डरावनी-सी चुप्पी ठहरी हुई थी। शफीक गुस्से में उबलते हुए अपनी लाल आँखों से उसकी ही राह देख रहा था। घरवाले गुस्से के कारण आनेवाले जलजले को सोचकर सहमे हुए थे।
चिल्लाकर पूछा शफीक ने, 'कहाँ गयी थी नाम रौशन करने? वापस क्यों आ गयी...उस शैतान की दुम पगली को ढूँढ़ती रहती रात भर, तब न लोग समझते कि बड़ी हमदर्द और खैरख्वाह बेटी हो तुम।'
'जब वह मिल गयी तो उसे ढूँढ़ती क्यों रहती?...और आप चीख क्यों रहे हैं? ऐसा क्या गुनाह कर दिया मैंने? अम्मी सबके सिर का बोझ है तो क्या मैं भी उसे लावारिस हाल मर-खप जाने दूँ? वह जैसी भी है, मेरी माँ है और उसे मेरी देखभाल की जरूरत है।'
'हाँ हाँ खूब देखभाल करो...उसकी खिदमत में जुटी रहो रात-दिन...लेकिन इस घर की एक तहजीब है, वह तो तुम्हें पता है न! औरतों का घर से निकलना हमारी शान के खिलाफ है...अगर निकलना निहायत जरूरी हो तो उनके जिस्म पर बुर्का होना चाहिए।'
'मामू, आप गुस्सा छोड़कर ठंढे दिल से मेरी अर्ज पर गौर फरमाइs। वह जमाना लद गया जब मुस्लिम औरतें घर से निकलती नहीं थीं और निकलती थीं तो अपनी पहचान और वजूद पर बुर्के का खोल चढ़ा लेती थीं। आज अपने कौम की कई ऐसी मारूफ औरतें हैं जिन्होंने दुनियादारी के कई हलकों में कामयाबी पायी हैं और मकबूलियत हासिल की हैं। आपने तस्लीमा नसरीन, इस्मत चुगताई, कुर्तुल एन हैदर, शबाना आजमी, नजमा हेपतुल्ला, बेनजीर भुट्टो, खालिदा जिया, शेख हसीना वाजेद, मुमताज, मीना कुमारी, मोहसिना किदवई, रसूलन बाई, शमशाद बेगम आदि के नाम जरूर सुने होंगे...बुर्के को नजरअंदाज कर अपनी तासीर को सार्वजनिक न करती होतीं तो आज इन्हें जो कद्दावर ताआरूफ मिला है, न मिला होता।'
'किसी से बराबरी करने के पहले अपनी हैसियत और औकात देखनी चाहिए। जिसके पास पंख हो उड़ान वही भर सकता है। वे बहुत बड़े घर की खातूनें हैं...इन पर हँसने और मखौल उड़ाने की कूबत सबमें नहीं हो सकती। तुम क्या हो, पहले इसे समझो। एक छोटे घर, छोटी हैसियत और छोटी जगह से ताल्लुक है तुम्हारा। इस घर में रहना है तो इसके उसूल-कायदे मानने होंगे। इस बार मैं छोड़ देता हूँ...आइंदा अव्वल तो तुम्हें घर से निकलना नहीं है...अगर निकलोगी तो बुर्का तुम्हारे जिस्म पर खाल से भी ज्यादा जरूरी माना जायेगा, गुस्ताख लड़की।' शफीक ने मानो सल्तनत की गैरत की ऐसी-तैसी कर देनी चाही।
उस रोज सल्तनत खौलती रही मन ही मन। रात हुई तो उसने घर के सारे बुर्के को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाला...ममानी की, बहनों की, अम्मी की, खुद की। उन्हें छत पर ले गयी और सबमें इकट्ठे माचिस लगा दी। बुर्के धू-धू कर जलने लगे। उसे लगा मानो पुश्त दर पुश्त चला आ रहा एक रिवाज, एक रूढ़ि, एक बेड़ी आज सर्वनाश के हवाले हो गयी। घर के सभी लोग आँखें फाड़कर देखते रह गये। शफीक को लगा कि यह लड़की भी अपनी माँ की तरह पागल हो गयी है। एक पागल की बेटी और हो भी क्या सकती है।
बुर्के से उठती आग की लपटें जैसे उनके भीतर भी प्रवेश कर गयीं...यह तो सरासर एक काफिराना रवैया है, जिसमें अपने दीन-धरम की तौहीन का मकसद छिपा है। इस शैतान लड़की को तो इसी आग में झोंककर भस्म कर देना चाहिए। बिरादरी के लोग अगर जान जायें तो इसका अंजाम निश्चय ही तिल से ताड़ बन सकता है। यह बेअदब लड़की फिर बच नहीं पायेगी, बदनामी होगी सो अलग। तौफीक का खयाल करके उन्हें बहुत मन मसोसना पड़ा ताकि कानोंकान खबर फैलकर कोई अनिष्ट न घट जाये। यों अंदर से वे खौलते रहे और चैन तब मिला जब तौफीक को टेलीफोन कर दिया कि वह यहाँ फौरन आ जाये, एक बहुत बड़ी वारदात हो गयी है।
तौफीक आये तो पूरा माजरा समझकर विस्मित रह गये। सल्तनत का यह एक नया परिचय था...नयी संभावनाओं और नये तेवरों से लबालब। उसने जो भी किया था...माँ को ढूँढ़ा था...भैरव के घर गयी थी...बुर्के को जलाया था...इन्हें अपराध की संज्ञा नहीं दी जा सकती। उन्होंने बड़े भाई के बमके और उखड़े हुए मजहबी मिजाज को बड़ी चतुराई से सँभाला और कहा, 'यह सचमुच एक नाजुक मसला है...कड़ाई से पेश आकर मैं सल्तनत पर लगाम जरूर लगाऊँगा। अच्छा हुआ आपने मुझे बुला लिया।'
तौफीक मन ही मन सल्तनत के भीतर निहित असहमति के आवेग को एक दिशा देकर रचनात्मक उपयोग करने पर विचार करने लगे। उन्होंने ठीक इसी मुकाम पर यह महसूस किया कि इस लड़की की रुकी हुई तालीम का आगे बढ़ाया जाना बहुत जरूरी है। इसके लिए भैरव ही उन्हें सबसे उपयुक्त शिक्षा-सारथी जान पड़ा। वे अब तक भैरव को बहुत अच्छी तरह परख चुके थे।
अक्षरों और अंकों के माध्यम से दुनियादारी की यात्रा शुरू हो गयी। वे किताब के पन्ने पढ़ने-पढ़ाने लगे लेकिन उन्हें गाँव भी समझ में आने लगा और एक-दूसरे के दुख-दर्द की आहट भी सुनाई पड़ने लगी।
तौफीक जानते थे ऐसा होगा...परन्तु वे किसी जाति, धर्म और परंपरा के प्रति कायल होने की फितरत के सारे बंद दरवाजे खोल चुके थे। उन्होंने खुद एक परित्यक्ता ईसाई लड़की से कोर्ट मैरिज किया हुआ था।
आठ से लेकर कम से कम दस क्लास तक पढ़ना था सल्तनत को। ख्वाहिश तो उसकी इससे भी बहुत आगे की थी। भैरव जैसा सारथी रथ चलाये तो सफर कोई क्योंकर खत्म करना चाहे। खासकर तब जब सारथी में गीता सदृश ज्ञान के परिदर्शन कराने की सामर्थ्य हो।
तो इसी समय-सागर की किसी तरंग पर सवार सल्तनत ने भैरव नाम का रूमाल बुनना शुरू कर दिया था।
सल्तनत मैट्रिक पास कर गयी और फिर प्राइवेट से उसे आई.ए. भी करवा दिया भैरव ने। आई.ए. तक पढ़ने वाली वह इस इलाके की पहली मुस्लिम लड़की थी। आई.ए. कर लेने के बाद तौफीक ने इन्हें कुछ किताबें दीं - गोर्की की 'माँ', बोरिस पास्तरनाक की 'डॉ जिवागो', कार्ल मार्क्स की 'दास कैपिटल' तथा इस्मत चुगताई और मंटो की कहानियाँ। कहा कि इन्हें जरूर पढ़ो।
सल्तनत और भैरव ने सचमुच खूब मन से एक-एक अनुच्छेद पर बहस-मुहाविसा कर-करके इन्हें पढ़ा।
इस बीच गाँव की सूरत में काफी बड़ा फर्क आ गया...वह बद से बदतर होती चली गयी।
मोहिनी शुगर मिल बंद हो गयी। वह चलती थी तो पाँच-छह कोस दूर से चिमनी का धुआँ दिखाई दे जाता था और रात में चारों ओर चीनी बनने की सोंधी सुगंध हवा में घुल-मिल जाती थी।
मिल के चालू होते ही सबकी आँखों में एक चमक उतर आती थी। किसानों-मजदूरों के हौसले बुलंद हो जाते थे कि अब उधार-पैंचा कुछ कम हो जायेगा और हाथ में कुछ नगद-नारायण आ जायेगा, जिससे परिवार के कपड़े-लत्ते, नून-तेल तथा साबुन-सोडे की चिंता दूर हो जायेगी।
गाँव का लगभग हर किसान अपनी आँखों में उम्मीद का एक दीया जलाकर अपने खेत की केतारी की फसल का लहलहाना नित नहीं तो सप्ताह में एक-दो दिन जरूर देख लेता था। गाँव का एक पूरा बाँध केतारी से पटा पड़ा होता था जैसे एक घना जंगल प्रकट हो गया हो। कोई आदमी अगर छुपना चाहे या इस दुनिया से दूर होना चाहे तो केतारी फसल के बीच में समा जाये, उसे कोई ढूँढ़ नहीं सकता। कहते हैं एक बार पीछा करने पर कुछ चोर भीतर घुस गये। गाँववाले कई दिनों तक बाँध को घेरे रहे लेकिन चोर का पता नहीं मिल सका।
इस सीजन में गाँव का हर आदमी चाहे वह बिन जमीन-जोत का ही क्यों न हो, केतारी चिभ-चिभ कर अघाया रहता। बाहर से ट्रक में भरकर आनेवाली केतारी का रास्ता भी गाँव से होकर ही था। मस्जिद के मोड़ के पास ट्रक धीमा होता तो गाँव के लड़के बढ़िया पोड़ावा प्रजाति देखकर दो-चार डाँढ़ खींच लेते और फिर आराम से चीभते रहते।
गन्ने की फसल को सुनिश्चित और सुव्यवस्थित करने के लिए राज्य सरकार के सिंचाई विभाग की ओर से कोई बीस साल पहले इस इलाके के प्रायः हर गाँव में एक-एक, दो-दो बड़े आकार के ट्यूबवेल लगाये गये थे। इसके लिए खासतौर पर बिजली लायी गयी थी। बिजली आ जाने से कई बड़े किसानों ने अपने निजी ट्यूबवेल भी लगा लिये थे जिनसे गन्ने के अलावा दूसरी पैदावार को भी बड़ा बल मिल गया था। चूँकि केतारी बोने का समय लगभग माघ-फल्गुन होता है, इसके लिए ठेहुने तक बढ़ते-बढ़ते कमसिन उम्र में कई बार इन्हें कोड़ने और पटाने की जरूरत होती थी।
चुन्नर यादव, फल्गू महतो और नगीना सिंह गाँव के सबसे बड़े जोतदार थे। इन दोनों ने अपने ट्यूबवेल तो लगाये ही, साथ ही धान कूटने का हालर, गेहूँ पीसने की चक्की तथा सरसों-तीसी पेरने का एक्सपेलर भी बैठा लिया। इस तरह बिजली आ जाने से गाँववालों को काफी आसानी हो गयी। जो काम शहर में जाकर कराना पड़ता था, वह यहीं होने लगा।
गेहूँ की दौनी के लिए भी थ्रेशर मशीन लग गयी। पहले गेहूँ के डंठल को तपी हुई धूप में सुखाना पड़ता था और तब चिलचिलाती धूप में ही छह-आठ बैलों को खूँटे में एक साथ बाँधकर गोल-गोल घुमाया जाता था, जिसे दमाही करना कहते थे।
केतारी पेरने की छोटी मशीन भी अब बिजली के मोटर से चलने लगी थी। प्रायः किसान थोड़ी-सी केतारी बचाकर गाँव में ही पेर लेते थे। पहले इसे बैलों से घुमाना पड़ता था और काफी समय जाया हो जाता था। अब आसानी से रस निकालकर उसे कड़ाह में खौला लिया जाता और गाढ़ा होते-होते वह रवा बन जाता, जो रोटी या चूड़ा के साथ खाने या फिर घोलकर रस बनाने में सालों भर काम आता था।
पता नहीं कैसा गणित काम करने लगा कि लगने वाले समय और मेहनत के हिसाब से किसानों को दूसरी फसलों की तुलना में केतारी घाटे का सौदा हो गयी। उसका खरीद-मूल्य बढ़ाने पर मिल-मालिक को लगा कि भारी नुकसान हो जायेगा। लिहाजा दोनों तरफ से तनातनी हुई और फिर मिल-मालिक ने इसे अपनी मिल एक सहकारी संस्था को दे दी...लेकिन कुछ दिन चलाने के बाद यह संस्था भी समर्थ नहीं हुई और मिल स्थायी रूप से बंद हो गयी। किसानों ने भी केतारी उगाना बंद कर दिया। केतारी-बाँध में अब दूसरी फसलें उगायी जाने लगीं...फिर भी कहीं-कहीं से केतारी का कोई नन्हा-नाजुक कोंपल जमीन से झाँक उठता, जैसे याद दिला रहा हो कि इस निष्ठुरता से उसे भुला देना क्या अच्छा है?
नगद आमदनी करानेवाली इस फसल के अस्तित्व का जब लोप होने लगा तो स्फूर्ति और जोश में रहनेवाले जकीर मियाँ का चेहरा निस्तेज हो गया। पहली बार महसूस हुआ कि बाजार नामक एक अदृश्य शिकंजा गर्दन को कसा हुआ है कि आप अपनी मर्जी से अपनी मन-पसंद फसल भी उगा नहीं सकते। शफीक मियाँ तो जैसे एकदम बौरा ही गये। अब उनके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं बचा। कैसे होगी उनकी गुजर-बसर? आखिर भिखमंगी करके कितना दिन चलेगा? उनके बच्चे भी सयाने हो रहे थे।
मतीउर खेती के कार्य-कलाप में जकीर के साथ बहुत आकर्षित रहता था। सल्तनत ने उसकी इस दिलचस्पी को भाँपते हुए गुमसुम और फिक्रजदा शफीक से कहा, 'मामू, आपके पास जो चार-पाँच बीघा जमीन है, उसे खुद से आबाद क्यों नहीं करते? मतीउर को बहुत मन लगता है खेती में...आप उसकी सिर्फ रहनुमाई कर दीजिए, वह सब कुछ कर लेगा। आखिर उसे भी तो कोई रोजगार-धंधा चाहिए ही...कब तक यों ही मटरगश्ती और जकीर मियाँ की फोकटिया बेगारी करता रहेगा?'
शफीक ने सोचकर देखा कि खयाल तो अच्छा है, लेकिन मन में यह विचार भी आया कि अब खेती-बारी में लस ही क्या रह गया है। जकीर, प्रभुदयाल, चुन्नर, फल्गू, नगीना आदि की उड़ी रंगत को तो वे देख ही रहे थे। चलो, फिर भी आजमाइश करके देखा जाये...बैठे से बेगार भली। सल्तनत पर उन्हें बहुत दुलार आया। यह लड़की सचमुच कितने अलग तरह की है...मन में कोई मलाल या बुरा खयाल नहीं रखती। मशविरा तो ठीक ही दिया है...जो पैदावार आधी बँट जाती है वह पूरी की पूरी घर में आ जायेगी।
बस मतीउर की मदद से उन्होंने खेती शुरू कर दी। जन्नत जहाँ ब्याही गयी थी इदरीश के घर, वहाँ से और जकीर से जोगाड़-पाति मिलने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं आयी। इस तरह साल-डेढ़ साल में खेती में पूरी तरह वे फिट हो गये। काम तो भूत की माफिक मतीउर ही करता था...हलवाही, कुदलवाही, लठवाही, बोझवाही, दौनी-दमाही...लेकिन मजा शफीक को भी आने लगा।
निठल्ला, निष्क्रिय और निकम्मा घोषित मतीउर अब सबसे ज्यादा कमासुत बन गया था। उसके दो भाई अतीकुर, मुजीबुर बी.ए.-एम.ए. करके भी अब तक नौकरी के चक्कर में कभी कलकत्ता, कभी टाटा, कभी दिल्ली आदि के दौरे कर रहे थे।
तौफीक बहुत खुश हुए कि मतीउर और शफीक खेती में लग गये हैं। तौफीक बहुत दुखी भी हुए कि किसानों-मजदूरों में खुशहाली बाँटनेवाली चीनी मिल बंद हो गयी। जकीर तो इस दुख से उबर ही नहीं पा रहा था। केतारी बेच कर हर साल वह चार-पाँच कट्ठा जमीन खरीद लेता था। इसके बिना उसका सारा हिसाब गड़बड़ हो गया था। सल्तनत और भैरव ऐसे किसी भी संक्रमण-काल में उसे संयत करने की भूमिका निभाते थे।
जकीर का घर ही अब इन दोनों के मिलने का पड़ाव था। पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला अब खत्म हो गया था। सल्तनत जब इंटर कर गयी तो शफीक अड़ गये और उसके दोनों भाई अतीकुर तथा मुजीबुर ने भी मना कर दिया, 'बस इतनी पढ़ाई काफी है, अब हद मत पार करो।' तौफीक ने अब अपनी राय थोपना उचित नहीं समझा। उन्होंने यह ताड़ लिया कि दोनों भाई वयस्क और पढ़-लिख कर फैसले करने लायक हो गये हैं...ये नहीं चाहते कि पढ़ाई आगे बढ़ाने के लिए उनकी जवान बहन से किसी बाहरी लड़के की करीबी बनी रहे।
लेकिन तौफीक यह जान गये थे कि इनकी जो करीबी बन गयी है उसे दूरी में बदलना अब आसान नहीं है, खासकर तब जब जकीर जैसा फराखदिल आदमी भैरव का जिगरी दोस्त हो और दोनों के बीच एक सेतु बन गया हो।
जकीर ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था लेकिन भैरव के साथ रहकर उसे यह बोध होता रहता कि वह कम पढ़ा-लिखा भी नहीं है।
भैरव ने उसे समझाया था, 'जकीर, हमें दुखी होने की जगह गन्ने की मिठास का विकल्प ढूँढ़ना है, यार। ऊपरवाला एक दरवाजा बंद करता है तो कई खोल भी देता है।'
जकीर को यह परामर्श अच्छा लगा। उसने कहा, 'भैरो, तुम्हारी यह लत बहुत बुरी है कि तुम अच्छी बात बहुत देर बाद करते हो। जानते हो कि मुझे सोचना नहीं आता...जब सोचता हूँ तो दिमाग की नसें फूलकर बैलून बनने लग जाती हैं। तुम यह मशविरा पहले दे दिये होते तो मैं नाहक परेशान तो न हुआ रहता।'
सल्तनत सुन रही थी इनकी बातें। कुछ खटक रहा था उसे। कहा, 'जकीर भाई, मुझे ताज्जुब होता है कि इस इलाके के भरण-पोषण में सबसे बड़ी भूमिका अदा करनेवाली इस मिल के बंद हो जाने पर भी कहीं से कोई कारगर विरोध नहीं। लोग इतने ठंढे, तटस्थ और सुस्त क्यों हैं?'
'तुम्हारा भैरव इसे बेहतर जानता है, सल्तनत। कई बार इस मुद्दे पर तुम्हारे तौफीक मामू से बातचीत की है इसने।' जकीर ने कहा।
सल्तनत का ध्यान बरबस खिंच गया कि 'तुम्हारा भैरव' पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया गया है। उसने कहा, 'जकीर मियाँ, तो क्या आपने यह मान लिया है कि आपसे ज्यादा और पहले यह भैरव मेरा हो गया है?'
'अब इसमें न मानने की गुंजाइश कहाँ है, सल्तनत। ऐसा मानकर ही मैं इस भैरव नामक आदमी को जितना पसंद करता हूँ उससे ज्यादा नापसंद भी करता हूँ। बहुत बातें यह मुझसे छिपाने लगा है।'
'जकीर मियाँ, यह तो आपकी ज्यादती है। भला प्यार-मुहब्बत की एक-एक बातें आपको बताना क्या लाजिमी होगा? ऐसे भी दो आशिकों में क्या बातें होती हैं यह तो पूरी दुनिया जानती है।'
'सल्तनत, लगता है पूरी दुनिया हमदोनों के रिश्ते को भी जान गयी है। हमारे मिलने की तलब बढ़ गयी है और दूसरी तरफ हमारे दुश्मन भी बढ़ गये हैं। ऐसा न हो कि जकीर के घर में भी हमारे आने-जाने में कोई दुश्वारी पैदा हो जाये।' भैरव ने कहा।
'तुमने ठीक फरमाया, भैरव। एक दुश्वारी तो इसी घर में मेरी अम्मी है। ऐसा लग सकता है कि उनकी आँखें कमजोर हैं और उन्हें साफ दिखाई नहीं पड़ता...लेकिन ऐसी चीजें जो उन्हें नागवार हो साफ दिखाई पड़ जाती हैं। सुनने में भी उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती। वे अगर तुम दोनों की नजदीकी को ताड़ गयीं तो उनका ट्रांसमीशन इतना तेज है कि गाँव भर में यह खबर मिर्च-मसाले के साथ फैल जायेगी।'
'इस ममानी को मैं भी जानती हूँ ,जकीर...मेरी अम्मा कितनी बेजा हरकतें करती हैं इनके साथ, लेकिन कभी बुरा नहीं मानती और अक्सर उसे फुसला-बहला कर उसके उधियाये-झखराये केश को संवार देती हैं...उसे नहला-धुलाकर गंदे-फंदे कपड़े भी बदल देती हैं कई बार। तो माँ के साथ जब इतनी मेहरबान हैं तो उसकी बेटी के साथ कठोर कैसे हो सकती हैं?'
'सल्तनत !' जकीर ने जरा गंभीर होते हुए कहा, 'मेरी अम्मी तो क्या, तुम्हारे अपने भाई भी देखना इस मामले में तुम्हारे साथ नहीं होंगे। चूँकि एक तो मुहब्बत और ऊपर से लड़का गैर महजब का और वह भी इस पिछड़े हुए लकीर के फकीर गाँव में। तुम्हारी इसी मुहब्बत के लिए किसी शायर ने कहा है कि इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।'
'जकीर, तुम्हारा साथ रहा तो हम इस आग के दरिया को शबनम के दरिया में बदल डालेंगे।' भैरव ने कहा।
'इस दुनिया में होने की मेरी यह सबसे बड़ी हसरत है भैरव कि तुम दोनों की मुहब्बत को सबसे ऊँचे मुकाम पर देखूँ। मैंने यह महसूस किया है कि एक-दूसरे से प्यार करके तुम दोनों अपने इस गाँव को ज्यादा प्यार करने लगे हो। आज गाँव को बचाने के लिए गाँव को प्यार करनेवालों की बड़ी जरूरत है, दोस्त।'
'जकीर...,' आह्लाद भरे आश्चर्य से भैरव ने पुकारा, 'देखो, हमारे प्यार का तुम पर असर होने लगा...वरना इतने अक्लमंद और दार्शनिक तो तुम कभी न थे।'
'तो जनाब, इसके पहले कि आप लोगों की सोहबत में मैं और बिगड़ जाऊँ, मैं इजाजत चाहता हूँ, जरा गाय-गोरुओं की देखभाल कर आऊँ...सानी-पानी देने का समय हो गया है।'
जकीर चला गया।
'देखो, हमें तन्हाई देने के लिए कैसा बहाना गढ़ लिया।' सल्तनत ने कृत्तज्ञता भरी आँखों से कहा।
'मुझे ऐसा लगता है सल्तनत कि जकीर हमें मिलने की जगह घर में नहीं दिल में दे रहा है। उसके इस दोस्ताने करम के बिना हमारी मुलाकात कतई मुमकिन नहीं है।'
'जकीर सिर्फ इतना ही करम नहीं करता, हमारी खैरियत का पूरा खयाल भी रखता है। बता रहा था कि तुम्हारे घर की हालत बहुत खस्ताहाल है। तुम्हारे बाउजी तुम पर रोज कुढ़ते और बरसते रहते हैं कि पढ़-लिख गया तो कोई नौकरी क्यों नहीं करता। पढ़ाई में इतने जहीन माने जाने वाले को भी क्या नौकरी नहीं मिलती या करना नहीं चाहता। भैरव, कहीं यह सच तो नहीं कि इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया।'
'बाउजी कुढ़ते हैं, यह सच है सल्तनत, लेकिन इश्क ने निकम्मा नहीं किया है। नौकरी कहाँ मिलती है...तुम तो देख ही रही हो...कई इम्तहानों में बैठ चुका हूँ।'
'नौकरी तो तुम्हें शर्तिया मिलेगी, भैरव...नहीं तो हम अंतिम रूप से यह मान लेंगे कि दुनिया में अब मेरिट की कोई जगह नहीं है। चिन्ता यह है कि फिर तुम्हारी मेरिट से इस गाँव-जवार को कुछ नहीं मिलेगा...गाँव से एक और तौफीक का पलायन होगा।'
'जकीर भी यही कहता है, सल्तनत। लेकिन मैं क्या करूँ? हम इतनी कम जमीन-जोत वाले हैं कि खेती पर आश्रित होकर बसर नहीं कर सकते। बाउजी जब तक नहर विभाग में रहे गुजारा हो गया, अब उनकी खीज बढ़ गयी है। मैं नौकरी करूँगा, सल्तनत, लेकिन ऐसी नौकरी जो मुझे गाँव से और तुमसे ज्यादा दूर न करे।'
'भैरव, हमारी मुहब्बत का नाम गाँव है और ये गाँव सिर्फ घरों एवं चलते-फिरते इंसानों से नहीं बनते...बल्कि आशिकों के इश्क से बनते हैं। जकीर ने कहा कि तुम इन दिनों उदास और दुखी रह रहे हो तो मुझे कई रातें अच्छी नींद नहीं आयी। तुम्हें हारना नहीं है, भैरव...हारोगे तो मैं बिखर जाऊँगी।' सल्तनत ने भैरव के सीने पर अपना सिर रख दिया।
भैरव ने उसके बालों में उँगलियाँ फिरायीं और गालों पर प्यार भर थपकी लगायी, फिर दुलारते हुए कहा, 'मुझे उदास नहीं देखना चाहती, मेरी एक-एक खबर रखती हो, लेकिन अपना खयाल भी क्या हुजूर को रहता है? सुना है इन दिनों रोज घर में लड़-झगड़कर रूठ जाती हो और खाना भी नहीं खाती। सेहत गिर गयी है इसका इल्म है तुम्हें?'
'उफ! यह जकीर मियाँ दीवार के इस पार से मेरे पूरे घर की जासूसी कर लेता है। मैं क्या करूँ, भैरव। मुझसे नाजायज जरा-सा भी बर्दाश्त नहीं होता। घर का कोई भी, मामू, ममानी, मेरी बहनें या फिर बच्चे माँ को दुरदुराते या झिड़कते हैं तो मैं बेजब्त हो जाती हूँ। अभी जन्नत की डिलेवरी होनेवाली है...उसकी सेवा-सम्हाल के लिए घर से किसी को जाना है। मामू अड़ गये हैं कि मुझे ही वहाँ जाना होगा। इस मसले पर रोज हुज्जत हो रही है।'
'तो तुम जा रही हो?'
'फिर क्या करूँ? सब मुझे ही भगाना चाहते हैं...लड़ती हूँ न सबसे। मेरे नहीं रहने से सबको चैन मिल जायेगा...मनमानी करेंगे।'
'कब आओगी वापस?'
'कैसे कहूँ, मुझे कुछ मालूम नहीं कि बच्चा कब होगा और हो जाने के बाद मुझे कितने दिनों तक क्या करना होगा?'
'रहा नहीं जायेगा तो मिलने आ जाऊँगा। तुम्हारा बहनोई इदरीश तो मुझे पहचानता ही है...कोई बहाना...।'
'भूल से भी मत आना। बहुत खुर्राट है वह। उसके बर्ताव और सलूक मुझे कभी अच्छे नहीं लगे। जन्नत से भी वह अच्छी तरह पेश नहीं आता। बाँदी समझता है उसे। बात-बात में मारपीट करने लग जाता है। मैं तो बस मजबूरी में जा रही हूँ...नहीं जाऊँगी तो बाद में जन्नत भी कोसेगी और उलाहना देगी।'
'देखना, वहाँ भी झगड़कर उपवास व्रत मत ठान देना।'
'नाजायज देखकर चुप रहना मुझसे मुमकिन भी तो नहीं है।'
ये बातें चल रही थीं तो जैसे इनके बीच अंतरंगता और आत्मीयता की एक सरिता प्रवाहित हो रही थी। ठीक इसी दरमियान जकीर की वालिदा ऊपर के कमरे से सीढ़ियाँ टटोलती हुई उतरकर नीचे आ गयी और पुकारने लगी, 'कौन बातें कर रहा है यहाँ?'
दोनों ने एकदम मौन साध लिया।
'बोलते क्यों नहीं?'
सल्तनत बोलने ही जा रही थी कि वह फिर शुरू हो गयी, 'कौन हो तुम दोनों, अब जान गयी हूँ मैं। पिछली कई बार से मैं कोशिश कर रही थी। बुढ़ापे ने मुझे इतनी अंधी और बहरी नहीं बना दिया है? इतना बता देती हूँ कि तुम लोग जो कर रहे हो, वह अच्छा नहीं है। जकीर तुम्हें शह दे रहा है न, मैं उसकी भी खबर लेती हूँ...अब तुम दोनों होशियार हो जाओ।'
दोनों चुपचाप निकल गये। अब तक शाम का झुटपुटा नीचे उतर आया था।
सल्तनत जन्नत की ससुराल मंजौर चली गयी तो आठ दिनों में ही वापस हो गयी...परन्तु इस छोटी-सी अवधि में काफी कुछ घटित हो गया।
जन्नत कई दिनों से बिस्तर पकड़कर कराह रही थी। सल्तनत ने ताड़ लिया कि हालत कुछ ज्यादा ही खराब है। उसने इदरीश से कहा, 'शहर ले जाकर किसी नर्सिंग होम में भर्ती कराइए...आपा बहुत तकलीफ में है।'
इदरीश ने उसकी बातों का मजाक बनाते हुए कहा, 'कभी माँ तो बनी नहीं हो, तुम्हें क्या मालूम कि इसमें कितनी तकलीफ होती है? गाँव के बच्चे नर्सिंग होम में पैदा नहीं होते। बुधनी चमाइन ही सबसे बड़ी नर्स हैं हमारे लिए।'
'जमाना अब बदल गया...।'
'कोई जमाना नहीं बदला है...बच्चा जनने का काम आज भी औरत ही कर रही है और तरीका वही है जो पहले हुआ करता था।'
सल्तनत अब कह भी क्या सकती थी?
बुधनी चमाइन सुबह-शाम आकर पेट ससार जाती और अपना देहाती नुस्खा बता जाती।
सल्तनत को यहाँ आकर जरा-सा भी अच्छा नहीं लग रहा था। एक तो पूरे घर में अकेले, ऊपर से इदरीश के सलूकात में कोई तमीज नहीं। उसके चंट बोलचाल और रवैये देखकर पड़ोस से भी कोई झाँकने नहीं आता था। उसके तीन भाई और अम्मा-अब्बा थे जो अलग होकर उससे कोई ताल्लुक नहीं रखते थे। सल्तनत भाँप रही थी कि इदरीश उसे ललचायी निगाहों से देखता है और उसके आवभाव में एक शरारत और मक्कारी समायी हुई है। एक आसन्न अनिष्ट से वह मन ही मन डरी हुई थी।
पाँचवाँ या छठा दिन था कि सचमुच ही उसने अपना असली चेहरा दिखा दिया। अकेले कमरे में उसके हाथ पकड़ लिये। वासना के एक लिजलिजे कीड़े की मानिंद शक्ल बनाकर वह एक पतित फरियाद करने लगा, 'सल्तनत, बहुत दिनों से मन मारकर रहना पड़ रहा है...जरूरत तो तुम्हें भी महसूस होती ही होगी। जीजा-साली में तो जरा चलता ही है, क्यों नहीं हम भी इस मौके का फायदा उठा लें?'
सल्तनत उसे बेपनाह नफरत से निहारती हुई मानो आग की एक लपट बन गयी, 'मुझे जरा भी छुआ तो चीखकर पूरे मोहल्ले को जमा कर दूँगी। तुम अच्छे आदमी नहीं हो, यह तो तुम्हारे चेहरे से मुझे पहले ही मालूम पड़ रहा था, लेकिन तुम बहुत बड़े चटोरे, टुच्चे और नीच इंसान हो, आज यह साबित हो गया।'
'सुनो बदमिजाज लड़की, तुम क्या हो यह मुझे भी पता है। भैरो से तुमने पढ़ने के बहाने कौन-कौन-से कुकर्म और व्यभिचार किये हैं, मुझसे छिपा नहीं है। तो उस गैरजाति और गैरमजहब के एक चवन्नी लौंडे के साथ मौज उड़ाना तुम्हें अच्छा लगता है और तुम्हारा बहनोई होकर जरा-सा लुत्फ मैं भी उठा लेना चाहता हूँ तो बुरा आदमी हो गया मैं?'
'भैरव से मेरे रिश्ते को तुम्हारे जैसा घटिया आदमी नहीं समझ सकता, इदरीश मियाँ। अब आगे मैं तुमसे कोई बकवास सुनना नहीं चाहती। कमरे से निकल जाओ...नहीं तो इसी वक्त मैं तुम्हारे इस दोजख से निकल जाऊँगी।'
बला टल तो गयी उस वक्त, लेकिन इस घर से निजात पाने के लिए वह बेचैन हो गयी। बदकिस्मती से अगले दिन जन्नत की तबीयत ज्यादा बिगड़ गयी और बिगड़ती ही चली गयी। कम्बख्त इदरीश ने इसकी कोई परवाह नहीं की। आठवाँ दिन बच्चा निछड़ भी नहीं पाया, शायद पहले ही पेट में मर चुका था कि जन्नत मौत को प्यारी हो गयी।
जब सल्तनत लतीफगंज लौटी तो बहन की मौत के सदमे से उसका चेहरा उतरा हुआ था। वह इदरीश को इस मौत का जिम्मेदार ठहराकर उसे सबकी नजरों में जलील करना चाहती थी कि उसने देखा यहाँ का माहौल उलटे उसे ही नजरों से गिराने के लिए आतुर है। घर और गाँव के सभी लोगों को खबर हो गयी थी कि सल्तनत और भैरव एक-दूसरे से लगे-फँसे हुए हैं। जगह-जगह पर लोग इस तरह इसकी कानाफूसी कर रहे थे जैसे प्यार नहीं कोई दंगा हो गया हो। ऊपर से इदरीश ने आग में घी डालने की तरह घर में सबको बरगला दिया कि भैरो मेरे घर सल्तनत से रोज मिलने आ जाया करता था...इसे लेकर उस लफंगे से मुझे बहुत झगड़े-तकरार करने पड़े।
स्यापा और गम करने की जगह सबका ध्यान सल्तनत पर ही केन्द्रित हो गया। शफीक ने अपनी त्यौरी चढ़ाकर उससे साफ-साफ पूछ लिया, 'सल्तनत, क्या यह सच है कि तुमने हमारी आबरू को उस नामुराद भैरव के पास नीलाम कर दिया है जो एक तो हमारे मजहब का नहीं है, दूसरे हिन्दू में भी एक छोटी जाति का है और तीसरे छोटी में भी एक भूखे-नंगे परिवार का है।'
सल्तनत ने अपने चेहरे को निर्भीक और सख्त बना लिया, 'तो आप सभी एक साथ सुन लें...आओ सब घर के लोगो...ममानी, आपा, बच्चे...चाहती तो हूँ कि मैं मस्जिद के गुंबज पर खड़े होकर अजान वाले माइक से पूरे गाँव को इकट्ठे इत्तिला कर दूँ कि हाँ...हाँ...हाँ मैं भैरव से प्यार करती हूँ और करती रहूँगी...उस भैरव से जो हिन्दू है...शूद्र है और गरीब है...लेकिन मेरी चाहत की रियासत का सबसे बड़ा शहजादा है। ऐसा करके मैंने कोई गुनाह नहीं किया है...कोई यह न समझे कि इसके लिए मैं शर्मिंदा हूँगी और किसी के भी जुल्म-ज्यादती या अत्याचार सहने के लिए हाजिर रहूँगी। मैं गुजरे जमाने के उन शरीफों और बेचारों में नहीं हूँ जो मुहब्बत करने की कीमत कोड़े और पत्थर खाकर चुकाते थे। मैं अपने ऊपर उठती किसी भी उँगली से सीधी टक्कर लूँगी...इसे सब याद रखें।'
सल्तनत के इस चट्टानी इरादे से सभी लोग हैरान रह गये।
शफीक ने तौफीक और सल्तनत के दोनों भाइयों अतीकुर एवं मुजीबुर को फौरन आने के लिए टेलीफोन कर दिया। मकसद के इजहार में जन्नत के गुजर जाने पर जोर कम था और सल्तनत ने एक विधर्मी से संबंध जोड़ने की नाकाबिले-माफ खता की है, इस पर ज्यादा था।
आ गये अतीकुर, मुजीबुर और तौफीक।
दोनों भाई साधारणतः किन्हीं अच्छी नौकरियों में लग गये थे और घर में भी माहवार एक अच्छी रकम भेजने लगे थे, जिसके चलते उनका प्रभाव जरा बढ़ गया था और पारिवारिक मामले में इनकी राय महत्वपूर्ण हो गयी थी। इनसे मदद मिलने और खेती शुरू हो जाने से शफीक की तौफीक पर निर्भरता थोड़ी कम हो गयी थी और वे कुछ बदले-बदले आक्रामक मूड में आ गये थे।
सबके सामने सल्तनत के गुस्ताख और अक्खड़ रवैये की तफसील से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, 'इस लड़की का मन इतना बढ़ गया है कि यह किसी की परवाह नहीं करती। ताल ठोंककर कहती है कि हाँ, मैं भैरव से मुहब्बत करती हूँ और करती रहूँगी...मेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। हमलोग तो इस गाँव में अब मुँह दिखाने लायक भी नहीं रह गये।'
अतीकुर और मुजीबुर ने खा जाने वाली नजरों से घूरा सल्तनत को जैसे अपनी बड़ी बहन की जगह किसी आफत की पुड़िया को देख रहे हों।
अचल-स्थिर सल्तनत ने उनकी आँखों में बसे इस खोटेपन को धिक्कारते हुए कहा, 'इस तरह गुस्से से मुँह बनाकर क्या देखते हो मुझे? बड़े-बड़े कालेजों से बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ ली हैं तुमलोगों ने, फिर भी तुम्हारे दिमाग की सरहद इतनी तंग क्यों है? अतीकुर और मुजीबुर! तुम पैसे कमाते हो और मर्द हो तो मुझ पर हुक्म चलाने का अख्तियार तुम्हें हासिल नहीं हो गया। तुमलोग सुनना चाहते हो न तो सुनो कि हाँ, हम एक-दूसरे से मुहब्बत करते हैं...और तुम्हें जानना चाहिए कि मुहब्बत से बड़ी नेमत, बड़ी दौलत और बड़ी इबादत कुछ नहीं होती दुनिया में। मैं अपनी हासिल मुहब्बत पर फख्र करती हूँ और ऐसा करते हुए मुझे किसी से कोई डर नहीं है।'
'सल्तनत! तुम्हारी यह बेअदब कारिस्तानी और बदतमीज चोंचबाजी तुम्हारी जिंदगी के लिए बहुत महँगी साबित होगी। तुम क्या समझती हो कि इस तरह ढीठ और जाहिल सलूक करके बहुत बड़ी तरक्कीपसंद होने का दर्जा अख्तियार कर लोगी? ऐसी चाल-चलन घर में रहनेवाली खानदानी बहू-बेटियों की नहीं होती।' अतीकुर ने हिकारत से देखते हुए फटकार लगायी।
मुजीबुर ने भी लगे हाथ दबोच लेना चाहा, 'सल्तनत! तुम मेरी बहन हो...मेरे घर की इज्जत हो...तुम्हारा दिमाग बहक गया है तो हम तुम्हें यों ही बहकने नहीं दे सकते। तुम काबू में नहीं आओगी तो हमें सख्ती बरतनी होगी। भैरो जैसे ऐरे-गैरे पर तुम्हारा इस तरह लट्टू होना हमारी तौहीन तो है ही, तुम्हारी कुढ़मगजी भी है।'
सल्तनत के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आयी, 'भैरव तुमलोगों की निगाह में चाहे जो दर्जा रखता हो, मेरे लिए वह दुनिया का सबसे कद्दावर और बेहतरीन आदमी है। किसी को इस पर एतराज है तो यह उसकी मुसीबत है। मैं अपने बारे में फैसला करने के लिए आजाद हूँ...मेरी उम्र अट्ठारह से कई वर्ष इस पार है।'
तौफीक संत भाव से चुपचाप सुन रहे थे और एक शॉक आब्जर्वर की तरह सारे झटके जज्ब करते जा रहे थे। शफीक इस चुप्पी को मन ही मन टटोल रहे थे और कुढ़ रहे थे। बहुत देर तक यह चुप्पी उनसे झेली नहीं गयी, 'तौफीक मियाँ, आखिर आप भी कुछ बोलेंगे या यह लड़की एक बिगड़ैल घोड़े की तरह सबके मुँह पर सरपट दुलत्ती झाड़ती रहेगी?'
तौफीक ने फिर भी कुछ नहीं कहा, सिर्फ झाँक लिया सल्तनत की पारदर्शी आँखों में जहाँ मुहब्बत के बेखौफ परचम शान से लहरा रहे थे। उन्होंने उसके दोनों भाइयों, शफीक और एक किनारे में भोलेपन का चोंगा ओढ़कर बैठे इदरीश का बारी-बारी से एक जायजा लिया। डंक मारने के लिए मानो सभी फन काढ़े तैयार बैठे थे...इन सबकी मर्दानगी को एक नाचीज लड़की ने मानो चुनौती देकर आहत कर दिया था।
अतीकुर ने तौफीक को फिर कुरेदने की कोशिश की, 'मामू, मेहरबानी करके आप बोलिए...हमारी आजिजी अब बेकाबू हो रही है।'
तौफीक ने एक लंबी साँस ली, 'मैं देख रहा हूँ तुम सभी अपने-अपने खाँचे में समाये जरा-सा भी बदलना नहीं चाहते, जबकि सल्तनत अपने खाँचे से निकलकर पूरी तरह बदल जाना चाहती है। मेरी बात तुमलोगों को पसंद नहीं आयेगी, इसीलिए मैं चुपचाप हूँ।'
'कहीं आप सल्तनत की तरफदारी करके उसका हौसलाआफजाई तो नहीं करना चाह रहे?' मुजीबुर ने अपना रुख तनिक वक्र करते हुए कहा। तौफीक ने इसे ताड़ लिया।
'देखो मुजीबुर, प्यार के मामले में हमेशा यह होता रहा है है कि इजलास पहले लग जाता है...सजा पहले मुकर्रर हो जाती है और गुनाह बाद में तय होते हैं और ज्यादातर तो गुनाह तय होते भी नहीं। सल्तनत ने मुहब्बत की है...मुहब्बत एक जज्बात और जिगर का मामला है। कोई किसी फूल से, किसी रंग से, किसी दरख्त से, किसी मौसम से, किसी खुशबू से, किसी वादी से, किसी पहाड़ से, किसी शहर से, किसी वतन से, धन-दौलत और गहने-जेवरात से प्यार करता है। सल्तनत ने भी किया है एक लड़के से। इत्तफाक से उस लड़के की एक खास जाति, मजहब और हैसियत है। सल्तनत चाहती तो इस जज्बे को दिल में भी छुपाकर रख सकती थी...लेकिन उसने इसका खुलकर इजहार कर दिया...यह अगर खता है तो दुनिया के ज्यादातर लोग खतावार हैं।'
'तौफीक मियाँ, बहुत हो गया।' शफीक पिन-पिना उठे एकाएक, 'अब तुम्हारा फलसफा और कम्युनिस्टगीरी इस घर पर लादी नहीं जा सकती। सल्तनत का दिमाग जो आज सातवें आसमान पर चढ़ा है, यह तुम्हारी ही करतूत है, वरना मजाल नहीं कि इस शरीर लड़की के गले से एक लफ्ज तक बाहर आने देता।'
तौफीक मियाँ का मुँह अचरज से खुला रह गया। जिंदगी भर उसके मशविरे और फैसले पर निर्भर रहनेवाले उसके इस दब्बू भाई का आज यह तेवर। उन्होंने कहा, 'भाई साहब, मेरा कहा मानिए, न मानिए, आपकी जो मर्जी हो कीजिए। मैंने आप पर कभी अपनी मर्जी नहीं थोपी। सल्तनत पर आप भी अपनी मर्जी नहीं लाद सकते। मानने न मानने के लिए वह भी आजाद है।'
'मझले मामू! माफ कीजिए, सल्तनत को आपने जिस रास्ते पर ला दिया है, उससे मैं भी इत्तफाक नहीं रखता। आज वह एक कटी पतंग की तरह आवारा उड़ने के लिए बेताब है और नीचे खड़ा पूरा जमाना तमाशायी बनकर तालियाँ बजाने के लिए आतुर है, और आप हैं कि उसे शह दिये जा रहे हैं। मैं इसकी खिलाफत करता हूँ। उसे एक मजबूत डोर से बाँधकर रखना हमारा फर्ज है।' बोलते हुए अतीकुर के गोरे-चिट्टे चेहरे पर ढेर सारी लाल नसें झाँकने लगीं।
तौफीक के चेहरे पर हैरानी के भाव गहरे होते जा रहे थे। जिसका उन्होंने कभी खाँसना भी नहीं सुना, उसका वे दहाड़ना सुन रहे थे।
मुजीबुर की आँखों में भी ढेर सारा गुस्सा तैर रहा था। वह भी चुप क्यों रहता, 'आपने सल्तनत को अपनी अधूरी हसरतें पूरी करने वाला वारिस बना दिया। उसकी बागी और नामाकुल हरकतों को आपने हमेशा हौसला आफजाई किया...जैसे सारा कुछ एक सोची-समझी चाल हो। आखिर क्या जरूरत थी उसे इंटर तक पढ़ाने की और वह भी एक काफिर लड़के के जरिये से? हम उम्र से छोटे थे और मोहताज भी, इसलिए आपको कुछ कह न सके। आज पूरी बिरादरी उसके नाम पर थू-थू कर रही है, फिर भी आप उसे खतावार नहीं मानते। आखिर उसे और किस अंधी गली में ले जाना चाहते हैं आप?'
तौफीक की हैरानी बढ़ती जा रही थी। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि जवाबतलब करने वाले इन दो बदजुबान लौंडों को पाल-पोस कर और लिखा-पढ़ाकर उन्होंने ही इस काबिल बनाया है। बहरहाल वे उस मिट्टी के बने नहीं थे कि अपने किये हुए एहसान की याद दिलाकर उसे चुप कराते। उन्होंने बेहतर समझा कि वे खुद ही चुप रहें।
'खैर, आपने जो भी सोचा हो, उसकी मियाद पूरी हो गयी है। सल्तनत को अब आपके मुताबिक हम चलने नहीं दे सकते। उसकी जिस तरह बदनामी हुई है, अब कोई उससे निकाह करने को तैयार नहीं होगा।' मुजीबुर ने कहा।
'जन्नत के इंतकाल के बाद इदरीश को फिर से अपना घर बसाना है। हमने इसे कह-सुनकर किसी तरह मनाया है कि हमारी इज्जत बचा ले और सल्तनत से निकाह कर ले।'
'हरगिज नहीं,' भीतर से चीख उठी सल्तनत, 'इस जलील, नीच और मक्कार आदमी से मैं अपनी मौत का सौदा कभी नहीं कर सकती। मेरे निकाह की फिक्र कोई न करे। अगर मैं किसी के सिर पर बोझ हूँ और किसी को घमंड है कि वह मेरी परवरिश करता है इसलिए मैं उसके हुक्म का गुलाम हूँ तो यह उसकी गलतफहमी है...मैं आज ही घर से निकल जाती हूँ।'
'तुम अब कहीं नहीं निकलोगी, सल्तनत। तुमने अपनी मर्जी से बहुत कुछ कर लिया। अब हम जो चाहेंगे वही होगा। तुम्हें इदरीश से निकाह करना होगा।' दाँत पीसकर मुजीबुर ने कहा तो लगा जैसे कि आज वह कोई बकरा जिब्ह कर रहा है।
सल्तनत ने अपने जवाब को और भी करारा एवं आक्रामक बना लिया, 'इस शैतान भेड़िए ने तुम सबको खूब पट्टी पढ़ायी है। एक सप्ताह पहले अपने जिस गंदे इरादे में यह कामयाब नहीं हुआ था, उसका बदला लेने के लिए इसने पूरी साजिश रच ली है। लेकिन सुन लो कलमुँहे इदरीश, तुम्हारे नापाक इरादे कभी पूरे नहीं होंगे। मैं कोई जानवर नहीं हूँ कि हमारे ये भाई और मामू कहे जाने वाले सिरफिरे लोग मुझे ले जाकर तुम्हारे दोगाह के खूँटे में बाँध देंगे।'
शफीक का गुस्सा कपार पर चढ़ गया, 'अतीकुर...मुजीबुर! इस बदमिजाज लड़की का जब मुँह खुलता है तो उससे मानो एक बदबूदार नाली बहने लगती है। इसे अब यहाँ बीमारी फैलाने के लिए होने की कोई जरूरत नहीं है...इसे ले जाकर बंद कर दो किसी कोठरी में।'
सुनते ही अतीकुर-मुजीबुर झपट पड़े सल्तनत पर और घसीटते हुए ले जाकर एक कोठरी में बंद कर दिया। वह क्रोधित शेरनी की तरह दहाड़ती हुई सबको धिक्कारने और दुत्कारने लगी।
तौफीक का संयम अब जवाब दे गया, 'ये क्या हो रहा है...क्या कर रहे हो तुमलोग? इस तरह जल्लादों की तरह पेश आना क्या शोभा देता है? यह लड़की तुम्हारी बहन है...बेटी है...कोई मुजरिम नहीं है कि जबर्दस्ती बंद कर रहे हो उसे कमरे में...शर्म आनी चाहिए ऐसी हरकत पर। इस इदरीश से तुमलोगों ने पूछा एक बार भी कि जन्नत क्यों मर गयी? सल्तनत के साथ इसने क्या बदसलूकी की थी अपने घर...पूछा एक बार भी। जन्नत की अकाल मौत पर हमारे लिए यह मातम मनाने की घड़ी थी और तुमलोग इसे नजरअंदाज कर मुहब्बत का मातम मनाने लगे...जैसे किसी के मरने से ज्यादा अफसोसनाक है किसी का किसी से मुहब्बत करना।'
'मामू, हम सब कुछ पूछ चुके हैं...जान चुके हैं। सल्तनत ने जो कुछ आपको बताया है, वह मनगढ़ंत है, बेबुनियाद है।' अतीकुर ने यकीन दिलाने वाली सफाई पेश की।
'सल्तनत की जिस बेहयाई को आप बार-बार मुहब्बत का नाम दे रहे हैं वह सचमुच हमारे लिए मौत से भी ज्यादा सदमाखेज है। मेहरबानी करके आप चुप रहिए...इस मामले में हम किसी का कोई दखल बर्दाश्त नहीं कर सकते।' मुजीबुर जरा तैश में आ गया।
'हद से ज्यादा मत बढ़ो, मुजीबुर। मैं इस घर में क्या कोई बाहरी आदमी हो गया? सल्तनत क्या सिर्फ तुम्हारी बहन है...मेरी कुछ नहीं लगती? तुम क्या समझते हो कि यह मेरी कोई दुश्मन है कि बदला लेने के लिए मैंने इसे गलत रास्ते पर डालकर गुमराह कर दिया? मत भूलो कि तुम दोनों भी मेरे ही साये में बड़े हुए हो...और अभी इतने भी बड़े नहीं हो गये कि मुझे सही-गलत की तमीज तुमसे सीखनी पड़े। सल्तनत के साथ इस घर में कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं होगी। खबरदार जो किसी ने उसके साथ मुजरिम की तरह पेश आने की सूबेदारी दिखायी। मैं आ रहा हूँ सल्तनत...मैं अभी तुम्हें कमरे से बाहर निकालकर आजाद करता हूँ।'
तौफीक उठकर खड़े हो गये और कमरे की तरफ बढ़ चले। इसी बीच अतीकुर और मुजीबुर उनके रास्ते में आ गये। अतीकुर की मुद्रा तन गयी, 'मामू, आज हम किसी भी सूरत में आपकी एक न चलने देंगे। हमने जो ठान लिया है करके रहेंगे। सल्तनत के मामले में आपने जो मनमानी की उसके अंजाम पर बिरादरी में हरेक को एतराज है। इसलिए आप आज मन मारकर किनारे हो जाइए। अगर आप हमें रोकने की कोशिश करेंगे तो आज हम आपके साथ भी मुरौवत और लिहाज नहीं बरत सकेंगे। हम सल्तनत के भाई हैं...इतना भरोसा तो आपको हमलोगों पर करना ही चाहिए कि हम जो करेंगे उसके भले के लिए करेंगे।'
कथनी में नरमी और करनी में सख्ती। इनके खतरनाक इरादे को देखकर बुत की तरह खड़े रह गये तौफीक। इदरीश भी अब तक कोने से उठकर किसी गलत मंसूबे से उन्हें घूरने लगा था। शफीक की नजरों में भी एक शातिर भाव उतरा हुआ था। उन्हें लगा कि वे आगे बढ़ेंगे तो ये सभी मिलकर उन्हें दबोच लेंगे और पहुँच से दूर हटा देंगे।
अपने इस घर में उनकी ऐसी दयनीय अवस्था भी हो सकती है...उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी। सल्तनत की रोती-बिलखती आवाज उनके कानों में एक मर्मभेदी विलाप की तरह प्रवेश कर रही थी। उनका हृदय चीत्कार कर उठा और उनकी आँखें भर आयीं। मन ही मन उन्होंने कहा, 'मुझे माफ कर देना, सल्तनत...मुझे माफ कर देना। इन्होंने अपने कठघरे में मुझे भी घेरकर मुजरिम साबित करने की साजिश रच ली है।'
जो दृश्य उपस्थित हो गया था उसे देख घर के अन्य लोग किसी अनिष्ट की आशंका से सहम और सिहर गये थे।
मिन्नत घर में ही थी, लेकिन घर से पूरी तरह बेखबर। एक पानी से भरी बालटी में अपनी एक पुरानी साड़ी को डुबोकर निचोड़ती थी...आँगन में टँगे तार के टँगने पर पसारती...फिर तुरंत उसे उसी बालटी में डुबोकर निचोड़ती...तार के टँगने पर पसारती....। यह प्रक्रिया वह कई बार दुहरा चुकी थी। बंद कमरे से सल्तनत के रोने-तड़पने की व्याकुल कर देनेवाली आवाज जब उसे सुनी पड़ी तो वह अपनी सनक भरी मसरूफियत छोड़कर दरवाजे की साँकल खोलने के लिए लपक पड़ी। उसे सबसे अधिक चाहनेवाली बेटी मुसीबत में है, शायद इस आभास ने उसे उकसा दिया था। अतीकुर-मुजीबुर ने उसे बीच में ही रोककर बहलाते-बरगलाते हुए दरवाजे के बाहर पहुँचा दिया, जहाँ से एक आदमी उसे मस्जिद की तरफ लेकर चला गया।
सल्तनत-मतीउर एक-दूसरे को बहुत मानते थे। मतीउर के खाने-पीने का पूरा ध्यान सल्तनत ही रखती थी। दिमाग से उसके तनिक सुस्त होने के कारण घर में उसकी होने वाली अवहेलना एवं दुरदुराहट का सल्तनत सदा विरोध करती थी। मतीउर सल्तनत की अपने प्रति इस मृदुलता एवं आत्मीयता को समझ लेता था और अपनी इस बहन के लिए मन में सबसे ज्यादा स्नेहभाव रखता था।
आज वह हल-बैल लेकर सुबह ही सुबह किसी दूर के खेत पर भिड़ा दिया गया था। शफीक जानते थे कि मतीउर अपनी नजर के सामने सल्तनत के साथ कोई भी ज्यादती बर्दाश्त नहीं कर सकता।
सल्तनत की एक और शुभचिंतक थी घर में उसकी बड़ी बहन निकहत। वह बेचारी चुपचाप एक कोने में बैठकर लोर चुआ रही थी।
तौफीक घर से बाहर निकल गये। देखा, दरवाजे के बाहर कई लोग आसपास मँडराते हुए खुसुर-फुसुर कर रहे हैं। ये सभी शायद किसी योजना के तहत तैनात किये हुए मजहब के चरमपंथी थे। तौफीक ने मामले के समीकरण को समझ लिया कि इनके इरादे नेक नहीं हैं।
वे जकीर के घर आ गये। जकीर और भैरव दीवार के इस पार से सारा माजरा सुन और समझ रहे थे। इन्हें इस तरह परेशान और हताश देखकर दोनों ने सहारा दिया।
'अंकल, आप इस तरह अधीर हो जायेंगे तो हमें ताकत कहाँ से मिलेगी...कौन देगा? ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका के नाम पर प्रपंच को आपने देखा है...साम्यवाद फिर भी खत्म नहीं हो गया। सल्तनत को कुछ नहीं होगा...आपने ही तो उसकी मिट्टी को पकाया है, अंकल।' भैरव ने विनय और आदर घोलकर कहा।
'वे लोग अभी और इसी समय इदरीश के साथ उसका जबर्दस्ती निकाह करा देने वाले हैं।'
जकीर ने अपनी मुट्ठियाँ कस लीं, 'तो आप बताइए, हमें क्या करना चाहिए? जाकर सल्तनत को छुड़ा लें? पाँच-दस आदमी तो हम भी जुटा ही सकते हैं।'
'अभी तो कुछ भी जवाबी कार्रवाई करना लाजिमी नहीं है। उनके मंसूबे बिगड़े हुए हैं। मैंने घर के बाहर देखा है...मुसलटोली के सारे चरमपंथी मौजूद थे, जिमें हाफिज करामात भी शामिल था। जाहिर है इनके सामने जाना...मतलब सीधी भिड़ंत और खून खराबा। यह अच्छा नहीं होगा, भैरव। मैं ठीक समझ रहा हूँ न!'
'आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं...सल्तनत से मेरी नजदीकी का मतलब गाँव की फिजा को दूषित करना कतई नहीं है। जबर्दस्ती का निकाह मजहब के इन कठमुल्लों को मंजूर है तो हो जाने दीजिए यह निकाह और उड़ जाने दीजिए मजाक एक उसूल का...एक शरीयत का। ऐसे-ऐसे थोपे हुए सौ निकाहों का भी उस पर कोई असर नहीं होने वाला है।'
दीवार के इस पार हल्ला-गुल्ला काफी बढ़ गया था। जो लोग मोर्चा सँभालने के लिए बाहर खड़े थे, वे अब अंदर चले गये थे। सल्तनत का दहाड़ना-चीखना बदस्तूर जारी था। इस कोलाहल के बीच ही हाफिज के कलमा पढ़ने की आवाजें उभरने लगी थीं। इस तरफ से तीनों ने अपने कान दीवार पर चिपका दिये।
हाफिज पूछ रहा था - 'निकाह कुबूल है?' सल्तनत हर बार कह रही थी - 'नहीं...नहीं...नहीं...।' बावजूद इसके 'मुबारक हो...मुबारक हो' की आवाजें आने लगीं।
तौफीक को लगा कि उसके कान के पर्दे फट जायेंगे। उन्होंने अपने कान बंद कर लिये, 'अब सहा नहीं जाता, जकीर। लगता है जैसे सल्तनत को हमलोगों ने एक दोजखनुमा इम्तहान के लिए अकेले छोड़ दिया है।'
'यह सचमुच ट्रैजेडी है अंकल कि उसे अपने उन सहोदर भाइयों की बर्बरता झेलनी पड़ रही है जिन्हें आपने अपने सारे साधन लगाकर बेहतरीन तालीम और परवरिश दी।'
भैरव के चेहरे पर अवसाद की बहुत गाढ़ी परछाईं उतर आयी। लगता था जैसे वह जार-जार रो पड़ेगा। उसके मन में यह संशय उभरने लगा था कि क्या उसका प्यार भी जुल्मो-सितम की बलिवेदी पर हलाक हो जायेगा?
काफी देर खामोश रहने के बाद तौफीक ने कहा, 'जकीर...भैरव। अब मैं यहाँ और नहीं रुक सकता। आज मैं, अपना एक बहुत बड़ा मुकाम, जिसे लोग घर कहते हैं, छोड़कर जा रहा हूँ। यह घर आज से मेरे लिए पराया हो गया...लेकिन यह गाँव मेरा और भी अपना हो गया। इसलिए कि यहाँ जीवटता की मिसाल सल्तनत है...भैरव है और जकीर है। सल्तनत जब लौटकर आयेगी तो इसके लिए यह घर भी पराया हो चुका होगा...फिर भी वह यहाँ बेघर नहीं होगी...यह इत्मीनान तो मैं कर सकता हूँ न भैरव...जकीर ?'
'बिल्कुल कर सकते हैं, अंकल। मैं पूरी दुनिया से दुश्मनी मोल लेकर भी भैरव और सल्तनत के लिए जो मुमकिन होगा, करूँगा।'
'लेकिन तुम उसे यह घर नहीं दे सकते, जकीर।' अचानक एक आदेशात्मक स्वर ने हस्तक्षेप किया, 'यहाँ वह लड़की कभी नहीं रह सकती जो बिरादरी के माथे पर कलंक हो और एक गैरमजहब के लड़के से इश्क लड़ाये।'
यह जकीर की वालिदा थी जो शायद कहीं से पूरी गुफ्तगू सुन रही थी। तौफीक इस दो टूक बात पर पहले तो चौंके, फिर वे समझ गये कि जकीर की अम्मा की एक सीमा है और दिमाग की तंग धुरी से ज्यादा इधर-उधर होना इस औरत के लिए मुमकिन नहीं है।
जकीर उसे बरजने लगा, 'अम्मा, हमारी बातचीत के बीच में तुम क्यों टपकती हो?'
'तुम्हारी बातचीत का जो मुद्दा है उसके असर से पूरे गाँव को फर्क पड़ने जा रहा है, फिर मैं चुप कैसे रहूँ? तुमलोग अपने ही कौम को नीचा दिखाने की साजिश कर रहे हो। इस मुए तौफीक को तो मैं एक मुद्दत से जानती हूँ...किसी को भड़काने और बिगाड़ने की सिफत का यह एक माहिर खिलाड़ी रहा है। कई बार तो इसने खेतों में काम करनेवाले जन-मजूरों को भी भड़काने का काम किया है।'
'अम्मा, ठीक है...ठीक है, भाषण मत दो। अगर यह घर सिर्फ तुम्हारा है, मेरा नहीं...और यहाँ सिर्फ तुम्हारी मर्जी ही चलेगी तो फिर सल्तनत के लिए मैं एक दूसरा घर भी ढूँढ़ सकता हूँ। अपने दो बेटों के बिना तो तुम रह ही रही हो, लगता है अब इस तीसरे बेटे के साथ भी रहना तुम्हें गवारा नहीं।' जकीर ने जैसे अपने तरकश का ब्रह्मास्त्र चला दिया।
अम्मा ढीली पड़ गयी, 'बस यही एक हथकंडा है न तुम्हारे पास मुझे चुप कराने का...तो ले मैं चुप हो गयी। शर्म नहीं आती...मुझे इस बुढ़ापे में छोड़कर, कहता है चला जायेगा। अरे यह घर अगर मेरा ही है तो और कितना दिन...दो-चार दिन ही न! उसके बाद तो तुम्हीं मालिक हो न इसका?'
अम्मा बड़बड़ाती हुई चली गयी। भैरव ने देखा कि तौफीक के चेहरे पर एक सवाल अब भी बचा है तो उसने अपने बारे में संकल्प को और पुष्ट करते हुए कहा, 'अंकल, आप चिन्ता न करें। सल्तनत और मेरा अगर जीने का लक्ष्य एक ही है तो हमदोनों एक साथ ही रहेंगे, जहाँ भी रहें...अपने घर में या किसी और घर में।'
'देखना भैरव, आखिरी लम्हे तक कोशिश हो कि यह गाँव न छूटने पाये। मैं चाहता हूँ कि यह गाँव मेरा अपना बना रहे...और यह तभी संभव हो सकता है जब इस गाँव में तुम तीनों बने रहो।'
'हो सकता है ये दोनों छोड़कर चले भी जायें,' जकीर ने कहा, 'लेकिन मेरा तो कहीं जाने का सवाल ही नहीं है, अंकल। काश्तकारी अब मेरा पेशा ही नहीं शौक भी है। इस तरह अगर पूरा नहीं तो आपका एक तिहाई गाँव हरदम बचा रहेगा।'
'तुमलोगों से जुड़ाव की ऐसी बातें सुनकर मुझे बेइंतिहा खुशी होती है...मन नहीं करता यहाँ से जाने का, लेकिन जाना पड़ेगा। कामगारों के कई नाजुक और अहम मसले मेरी कारगर पहल के इंतजार कर रहे हैं। वहाँ भी कुछ साथी इतने अजीज हो गये हैं कि उनका मोह छुड़ाये नहीं छूटता। गाँव में जैसे बहुत सारी आफतें हैं, वैसे ही कारखाने के मजदूरों के साथ भी बहुत सारी मुश्किलें हैं। कारखानों का आधुनिकीकरण हो रहा है और धड़ाधड मजदूरों की छँटनी हो रही है...वे सभी मेरी राह देख रहे होंगे। मुझे आज ही निकल जाना होगा। हालाँकि मेरा आधा ध्यान यहाँ बराबर टँगा रहेगा।'
'अंकल, आप जा रहे हैं बिना कुछ बताये कि हमें क्या करना है, कैसे करना है,' जकीर ने टोका, 'मैं इंतजार कर रहा था कि आप कहेंगे जाकर पुलिस को खबर कर दो...चूँकि यह किसी की निजी आजादी को जबरन रौंदने का मसला है। कहीं वहाँ ले जाकर इन जल्लादों ने उसकी हत्या कर दी तो?'
'तुम्हें अगर लगता है कि पुलिस इस मामले में हस्तक्षेप करके समाधान कर सकती है तो बेशक आजमा लो। लेकिन मैं जानता हूँ कि पुलिस झाँकने भी नहीं आयेगी इस मामले में...चूँकि उन्हें इसमें धर्म, परिवार और समाज की भावनाएँ और प्रथा शामिल दिखाई दे देंगी। ऐसे भी अतीकुर-मुजीबुर पहले ही उन्हें सेट कर चुके होंगे।'
'ठीक है...फिर भी हम एक कोशिश करके देखना चाहेंगे।'
तौफीक चले गये। भैरव की आँखें नम हो गयीं। जकीर ने उसकी पीठ थपथपायी, जिसका अर्थ था कि तुम अकेले नहीं हो दोस्त, मैं तुम्हारे साथ हूँ। हमें हिम्मत नहीं हारना है।
सल्तनत को जबर्दस्ती इदरीश के घर पहुंचाकर वहाँ की चारदीवारी में सीमित कर दिया गया। वह शेरनी थी, उसे अकेले काबू में रखना इदरीश के वश में नहीं था। अतः अपने सहयोग के लिए उसे चार आदमी तैनात करने पड़े। वह जानता था कि उसे बहला-फुसला कर राजी करने की कोई भी कोशिश बेमानी ही होगी। तय किया उसने कि इसका खूब शारीरिक दोहन करके इसे पस्त और ध्वस्त कर देना है।
आठ दिनों तक वह रोज उसके हाथ-पैर बाँधकर उससे बलात्कार करता रहा। वह गरियाती-धिक्कारती तो लात-घूँसे और डंडे से अंधाधुंध प्रहार करने लगता। सल्तनत को लगा कि इस ज्यादती का इस प्रकार तो कोई अंत नहीं होगा। एक युक्ति उसके दिमाग में आकार लेने लगी कि अब उसे खाविंद मान लेने का ढोंग रचकर इसे विश्वास दिलाया जाये और एक दिन चकमा देकर निकल भागे।
बस उसने अपने तेवर में नरमी लाने का स्वाँग रचना शुरू कर दिया। अगले ही दिन रस्सियों की जकड़न हटा दी गयी और इसके दो-तीन दिन बाद ही उसे लगा कि उस पर किसी प्रकार की पहरेदारी भी नहीं रही। फिर तुरंत ही एक शाम के धुँधलके में दबे पाँव वह घर से निकल गयी। कुछ ही दूर गयी होगी कि पेड़ों के झुरमुट से निकलकर दो आकृतियाँ उसके समक्ष खड़ी हो गयीं, इनमें एक जालिम इदरीश था।
'आओ, हरजाई-छिनाल औरत, आओ,' इदरीश ने मुँह चिढ़ाते हुए विजयी भाव से कहा, 'तुम्हारा इस्तकबाल करने के लिए कब से हमलोग खड़े-खड़े राह देख रहे हैं। बहुत होशियार बन रही थी न! हम समझ गये थे और तुम्हारी रजामंदी का राज जानने को बेताब थे। चलो जी, इस साली धोखेबाज की दोनों टाँगें तोड़ दो ताकि चलने के लायक ही न रह जाये।'
इदरीश और उसका भाड़े का आदमी उसकी टाँगों पर डंडे बरसाने लगे। सल्तनत तड़फड़ाकर जमीन पर लोट गयी, फिर उसे याद नहीं कि कब कसाइयों ने उसे घसीटकर फिर उसी दोजख में लाकर पटक दिया। उसे लगने लगा कि इन हैवानों ने उसे खत्म कर देने की योजना पक्की कर ली है। बावजूद इसके उसके भीतर कहीं न कहीं यह भरोसा भी कायम था कि तौफीक, जकीर और भैरव मिलकर कोई न कोई उपाय जरूर निकाल रहे होंगे।
...और सचमुच देर से ही सही लेकिन उपाय निकालने में वे सफल हो गये। तेरहवाँ दिन था जब कुछ पुलिसवाले आये और उसकी हालत देखकर तथा उसके बयान सुनकर एक दर्ज करायी गयी एफआईआर को सही पाया। पुलिस ने सल्तनत को उसकी कैद से मुक्त करा दिया और इदरीश को हवालात में बंद कर दिया।
जब सल्तनत लतीफगंज में वापस आयी तो उसके दो उच्च शिक्षा प्राप्त कमाऊ-कर्णधार भाई अतीकुर-मुजीबुर ने उसके लिए घर के दरवाजे बंद कर दिये। महजब के तमाम झंडावरदारों में एक गुस्सा पैबस्त हो गया कि एक काफिर आशिक के लिए थाना-पुलिस करके इस शैतान-सिरफिरी लड़की ने सबकी नाक कटवा दी है। इनकी चलती तो सल्तनत को गाँव में भी रहने नहीं देते। लेकिन गाँव में तो क्या अपने घर में रखने के लिए जकीर ने सल्तनत के पुनर्वास की सारी व्यवस्था कर रखी थी। बस एक दीवार का ही फर्क होना था। सल्तनत को रखने के लिए जकीर ने अपनी अम्मा को मना लिया। उसका खेतिहर भाई मतीउर और उसकी पागल समझी जानेवाली उसकी माँ भी अब अपने आप इस पार ही आ गयी।
ये सभी सल्तनत की खैर-खुशी चाहनेवाले लोग उसकी दुर्गति देखकर सिहर-से गये थे। इन तेरह दिनों में ही वह जैसे तेरह भीषण नर्क भोगकर आयी थी। उसकी गोरी-मुलायम त्वचा पर डंडे के निशान किसी मरे हुए काले साँप की तरह उग आये थे। उसके काले लंबे बाल नोच-चोंथकर ओझरायी हुई रस्सी के पुलिंदे की तरह बना दिये गये थे। उसके अंग-अंग पर एक थकान, एक मूर्च्छा, एक चीत्कार ठहरकर रह गयी थी...उसके रग-रग से फूटनेवाले तेज और चुस्ती पर जैसे कोई काली-डरावनी स्याही पुत गयी हो। वह चल नहीं पा रही थी। उसकी एक टाँग की ठेहुने की हड्डी बुरी तरह उचट गयी थी। उसके चेहरे पर आड़ी-तिरछी खरोचें इस तरह उभर आयी थीं जैसे कोई पत्थर खाया काँच हो। इतना होने के उपरांत भी अपने परिजनों को देखकर सल्तनत के पपड़ियाये होंठ मुस्करा रहे थे...उस हजार चोटें खाये लहूलुहान घायल योद्धा की तरह जो युद्धभूमि से विजयी होकर लौट आता है।
जकीर डॉक्टर को बुलाने चला गया। मतीउर और मिन्नत उसकी सुश्रुषा में भिड़ गये। भैरव की आँखें इस दुर्दशा पर निर्झर की तरह रिस पड़ीं।
सल्तनत ने उसे अपने पास खींचते हुए कहा, 'भैरव, तुम्हें यकीन नहीं हो रहा न...मुझे छूकर देखो, मैं जीवित हूँ। सब कुछ सह लिया मैंने। पहली बार मुझे मालूम हुआ कि तुम्हारे प्यार ने मुझमें सहने की अपार ताकत भर दी है।'
'सल्तनत! प्यार को तो तुमने आज खुदा बना दिया है। तुम जुल्म सहकर जीत गयी हो लेकिन मैं इतना हारा हुआ महसूस कर रहा हूँ कि लगता ही नहीं कि मैं जीवित हूँ। काश, तुम्हें इस दशा में देखने से पहले मैं सचमुच मर गया होता।'
'ऐसा नहीं कहते, भैरव। तुम्हारा जीना ही तो मेरा जीना है...नहीं तो मैं अकेली जीकर भी कहाँ जी पाऊँगी।' सल्तनत ने अपनी माँ और भाई की ओर खुद को मुखातिब कर लिया, 'अम्मा...मतीउर, यों तो तुमलोग भी जानते ही हो लेकिन आज मैं खुद से भी यह बताना चाहती हूँ कि यह भैरव मेरे सीने की धड़कन है...अगर यह न हुआ तो मैं महज एक लाश के बराबर हो जाऊँगी। मेरे और भी करीब आओ भैरव।'
भैरव उसे अपनी बाँहों में भींच लिया और फफक कर रो पड़ा, जैसे सल्तनत के जख्मों की पीड़ा उसके जिगर में उतर आयी हो, 'तुमने इतनी यातना सही सल्तनत और मैं कुछ नहीं कर सका। तम्हें मुसीबतों के शिकंजे में घिरते हुए एक मूक तमाशायी की तरह मैं देखता रह गया...मैं इसका अपराधी हूँ, सल्तनत।'
'भैरव, तुम कर भी क्या सकते थे जब तौफीक मामू तक असहाय हो गये? तुमने खुद को बचाकर दरअसल मुझे ही तो बचाया है। सबूत सामने है कि चोट मैंने खायी है और आँसू तुम्हारे बह रहे हैं।'
सल्तनत ने उसके आँसुओं को अपने मैले-कुचैले और तार-तार हो गये दुपट्टे में भर लिया। भैरव उसकी कलाइयों पर पड़ी ऐंठन और मरोड़ को छू-छूकर देखने लगा।
'इन्हें मत देखो, भैरव। मेरी देह अब पाक-पवित्र नहीं रह गयी है। कसाई इदरीश ने मेरी हुरमत को बहुत गंदी जिल्लत दी है...बहुत लूटा-खसोटा है।'
'तुम इसका मलाल मत करो, सल्तनत। हमारे प्यार में देह तो एक माध्यम है। बेअख्तियार होकर किसी चीज को खो देना अपराध नहीं होता। तुम्हारी देह उस अग्निपुंज की तरह है जिससे कोई चाहे तो अँधेरे में रोशनी कर ले या कोई अपने-आपको जलाकर भस्म कर ले। अग्नि का इसमें कोई कसूर नहीं होता कि कोई इससे बरबाद होता है या आबाद। वह तो हर हाल में अग्नि ही रहती है। इदरीश ने तुम्हारी लौ को तबाह करने के चक्कर में खुद को ही राख बनाया है। तुममें तो अग्निधर्म पहले की ही तरह कायम है, सल्तनत।'
'भैरव! तुम्हें देखती हूँ और सुनती हूँ तो अपने नसीब पर इतरा जाने को जी चाहता है। एक आशिक के लिए महबूब से बड़ा कुछ भी नहीं होता न! मैं जानती थी कि सल्तनत का एक जर्रा भी बचा रहता तो तुम उसे अपने दिल में ही बिठाकर रखते। अब मैं ऐसा महसूस कर रही हूँ कि मेरा आधा इलाज तुम्हें देखते ही पूरा हो गया।'
जकीर आ गया डाक्टर लेकर। इलाज शुरू हो गया उसका। पैर में प्लास्टर चढ़ाना पड़ा। कई हफ्ते उसे बिस्तर पर गुजारने पड़े।
जकीर के प्रति श्रद्धा से भर उठी सल्तनत। यह आदमी न होता तो आज वह गाँव में और कहाँ टिकती? पुलिस भिजवाने में सबसे बड़ा रोल इसी ने निभाया है। उसने खुद ही बताया, 'रोज कोतवाली जा-जाकर हमने अपनी चप्पलें घिस दीं। कभी दरोगा, कभी डीएसपी, कभी एसपी से इस मामले में जल्दी से जल्दी कुछ करने की फरियाद करते रहे, लेकिन ये लोग तो कोई कार्रवाई करना ही नहीं चाहते थे। इन्हें डर था कि इससे कोई अपने रीति-रिवाज में दखल न मान ले और उसके जज्बात को ठेस न पहुँच जाये। चूँकि अप्रत्यक्षतः ऐसी परिस्थिति में हस्तक्षेप का अर्थ एक कौम द्वारा दूसरे कौम का समर्थन मान लिये जाने का खतरा हो जाता है। हमारी बार-बार की आरजू-मिन्नत के बाद उन्होंने कहा कि लड़की के परिवार में से कोई अगर पुलिस-सहायता की अर्ज करे तो हम इस बारे में सोच सकते हैं।'
जकीर ने जरा विराम लिया तो सल्तनत की उत्सुकता बढ़ गयी कि परिवार का वह कौन सदस्य है, जिसने ऐसा करने की जोखिम उठायी?
जकीर ने आगे बताया, 'दरोगा को मैंने अपने घर बुलाया। उसके सामने निकहत ने निर्भीक होकर तफसील से पूरी सच्चाई रख दी। हामी भरने में मतीउर भी उसके साथ रहा।'
ताज्जुब से मुँह खुला रह गया सल्तनत का। चुप-चुप कोने में दुबकी रहनेवाली और कितनी भी डाँट-फटकार हो, उफ तक नहीं करनेवाली गमख्वार निकहत ने दारोगा के सामने उसके पक्ष में बयान देने की दिलेरी दिखा दी...सल्तनत का हृदय प्यार से लबालब भर आया। सोचा उसने कि रोज-रोज मुझसे हार जानेवाली निकहत...आज तूने मुझे जीत लिया, मेरी बहन।
उसने विनय भाव से कहा, 'जकीर भाई, आप सबने मिलकर मुझे बचाया...मैं तो कर्जदार हो गयी हूँ।'
'यह तो हमारा फर्ज था। दरअसल हमने तुम्हें नहीं बल्कि जेहाद की उस ताकत को बचाया है जो तुम्हारे भीतर भरी हुई है। तौफीक अंकल ने कहा है कि सल्तनत को ऐसी छोटी-छोटी मुसीबतें शिकस्त नहीं दे सकतीं। उसे तो कई बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़नी हैं जो उसका इंतजार कर रही है।'
तीन दिन बाद हवालात से इदरीश को छुड़ा लिया गया। अतीकुर-मुजीबुर और शफीक ने अफसोस और शर्मिंदगी जतायी कि सल्तनत जैसी बदजात और बदमिजाज लड़की के कारण उसे काफी बेइज्जती और फजीहत झेलनी पड़ी। इसके प्रायश्चित के लिए उन्होंने तय किया कि इसका एक और निकाह निकहत जैसी सीधी-सादी और निहायत शरीफ लड़की से कर दिया जाये ताकि इसे चैन और इत्मीनान मिल सके। उन्होंने यह भी तय कर लिया कि निकाह के बाद वे सभी गाँव छोड़ देंगे। सल्तनत यहाँ पता नहीं क्या-क्या ऊटपटाँग या ऊलजलूल करके नया-नया गुल खिलाती रहेगी, उन्हें नीचा दिखाती रहेगी और उनकी बची-खुची इज्जत को मिट्टी में मिलाती रहेगी। यह सब रोज-रोज बर्दाश्त करना बहुत ही घुटनदायक होगा। शफीक के लिए खेती का आकर्षण भी खत्म हो गया था, चूँकि इसे अंजाम देनेवाला मतीउर अब सल्तनत के साथ दीवार के उस पर चला गया था।
यह सब जानकर सल्तनत को बहुत धक्का लगा। निकहत के निकाह की खबर से तो वह एकदम स्तब्ध रह गयी। इस कसाई से जिब्ह करवाने के लिए अब इनलोगों ने भोली-भाली निकहत को चुन लिया। क्या हम सभी बहनों के लिए इतनी बड़ी दुनिया में एक यही मर्द पैदा हुआ है? आखिर क्यों इदरीश जैसा भेड़िया-जालिम और काइयाँ-कमीना आदमी इन्हें नेक मालूम पड़ रहा है? क्या हो गया इनकी जाँचने-परखने वाली नजर को?
सल्तनत ने किसी तरह निकहत को अपने पास बुलाया।
'निकहत, सुना है इदरीश तुम्हें भी हलाल करने जा रहा है और तुम चुपचाप हो?'
'तो क्या करूँ मैं? कहते हैं तुम्हारे कारण यह घर बदनाम हो गया है, इसलिए कोई दूसरा परिवार हमसे रिश्ता जोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं होगा।' निकहत ने कहा तो लगा उसके चेहरे से एक निरीहता चू पड़ी।
'उन्होंने कहा और तुमने मान लिया? दुनिया भर में अगर सचमुच एक भी मर्द तुमसे निकाह करने के लिए तैयार न हो तब भी इस जल्लाद इदरीश को शौहर बनाने से बेहतर है कुँवारी रह जाना। निकहत, तू मेरा कहा मान...अपनी अजगरी चुप्पी तोड़ और बगावत कर...नहीं तो बेमतलब मारी जायेगी। बड़ी आपा जन्नत और मेरी हालत देखकर कुछ तो सबक ले।'
निकहत ने एक लंबी साँस ली और उसे बहुत प्यार से देखा, 'मैं तुम्हारी तरह मजबूत और पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, सल्तनत...ना ही मुझमें तुम्हारी तरह लड़ने का माद्दा है। मुझे तो कभी किसी से आँख मिलाकर बोलने आया ही नहीं।'
चिढ़ गयी सल्तनत, 'तो जा मर...सलीब टँगा है, लटक जा उस पर।'
निकहत के चेहरे पर कोई विकार नहीं आया। बिना जवाब दिये वह चुपचाप चली गयी।
दोबारा निकहत तब आयी जब निकाह हो गया और वह रुखसत होनेवाली थी। उसे शादी के जोड़े में देख सल्तनत खुश होने की जगह मायूस हो गयी। कहा, 'मुझसे मिलने की क्या जरूरत है जब मेरी बात का तुम पर कोई असर नहीं होता। उम्र से भी मैं बड़ी नहीं हूँ कि मुझे सलाम करना जरूरी था।'
सल्तनत को निकहत ने अपनी बाँहों में भर लिया, 'नाराज क्यों होती है, छोटी। एक राज की बात बताने आयी हूँ। तुम्हारी तरह शेरनी बनकर तो हालात से मैं सामना कर सकती नहीं थी, लेकिन बहन तो तुम्हारी ही हूँ न। जो काम तुम और जन्नत न कर सकी, उसे मैं करके दिखाऊँगी...देखना तुम। चलती हूँ, बहन...खुदा हाफिज। अपना खयाल रखना।'
झटके से निकल गयी निकहत। सल्तनत के भीतर उत्सुकता के कई स्नायु एक साथ जाग्रत हो गए। वह हैरान रह गयी...मुँह में जबान न रखनेवाली निकहत आज क्या-क्या पहेलियाँ बुझाकर चली गयी।
निकहत के विदा हो जाने के दो दिन बाद अतीकुर, मुजीबुर और अपने पूरे परिवार सहित शफीक घर में ताला लगाकर चल पड़े। शफीक अकेले खेती करने की सामर्थ्य तो रखते थे नहीं...आरामपसंद रहे सब दिन, लिहाजा किसी नौकरी पेशा में लगना उन्होंने ज्यादा मुनासिब समझ लिया। इसका भरोसा उन्हें अतीकुर-मुजीबुर की ओर से मिल गया तो वे झट तैयार हो गये। गाँव के हममजहब और करीबी लोग बहुत तरस भरी निगाहों से उन्हें जाते हुए से ज्यादा, मानो उजड़ते हुए देख रहे थे। हाफिज करामात ने कहा, 'जाओ, शफीक मियाँ, खुदा तुम्हें खैरियत बख्शे। जो रवैया चल रहा है इस गाँव में...क्या पता हमें भी एक दिन जाना पड़ जाये।'
सल्तनत खिड़की की फाँक से उन्हें जाते हुए देख रही थी। उसकी आँखें डबडबा गयीं...लगा कि वह अपनी एक टाँग से दौड़ लगाकर उनके पैरों से लिपट जाये और कहे, 'मत जाओ मामू इस गाँव को छोड़कर...यह तुम्हारी जन्मभूमि है...पुरखों का ठीहा है। तुमलोगों के लिए मेरे मन में जो गाँठें पड़ी हैं, उन्हें मैं हटा देती हूँ। मैं अब ऐसा कुछ भी नहीं करूँगी जिससे तुम सबको बुरा लगे। मेरा मकसद...मेरा मिशन गाँव को बुलंदी के साथ बसाना है...उजाड़ना नहीं।'
सल्तनत चल नहीं सकती थी...उसके पैरों में प्लास्टर था। उसकी कातर दृष्टि बहुत दूर तक उनकी पीठ पर चिपकी रही। उसे यह उम्मीद थी कि शायद अतीकुर-मुजीबुर अम्मा से मिलने आयेंगे, लेकिन उन्होंने इसकी कोई जरूरत नहीं समझी। मिन्नत ने छत से उन्हें इकट्ठे जाते हुए देखा तो जोर-जोर से हँसने लगी और उनके ऊपर कटोरे से पानी उलीचने लगी। जकीर ने उसे समझाया, 'ऐसा मत करो, बुआ...ये लोग गाँव छोड़कर जा रहे हैं। पता नहीं इन्हें तुम दोबारा देख भी पाओगी या नहीं।'
मिन्नत को एकाएक जैसे साँप सूँघ गया। वह एकदम खामोश हो गयी। रात में उसने खाना नहीं खाया। सल्तनत भी भूखी ही सो गयी। उसने सोचा - आदमी कितना भी लड़-झगड़ ले, फिर भी खून के रिश्तों के बीच एक अदृश्य तार जुड़ा होता ही है, जिसमें लगातार सगेपन का एक करंट प्रवाहित होता रहता है। मतीउर ने बताया, 'कल जब मैं डोमनावाले खेत में धान रोपवा रहा था तो शफीक मामू आ गये और कहा - मतीउर, अपने सभी खेतों को जैसे तुम आबाद कर रहे थे, वैसे ही करते रहना। जो भी अन्न उगाओगे, उसमें हमें कुछ नहीं चाहिए...चूँकि हमें अब यहाँ रहना ही नहीं है। बैल खरीदने के पैसे तौफीक ने दिये थे, सो ये भी अब तुम्हारे हुए।'
जिंदगी भर खलनायकों जैसे व्यवहार करने वाले शफीक को याद करके मतीउर भी उदास हो गया। अभी तक सल्तनत उनके थोपे हुए अभिशाप को प्लास्टर के रूप में झेल रही थी, फिर भी उनका जाना इन्हें अखर गया था।
सल्तनत के पैरों के जब प्लास्टर खुले तो अपेक्षा के अनुरूप दोनों पाँव ठीक नहीं हो पाये। बायाँ पैर तो कामचलाऊ सीधा हो गया लेकिन दाहिना टेढ़ा ही रह गया। डॉक्टर ने कहा कि अब इसे ठीक होने की गुंजाइश बहुत कम है। कसरत वगैरह करते रहने से शायद कुछ सुधार हो जाये। मतलब सल्तनत स्थायी रूप से अब एक टाँग से लँगड़ी बन गयी।
भैरव और जकीर अफसोस जताने के लिए ढाँढ़स के शब्द ढूँढ़ ही रहे थे कि सल्तनत ने मौका छीन लिया, 'जो कहना चाहते हो, तुम्हारे चेहरे से पढ़ लिया है मैंने। मुझे तसल्ली है कि एक पैर से लँगड़ाकर भी मैं चल सकती हूँ। चलने की आजादी हो तो दुनिया देखने के लिए एक पैर भी कम नहीं होता...इसलिए मैं निराश नहीं हूँ। अब तो शफीक मामू और दोनों भाइयों के यहाँ से चले जाने पर उनसे भी मेरा कोई गिला न रहा। जानते हो जाते-जाते वे क्या मेहरबानी कर गये हैं? '
जकीर ने चौंककर पूछा, 'शफीक मियाँ जैसा खड़ूस आदमी और मेहरबानी...क्या कह रही हो सल्तनत? जाते समय तो उन्होंने नजर उठाकर भी नहीं देखा इस तरफ।'
'वे सारे खेत और हल-बैल मतीउर को सुपुर्द कर गये हैं, जकीर।'
'अच्छा तो इसे तुम मेहरबानी समझ रही हो। बहुत भोली हो सल्तनत, अरे यह उनकी चालाकी है... चूँकि लावारिस रह जानेवाली जमीन किस तरह सिकुड़ती चली जाती है, यह अंजाम उन्हें मालूम था। जरा वे अपने घर की चाबी दे जाते तब मैं समझता कि बड़े रहमदिल हैं।'
'सिर्फ हिफाजत के लिए ही देना था तो वे अपने खेत किसी दूसरे को भी सुपुर्द कर सकते थे।'
'दूसरे को सुपुर्द करने के लिए उनके अपने हिस्से के खेत हैं ही कितने? तीन और भाई भी तो हैं उनके। तौफीक अंकल से उन्हें डर भी तो रहा होगा कि दूसरे को देना वे कतई गवारा नहीं करेंगे।' बोलते-बोलते जकीर का ध्यान अचानक दूसरी तरफ मुड़ गया और चेहरे का भाव बदल गया। कुछ देर सोचने के बाद उसने फिर कहना शुरू किया, 'ऐेसे भी सल्तनत, यहाँ खेती में अब ज्यादा कुछ रखा भी नहीं है। वह पुराने बुरे हाल में फिर वापस जा रही है। पिछले साल तक नहर में थोड़ा-थोड़ा पानी आ रहा था...इस साल तो एक बूँद के भी आने की गुंजाइश नहीं है। नदी पर लगे हुए शटर पूरी तरह छिन्न-भिन्न होकर बह गये हैं और तटबंध भी टूट-फूटकर ध्वस्त हो गये हैं। घर की पूँजी लगाकर बारिश के पानी से धान रोप तो दिया है हमलोगों ने लेकिन बारिश पर निर्भर होकर धान की उपज यहाँ आज तक नहीं हुई। देखते हैं इस साल क्या होता है? '
भैरव के जिगर में भी यह दर्द टीस गया, 'इस साल भी कोई चमत्कार नहीं होने जा रहा है, जकीर। हमारे गाँव का विकास रिवाइंड हो रहा है एंटी-क्लॉकवाइज घूमकर। हम फिर से जंगल युग की ओर बढ़ रहे हैं, लेकिन इसमें जंगल नहीं होगा। ईख की तरह धान की फसल के भी इस गाँव से लुप्त होने का एक और आघात हमें लगने वाला है...इसे सहने की ताकत जमा करने का उपक्रम अभी से शुरू हो जाना चाहिए।'
एक चिन्तातुर खामोशी बिछ गयी ईद-गिर्द...जैसे अभी-अभी एक शोक प्रस्ताव पढ़ा गया हो।
काफी देर गश-खायी स्थिति में रहने के बाद जकीर ने जैसे कराहते हुए पूछा, 'भैरव, गन्ने की मार तो हम इसलिए सह गये यार कि हमारी रीढ़ धान की मुख्य फसल बची हुई थी। अब हम इस रीढ़ के टूटने से खड़े नहीं रह सकते। क्या ट्यूबवेल बिठाकर हम धान के कुछ खेत बचा सकते हैं? '
'ट्यूबवेल भी अब पहले की तरह सहज और किफायत नहीं रहा, दोस्त। ध्यान दिया है तुमने कि इस गाँव में बिजली कब से नहीं है?'
'एक महीना तो हो ही गया होगा...इस बीच आयी भी तो लगा कि सिर्फ आँख मारने आयी है।'
'और अब स्थायी तौर पर गायब होनेवाली है। चीनी मिल मालिक के प्रयास से खास तौर पर गन्ने उपजाने के लिए स्टेट ट्यूबवेल बिठाये गये थे और इसके लिए बिजली लायी गयी थी। गन्ने की पैदावार खत्म हो गयी तो देख ही रहे होगे कि स्टेट ट्यूबवेल भी अक्सर बंद रहने लगा...बिजली भी ज्यादातर गायब रहने लगी। तुम अगर ट्यूबवेल लगाना चाहते हो तो तुम्हें जेनरेटर भी लेना होगा, चूँकि बिजली के दिन अब यहाँ से लद जानेवाले हैं।'
जकीर जैसे फिर मूर्च्छित हो गया। सल्तनत उसके चेहरे पर उभरे एक-एक मनोभावों को पढ़ रही थी। अपनी वाणी में स्नेह घोलकर कहा उसने, 'जकीर भाईजान, मायूस होने से कोई फायदा नहीं। जेदाद छेड़े बिना यहाँ कुछ नहीं होनेवाला है। हम जिस सूबे में रहते हैं वहाँ विकास के अरबों रुपये हजम कर लिये जाते हैं और हजम कर जानेवाले बड़े-बड़े घोटालेबाज फिर भी चुनाव जीत जाते हैं...चूँकि यहाँ वोट का आधार काम या कर्मठता नहीं बल्कि जाति होती है। ऐसे में यह सब तो होना ही है। जिस क्षेत्र को अच्छा नेतृत्व नहीं मिला उसकी आजादी के पचास साल आगे बढ़ने में नहीं पीछे होने में खर्च हो गये।'
जकीर के चेहरे का अवसाद बढ़ गया। भैरव की आँखों में भी एक सन्नाटा उतर आया, 'मैंने पहले सोचा था कि तौफीक अंकल की तरह गाँव नहीं छोड़ूँगा। यहीं रहकर खेती-बाड़ी करूँगा और गाँव की मूलभूत सुविधाओं को मुकम्मल करने में अपनी पूरी उम्र लगा दूँगा। हम यह साबित करने के लिए एक जज्बे से भरे थे कि कृषि-कार्य दूसरे किसी धंधे से कहीं ज्यादा सम्मानजनक, राष्ट्रहितकारी और अनिवार्य कर्तव्य है।'
'तो क्या तुमने अपना यह फैसला अब बदल लिया है, भैरव?' विस्मय से जकीर ने पूछा। सल्तनत की आँखों में भी हैरानी के भाव थे।
'मैं क्या करूँ, जकीर। मेरे प्रति बाउजी की नाराजगी रोज-रोज बढ़ती जा रही है। उनका मानना है कि पढ़-लिखकर गाँव में पड़ा रहना सरासर मूर्खता है। खेती की जो हालत हो गयी है, अब तो मुझे भी यही लगने लगा है। नौकरी अगर नहीं करूँगा तो घर की फटेहाली भुखमरी में बदल जायेगी।'
जकीर के भीतर एक जलती हुई लौ मानो मद्धम पड़ गयी। वह वहाँ से चला गया। सल्तनत ने भैरव को आसक्त भाव से निहारा और उसे अपने बहुत पास बिठाकर उसकी हथेलियों को अपने हाथों में भर लिया।
'क्या हो गया है तुम्हें?' जैसे किसी तानपूरे से निकली हो यह ध्वनि, 'हम सबके हौसले को पुख्ता करते रहनेवाला ठोस आदमी आज खुद इतना लड़खड़ा क्यों रहा है? बात-बात में अधीर और कातर हो जानेवाले जकीर को तुम्हीं बल देते रहे हो...आज तुम खुद ही दुर्बल बन रहे हो। मेरे अच्छे भैरव...तुम हो तो मेरी खुशी है...हिम्मत है...भीतर तमाम हसरतें और तमन्नाएँ हैं। तौफीक मामू ने कहा है कि तुममें एक कौंध है जो गाँव के अँधेरे के लिए बड़े काम की चीज साबित हो सकती है। तुम जहाँ भी रहो, उस कौंध को मेरे साथ रहने दो। इस गाँव में ज्यादातर लोग फटेहाल हैं और यह फटेहाली बढ़ती जा रही है, क्यों? जबकि यहाँ की माटी का कोई कसूर नहीं...यह तो सोना है, सोना। मैं एक औरत हूँ, भैरव...लेकिन तुम्हारी कौंध मेरे साथ होगी तो मैं मर्द से भी बड़ा मर्द बन सकती हूँ...मैं लड़ूँगी इस गाँव के लिए।'
भैरव जैसे प्रेमासिक्त मेह की फुहार से भीगकर निहाल हो गया, 'सल्तनत, मुझे माफ कर दो...कभी-कभी तकलीफें मेरी परीक्षा लेकर मुझे फेल कर देना चाहती है...लेकिन वे जानती नहीं कि उन्हें क्षणभर में बहा देनेवाली एक वेगवती सरिता का नाम है सल्तनत, जिससे मैं प्यार करता हूँ।'
सल्तनत ने भैरव को चूम लिया...फिर भैरव ने सल्तनत को भी। भैरव ने कहा, 'गाँव में चर्चा है कि मैं मुसलमान बन गया हूँ और तुमसे शादी कर ली है।'
सल्तनत ने कहा, 'मैंने तो सुना है कि तुमसे शादी करने के लिए मैं हिन्दू बन गयी हूँ।'
दोनों एक साथ हँस पड़े।
नहर में इस साल सचमुच पानी नहीं आया। मामूली वर्षा और एक आहर के भरोसे धान की फसल एकाध माह तो किसी तरह बचाकर रखी गयी लेकिन आगे किसान एकदम असहाय हो गये। जकीर, मतीउर और प्रभुदयाल जैसे लोगों के लिए यह बहुत बड़े सदमे का सबब हो गया। गाँव में तीन सबसे बड़े जोतदार थे - चुन्नर यादव, फल्गू महतो और नगीना सिंह। इनलोगों ने बोरिंग करवाकर अपना-अपना डीजल-पंप लगवा रखा था। यथासंभव बोरिंग की जद में पड़नेवाले इनके खेत और इनके सजातीय किसानों के खेत बचा लिये गये। गैर जाति के खेत पंप के अगल-बगल में होकर भी सूखे रह गये। पिछले कुछ सालों से गाँव में जातीय भेदभव का जोरदार उभर हो आया था। यह इस हद तक बढ़ गया था कि यादव के पंप से कोइरी के खेत को अथवा कोइरी के पंप से यादव के खेत को पैसे देने पर भी पानी नहीं मिलता था। पहले यह भेदभाव वोट की राजनीति की वजह से बैंकवार्ड-फारवार्ड के बीच शुरू हुआ था...बाद में यह बढ़ते-बढ़ते जातिगत स्तर पर आ गया। कारण बैकवार्ड या फारवार्ड में अगर एक ही सीट के लिए कई उम्मीदवार खड़े हो गये तो पहली पसंद अपनी जाति हो गयी। ऐसी जातिगत किलेबंदी वैमनस्य का आधार बनती चली गयी। उम्मीदवार भ्रष्ट, नीच, दुराचारी, आततायी है या अनपढ़, निष्क्रिय, निकम्मा, यह मुद्दा ही नहीं रह गया।
बताया था कभी तौफीक ने कि इस क्षेत्र में पहले-सी हासिल सुविधाओं के घटने और लुप्त होने के पीछे यही दुर्भाग्य रहा कि सबसे बड़ी संख्यावाली एक ही जाति के उम्मीदवार लगातार विधायक और सांसद बनते रहे और वे अपनी-अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त रहे कि अगले चुनाव के लिए कुछ काम करके दिखाना है, इसकी कतई परवाह नहीं की। दो-तीन जातियाँ मिलकर अगर साझा उम्मीदवार देने की रणनीति अपनातीं तो उन्हें हराया जा सकता था...लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी पहल किसी की ओर से नहीं हुई...अर्थात किसी ने एक-दूसरे को भरोसे के काबिल नहीं समझा।
लिहाजा इस इलाके के माथे पर एक से एक बड़ी सार्वजनिक ट्रेजेडी लदती चली गयी। रेल लाइनें आत्महत्या के वधस्थल में बदल गयीं और स्टेशन उजाड़ बियावान बन गया।
चीनी मिल बंद हो गयी और गन्ने की फसल को इस इलाके से दरबदर कर दिया गया।
स्टेट ट्यूबवेल की साँसें उखाड़ दी गयीं और बिजली की हसीन सच्चाई को बदरंग सपनों में रूपांतरित कर दिया गया।
उपेक्षा और निकम्मेपन की मार से नहर के जिस्म जीर्ण-शीर्ण होते चले गये और वह स्थायी रूप से शिथिल हो गयी।
गाँव में पहले से हिन्दू-मुस्लिम एक साथ रहते आये हैं...अब तो धर्म, वर्ग (अगड़ा-पिछड़ा) ही नहीं, लगता है जाति के आधार पर गाँव बनने लगेंगे...बँटने लगेंगे। देखने में देश एक बार ही बँटा...परन्तु हकीकत यह है कि बँटवारा रोज-रोज हो रहा है।
तो यह पहला साल था जब नहर के पूरी तरह ठप हो जाने का अभिशाप कहर बनकर गाँव पर वरपा हुआ। गन्ने की फसल से होनेवाली नगद आमदनी के थमने का दंश अभी कायम ही था कि धान के मारा ने एक दूसरा सदमा दे डाला। घर की सारी जमापूँजी दम तोड़ते धान के बिरवे के साथ स्वाहा हो गयी। गाँव एवं जवार के जकीरों ने...मतीउरों ने...प्रभुदयालों ने अपने-अपने सिर पीट लिये।
जकीर ने आजिजी से कहा, 'अब मैं भी यहाँ क्या करूँगा, भैरव। धान का कटोरा माना जाने वाला यह क्षेत्र चावल के बिना तरस जायेगा। तुम नौकरी के लिए कहीं जानेवाले थे न...मुझे भी अपने साथ ले चलो।'
'जकीर, तुम एक किसान हो यार और किसान का अर्थ धैर्य और सहनशीलता की प्रतिमूर्ति होना होता है। जिसके लिए हिम्मत हारने का नाम नहीं होती...यह दुनिया को किसान ही सिखाता है। किसी भी तरह बोरिंग करवाकर तुम अपना एक डीजल पंप लगाओ।'
'डीजल पंप! तो क्या यह तय हो गया कि बिजली अब यहाँ कभी नहीं आयेगी? '
'बिजली इस तरह यहाँ रहेगी कि वह आयेगी भी नहीं और जायेगी भी नहीं। खम्भे गड़े रहेंगे और चोरों ने बख्श दिये तो तार भी तने रहेंगे...जैसे रेल लाइनें बिछी हैं। बिजली मनमर्जी कभी आयेगी भी...लेकिन उसी तरह जैसे ट्रेनें आती हैं, जिनके आने का समय कोई जान नहीं पाता, शायद विधाता भी नहीं।'
'भैरव, एक बात कहूँ यार,' जकीर की आँखों में एक अनुराग तिर आया, 'मैं दुख में होता हूँ तो तुम्हारा बोलना मुझे राहत दे जाता है। लगता है जैसे तुम सलाह देने की जगह मंटो का अफसाना पढ़ने लगे हो। दरअसल आशिक हो न...आशिक होकर मुसीबतों से लड़ना ज्यादा आसान होता है न भैरव...! यार, तुम्हें देखकर मुझे भी आशिक हो जाने का मन करता है।'
'जकीर, यह किसने कहा कि तुम आशिक नहीं हो? तुम मेरी दोस्ती के आशिक हो भाई...अपने खेत और उनमें उगनेवाली फसलों के आशिक हो...अपने गाँव और गाँव को चाहनेवाले लोगों के आशिक हो, क्या मैं सच नहीं कह रहा?'
'मालूम नहीं भैरव कि मैं तुम्हें, अपनी फसलों को, अपने गाँव को जिस तरह चाहता हूँ, उसे क्या कहते हैं। तुम्हारी तरह बहुत पढ़ा-लिखा नहीं हूँ न...लेकिन इतना कह सकता हूँ कि इन सबके होने से मुझमें कुछ फूल की तरह खिलता रहता है। मैं इस तरह तृप्त हो जाता हूँ जैसे नहर में लबालब पानी देख लिया होऊँ।'
'जकीर भाईजान, मुहब्बत इसी का नाम है। नहर का पानी मुहब्बत का ही तो एक रूप है। मुहब्बत का पहाड़ जब रिसता है तो उससे नदी निकलती है और फिर नदी से नहर।' कहीं से आकर सल्तनत ने अपनी उपस्थिति दर्ज करायी।
'अरे, मेरे और भैरव के बीच तुम कब दाखिल हो गयी। मतलब मेरे यहाँ से खिसकने का सिगनल हो गया।'
'आपलोगों की दोस्ती पहले है...मैंने तो बाद में घुसपैठ की है। आप दोनों की दोस्ती की बुनियाद न होती तो मैं भला आसपास कहाँ टिक पाती? '
'अब इस बात की चिन्ता करो सल्तनत कि हम सबके मुहब्बत का पानी नहर से इसी तरह सूखता चला गया तो इस गाँव में हम कब तक टिक सकेंगे? मतीउर को हम नासमझ मानते हैं न, लेकिन धान के मर जाने पर उसका चेहरा देखो, कितना बुझ गया है।'
'जब से उसने खेती-बाड़ी सँभाली है, वह बहुत समझदार हो गया है, जकीर भाई। पौधों ने, फूलों ने, फलियों ने, बालियों ने, खेतों की आलियों ने उसे काफी अक्ल दे दी है। उसने कई बार मुझसे पूछा है कि छोटी, क्या इस नहर में पानी कभी नहीं आयेगा? यह पूछना मुझे ऐसा आभास देता है जैसे परवरिश चलानेवाले किसी फराखदिल रिश्तेदार के गुजर जाने पर कोई पूछ रहा हो कि क्या वह कभी जिन्दा नहीं होगा? '
आसपास सघन भावुकता का जैसे एक चँदोवा तन गया। जकीर ने चँदोवे तले की आर्द्रता को महसूस किया और कहा, 'सल्तनत, पूँजी तो मेरी सारी खत्म हो गयी है, लेकिन कर्ज लेकर भी हम बोरिंग करवायेंगे और डीजल पंप बिठायेंगे। उस पंप की खासियत यह होगी कि उससे मेरी और मेरी जाति के ही नहीं बल्कि उसकी पहुँच में आनेवाले सारे खेत पटाये जायेंगे।'
भैरव ने इस अभिव्यक्ति पर उसे गर्वोन्नत नेत्रों से निहारा और अपनी दोनों बँहें फैलाकर उसे सीने से भींच लिया। भरे गले से उसने कहा, 'तूने मेरे मुँह की छीन ली, जकीर...अगर ऐसा तुम वाकई कर सके तो यह गाँव के लिए एक आदर्श मिसाल होगी, मेरे दोस्त।'
'भैरव...इस गाँव में जो एक टुच्चापन समा गया है, अगर वह न होता तो हमारे काफी खेत तबाह होने से बच जाते। यह कचोट मेरे सीने में पैबस्त हो गयी है, यार। जब तक कुछ कर न लूँ, कचोट कम नहीं होगी।'
सराहते हुए भैरव ने कहा, 'तुम्हारा दिल बहुत बड़ा है, जकीर। देखना इसका कोई अच्छा फल मिलेगा तुम्हें। अगली फसल गेहूँ पर ध्यान दो...धान की कसक गेहूँ की अच्छी पैदावार से कम हो सकती है।'
जहाँ उसके सबसे ज्यादा खेत थे, उस जगह पर जकीर ने बोरिंग करवा ली और डीजल पंप बैठा लिया। इसे पूरा करते-करते काफी कर्जा-पैंचा लेना पड़ गया। सींचे गये खेत को कई चास जोतकर मिटटी खूब हलकी और फाहेदार बनाया गया तब गेहूँ के बीज छिड़के गये। धान की फसल को पोषित करने में व्यय होनेवाला धरती का जो उर्वरा-रस संचित रह गया था, गेहूँ के लिए वह वरदान साबित हो गया। पानी की कमी थी नहीं...तीन-चार पटवन अच्छी तरह की गयी। खूब जोरदार फसल हुई। जकीर ने अपने कहे अनुसार हर उस खेत को पानी दिया जो उसकी पहुँच के दायरे में आ सकता था, चाहे वह किसी भी जाति-धर्म का हो। जकीर ने दिखाया था सबको कि उसके पंप से कहीं ज्यादा पानी उसकी आँखों में है, जो अगर बचा रहे तो धान-गेहूँ से कहीं ज्यादा बड़ी, आदमीयत की फसल लहलहा सकती है। आज सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि यह पानी सर्वत्र सूख रहा है।
सब आह्लादित थे कि गेहूँ की यह अभूतपूर्व पैदावार सारी कंगाली दूर कर देगी। लेकिन होनी को शायद यह मंजूर नहीं था। कुछ गेहूँ कटकर खलिहान में आ गये थे और बाकी जोर-शोर से काटे जा रहे थे। फाल्गुन का आखिरी सप्ताह रहा होगा या चैत का पहला...जोरदार आँधी-पानी शुरू हो गया और पाँच-छह दिनों तक लगातार जारी रहा। मानो सावन-भादो का कसर प्रकृति चैत में निकाल रही हो। तैयार गेहूँ के लगभग तीन चौथाई दाने बाली के अंदर ही अँकुरा कर काले पड़ गये।
धनहर फसल की हानि में तो आदमी की करतूत शामिल थी। लेकिन तैयार रबी के समय प्रकृति ने क्रूर तांडव रच दिया और थाली में परोसा हुआ खाना मानो छीन लिया। प्रकृति के आगे चूँकि आदमी असहाय है, इसलिए इसका मलाल जरा जल्दी कम हो जाता है।
असली फसल के इंतजार में किसानों को कुछ कर्जा-पैंचा और बढ़ाना पड़ गया। जकीर के चेहरे की रौनक थोड़ी और कम हो गयी। मतीउर ने इस मर्तबा भी कई बार सल्तनत से पूछा कि 'ये आँधी-तूफान और बारिश कहाँ से और क्यों आते हैं?...और इन्हें आना ही है तो जब इनकी जरूरत होती है तो क्यों नहीं आते? '
सल्तनत ने बस इतना ही कहा, 'तुमने जिस सादगी, सरलता और मासूमियत से मुझसे पूछा है, वैसे ही इस जमीन-आसमान से पूछ लो, मेरे भाई...तुम्हें इसका जवाब वे जरूर दे देंगे।'
सल्तनत छत पर चढ़कर नहर के टूटे-फूटे किनारों और उसके फ़ॉल को देख रही थी जहाँ नीचे कंक्रीट के ढलान बने हुए थे तथा ऊपर इस पार से उस पार जाने के लिए पुल बना हुआ था। जब नहर पानी के वेग से उमड़ती हुई ठीक-ठाक चलती थी तो वह नौ गज का लहंगा पहने हुई और माँग में सिन्दूर भरे हुई एक अहियातन और बाल-बच्चेदार औरत की तरह शोभायमान रहती थी। उस फॉल पर नीचे पच्चीस-तीस हाथ लंबाई तक फर्श को पक्का कर दिया गया था और उस पर नहाने के लिए छोटे-छोटे चबूतरे बना दिये गये थे, जहाँ आसपास के गाँववाले स्त्री-पुरुष-बच्चे बिना किसी भेदभाव के ऐसे आनंदविभोर हो नहाते थे जैसे अपनी माँ की गोद में कूद-फाँदकर पानी से नहीं अमृत से नहा रहे हों। फाइव स्टार क्लब का स्विमिंग पूल भी क्या टिकेगा इसके सामने।
ढलान के ऊपर अथवा किनारे में बैठकर मुसहरी अथवा मुसलटोली के कई लोग कई-कई तरीके अपनाकर मछली मारते रहते थे। इन दिनों पूरा गाँव नहर की मछली से अघाया रहता था। मड़ुआ, मकई और धान आदि से मछलियाँ अदल-बदल हो जाती थीं। अब यह नहर राँड़ और निपूती के रूप में उस नग्न असहाय औरत की तरह लगती है जिसे किसी जालिम हुक्मरान ने बिना अन्न-पानी दिये निचोड़कर लावारिस हाल छोड़ दिया हो।
भैरव अक्सर कहा करता था - इस नहर ने हमारे तन-मन के न जाने कितने मैल बहाये हैं और कितने अन्न एवं दूसरी सौगातें दी हैं।
नहर पर एकटक टिकी सल्तनत की आँखें लगा अब बह उठेंगी। उसे भैरव की तलब होने लगी। पीछे मुड़कर देखा तो निकहत खड़ी है। ताज्जुब से भर उठी, 'निकहत तू? '
'हाँ, मैं अभी-अभी आयी हूँ...देख रही हूँ कि नहर से तुम्हारी बेआवाज गुफ्तगू में कितनी गहरी तल्लीनता है।'
'मु,झे यकीन नहीं हो रहा कि तुम मेरे सामने खड़ी हो। मैं बहुत ख्वाब देखती हूँ इन दिनों निकहत...कहीं तुम भी ख्वाब तो नहीं हो? '
'सल्तनत, तुम जो भी ख्वाब देखती रही हो, वह अक्सर सच होता रहा है।'
'तो तुम सचमुच आ गयी...इदरीश ने तुम्हें आने दे दिया? '
'वह मुआ भला क्यों आने देने लगा। धान के मर जाने और गेहूँ के सड़ जाने से घर की माली हालत लड़खड़ा गयी है...सो वह अतीकुर-मुजीबुर के पास चला गया है...शफीक मामू की तरह किसी नौकरी-चाकरी की तलाश में।'
'मुझे तो एकदम उम्मीद न थी कि तुमसे अब मुलाकात भी हो सकेगी। इतना पास रहती हो लेकिन लगता है कोसों दूर हो गयी हो।'
'मेरा जी भी बहुत मचल रहा था, सल्तनत। खासकर अम्मा को देखने के लिए रोज एक बार लगता था कि सरपट दौड़ पड़ूँ। अतीकुर-मुजीबुर ने एक खत में मुझसे अम्मा की खैरियत पूछी थी...मैं क्या बतलाती? '
'खैरियत पूछी थी? अम्मा की? अतीकुर-मुजीबुर ने? ' अचंभे में पड़कर कहा सल्तनत ने, 'तुम क्या कह रही हो, निकहत? '
'हाँ सल्तनत, हैरत क्यों करती हो...वे बुरे भी हैं तो यह खयाल क्या उन्हें नहीं होगा कि अम्मा ने ही उन्हें जनम दिया है। इतना ही नहीं, कहूँगी तो यकीन नहीं करोगी...कई खतों में तो उन्होंने तुम्हारे बारे में भी पूछा है।'
आँखें भर आयीं सल्तनत की, 'सच, मेरे बारे में भी पूछा है, तुम मुझे बहला तो नहीं रही हो न, निकहत दी? देखो, एक मैं हूँ...कितना कठोर, संगदिल, लापरवाह, खुदगर्ज...मैंने कभी उनके बारे में कोई खोज-खबर नहीं ली। वे लोग कैसे हैं, निकहत?'
'दोनों खूब मजे में हैं। दोनों ही बढ़िया नौकरी कर रहे हैं। शफीक मामू एक कलाली में मैनेजर हो गये हैं, उनकी भी अच्छी गुजर-बसर चल रही है।'
'निकहत, तुम तो बराबर लिखती हो न उन्हें। लिख देना कि मैं ठीक हूँ...अम्मा भी ठीक है और मतीउर भी। कहना - हमें उनसे कोई गिला नहीं है...वे जहाँ भी रहें, खुश रहें, हम यही दुआ करते हैं।'
'मैं उन्हें बराबर क्यों लिखने लगी, सल्तनत...कौन-सी खुशी है मेरे पास लिखने के लिए? तुम खुद ही उन्हें क्यों नहीं लिखती? '
'मैं लिखूँ? क्या मैं लिख सकती हूँ? वे बुरा नहीं मानेंगे? कहीं उन्हें अच्छा न लगा मेरा लिखना तो? नहीं...नहीं, तुम्हीं लिख देना, निकहत।'
'ठीक है, देखूँगी मैं। तुम सचमुच अच्छी हो न, सल्तनत? '
'हाँ निकहत, हाँ, मैं अच्छी हूँ लेकिन गाँव के कई मसले ऐसे हैं जो मुझे बेचैन किये रहते हैं। खैर, इन्हें छोड़...तू अपनी बता, कैसी हो? इदरीश कुछ नरम हुआ है या उसी तरह सूखा काठ है? औरत को पीटकर हवस पूरी करने की दरिंदगी अब तो नहीं करता है वह? निकहत, मेरा कहा बुरा लगे तो माफ कर देना...आखिर वह तुम्हारा शौहर है...मुझे उसके लिए ऐसी जबान...। '
'वह शोहदा मेरा कोई नहीं है, सल्तनत...वह मेरा कोई नहीं है। मैं इसे कैसे भूल सकती हूँ कि उसने मेरी दो-दो बहनों को बरबाद किया है...जिल्लत दी है।' गला भर आया निकहत का।
आँखें फाड़कर देखने लगी सल्तनत जैसे उसके इरादे की आहट लग गयी हो उसे, 'निकहत, कहीं तुमने कोई खतरनाक मंसूबा तो नहीं बना लिया है? '
निकहत ने कुछ नहीं कहा...सिर्फ उसके जबड़े कस गये और चेहरे पर एक सख्ती उभर आयी। सल्तनत ने इसे अच्छी तरह भाँप लिया।
'नहीं निकहत, नहीं। मेरी बहन, तुम ऐसा कुछ मत करना जो खौफनाक हो...जुर्म हो...गलत हो। जो हो गया उसे भूल जाओ। अपनी जिंदगी खामखा दाँव पर मत लगाओ...तुमने उसे शौहर के रूप में कुबूल किया है।'
'सल्तनत, तुम्हारे जैसा बड़ा दिल नहीं है मेरा। तुम उसे बचाना चाहती हो जिसने तुम पर एक से एक सितम और जुल्म ढाये हैं...जिसने हमारी बड़ी दीदी को जबर्दस्ती मौत के दोजख में ढकेल दिया? '
'ये कीड़े-मकोड़े जैसे बदनसीब लोग हैं, निकहत। इन्हें फना करने में हमें अपनी ऊर्जा बरबाद नहीं कर देना है। ताकत लगाने के लिए इनसे कई बड़ी-बड़ी मुसीबतें हैं हमारे पास।'
बहुत गर्व से देखा निकहत ने सल्तनत को, 'मान गयी मैं तुम्हें छोटी...बार-बार तुम साबित कर देती हो कि तुम छोटी नहीं, हम सबसे बड़ी हो। चलो ठीक है...तू अगर चाहती है कि जन्नत आपा की तरह मैं भी खामोशी से हलाक हो जाऊँ तो लो मैं उस शैतान को बख्श देती हूँ। ऊपर से मैं ठीक लग रही हूँ न देखने में लेकिन मेरी रूह जख्मों और नासूरों का एक अजायबघर बन गयी है, सल्तनत। मेरे ढके हुए बदन को उघारकर अगर मेरी रूह में उतर सकती हो तो लो हाजिर है।'
निकहत ने अपनी पीठ, छाती और जाँघ से कपड़े हटा दिये। इन्हें देखकर सल्तनत के रोयें सिहर गये। डंडे से आड़े-तिरछे काले-काले दाग इस तरह उगे थे जैसे गोदना गोद दिये गये हों।
उसने निकहत के हाथों को अपनी अँजुरी में भर लिया, 'नहीं बहन, नहीं। जैसे भी बचा सकती हो तुम अपने को, बचाओ। इस शातिर हैवान से तुम टक्कर ले सकती हो तो जरूर लो। जो अन्याय को पचा लेता है उसके जीने और मरने में कोई फर्क नहीं होता।'
दोनों बहनें गले लगकर फफक पड़ीं और हिचकियाँ ले-लेकर देर तक रोती रहीं। आसपास जकीर, उसकी अम्मा, मिन्नत और मतीउर भी आकर खड़े हो गये थे।
जकीर की अम्मा के बोल अनायास फूट पड़े, 'निकहत, तुम्हारे आँसू की कचोट ने मुझे यकीन दिला दिया है कि इदरीश सचमुच बहुत जालिम आदमी है। अगर तुम उस दोजख से निकल सको तो इस घर में तुम्हारे लिए एक खास जगह महफूज है...मैं ठीक कह रही हूँ न, जकीर? '
जकीर अपनी माँ का निहितार्थ समझकर ठगा-सा रह गया। सल्तनत और निकहत भी सुखद आश्चर्य से उनका मुँह देखने लगी। इसे तो सबने लक्ष्य किया था कि जब से सल्तनत इस घर में आकर रहने लगी, जकीर की माँ का दुराग्रह तेजी से बदलने लगा और उनकी छोटी-छोटी बीमारियाँ भी काफूर होती गयीं...वह प्रफुल्लित रहने लगी...लेकिन यह अनुमान किसी को नहीं था कि निकहत के लिए भी वह अपने घर में जगह बनाने लगी है। पता नहीं क्यों जकीर को भी यह खयाल बुरा नहीं लगा।
निकहत ने स्वीकार भरी मुद्रा में जकीर की तरफ देखा...जैसे पूछ रही हो कि क्या सचमुच इस घर में और तुम्हारे दिल में मुझे जगह मिल सकती है? क्या इस आश्वासन पर मैं अपने अभिशाप से मुक्त होने के लिए जोखिम उठा लूं? जकीर की आँखें यों चमकीं जैसे उसने हामी भर दी हो। सल्तनत इन दो जोड़ी आँखों की भाषा पढ़कर विभोर हो गयी।
मिन्नत अपनी सबसे सुशील और शालीन बेटी निकहत को टटोल-टटोल कर लाड़ करने लगी जैसे जानना चाह रही हो कि उसकी काँच की बनी लाड़ली बेटी कहीं से दरक तो नहीं गयी।
गेहूँ के पानी खाये सड़े बोझों को किसानों ने खोल-खोलकर खलिहान में सुखाना शुरू कर दिया था कि शायद कुछ अपने खाने लायक या जानवरों के खाने लायक अन्न निकल आये। पैदावार संतोषजनक हो तो खलिहान से उत्साह और हर्ष का एक नाद छलकता रहता है...अन्यथा एक गमी या अफसोस की चुप्पी भायँ-भायँ करने लगती है।
पहले सभी गाँववालों के खलिहान एक साथ ही हुआ करते थे। अब यादव, कोइरी, मुसलमान और अगड़ों (भूमिहार एवं ब्राह्मण) के खलिहान अलग-अलग चार ठिकानों पर दिखाई पड़ने लगे थे।
सल्तनत इन खलिहानों में रोज घूमने लगी...सबसे बात करने लगी...एक आगे बढ़े हुए गाँव को और भी आगे बढ़ने की जगह पिछड़ते चले जाने के मुद्दे पर उनकी राय लेने लगी, अपनी राय देने लगी। नहर सबकी रोजी-रोटी का मूल आधार है, फिर भी इसके दम तोड़ देने पर कोई विलाप नहीं...कोई गुस्सा नहीं...कोई हलचल नहीं। सब चुप ही रह जायेंगे तो इनकी परवाह क्या दूसरे जिले या दूसरे सूबे के लोग आकर करेंगे?
कुछ लोग सल्तनत को संजीदगी से सुनते और अपनी सहमति व्यक्त करते। कुछ लोग ताज्जुब करते कि ऐसे अहम सार्वजनिक मुद्दे को अपनी निजी चिन्ता बना लेने का ऐसा उपक्रम पहले कभी नहीं देखा गया। कुछ लोग उसका मजाक उड़ा देते कि चूल्हा-चौका करनेवाली यह लड़की चली है बड़ी-बड़ी बातें करने। कुछ लोग तो उसके प्रेम-प्रकरण को छेड़कर लुत्फ लेने लगते।
'सुना है, प्रभुदयाल के बेटे भैरव से तुमने ब्याह कर लिया है? '
सल्तनत इन प्रश्नों पर कोई खीज प्रदर्शित नहीं करती। बड़े संयम से जवाब देती हुई कहती, 'किया नहीं है अब तक लेकिन कर लूँगी।'
'गाँव के मुसलमान कहते हैं कि इससे उनकी नाक कट जायेगी। तुम्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं है? वे तुमसे बहुत नाराज हैं...तुम्हारे रवैये से खीजकर तुम्हारे भाई तक तुम्हें छोड़कर चले गये।'
'प्यार का मतलब सबको जल्दी समझ में नहीं आता है, मामू। जिसे समझ में आ जाता है उनकी इज्जत आफजाई हो जाती है। नाक उनकी कटती है जो मतलब नहीं जानते और लकीर के फकीर हैं...दकियानूस हैं।'
सल्तनत के निस्संकोच और निर्भीक संभाषण से कई ऐसे लोग मिले जो उसके प्रशंसक हो गये। बलात निकाह की खिलाफत और अपने प्रेम का खुलकर इजहार करने की उसकी दिलेरी से लोग पहले ही अवगत थे और उसकी चर्चा पूरे इलाके में थी।
गाँव में कुछ ऐसे लोग और कॉलेज में पढ़नेवाले कुछ ऐसे लड़के निकल आये जो सल्तनत की बेचैनी में पूरी तरह शरीक हो गये। उन्होंने महसूस किया कि जाति और मजहब के दायरे को तोड़कर जब तक संगठित प्रयास नहीं किये जायेंगे, सार्वजनिक कल्याण से जुड़े वे साधन सुरक्षित नहीं रखे जा सकेंगे, जिन पर सबकी खुशहाली और आजीविका टिकी है।
भैरव ने भी आसपास के गाँवों के अपने कॉलेज जमाने के युवा साथियों से संपर्क कायम किया और उन्हें नहर के लिए चलायी जाने वाली प्रस्तावित मुहिम में साथ देने की अपील की।
भैरव और सल्तनत नहर तट के गाँव-गाँव में अब इकट्ठे दर्जनों कार्यकर्ताओं के साथ घूम-घूम कर जन-जागरण चलाने लगे...बैठकें होने लगीं...सभाएँ होने लगीं...रैली और जुलूस निकाले जाने लगे। आम जनता हसरत और कौतूहल से देखती कि बुर्के की सरहद को तोड़ देनेवली यही वह बहादुर मुसलमान लड़की है जिसने एक थोपे हुए शौहर को लाख जुल्म-ज्यादियों के बाद भी शिकस्त दे दी और अपनी मुहब्बत का इकरार करने में कोई झेंप नहीं दिखायी...अब एक ऐसे मिशन के लिए भाषण कर-करके सबकी सुसुप्त चेतना जगाने निकल पड़ी है, जिसे बचाने के लिए इस इलाके को बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने की कीमत भी कम ही मानी जायेगी।
सल्तनत और भैरव ने एक साथ महसूस किया कि उनका प्यार एक सार्थक परिप्रेक्ष्य में नया आयाम ग्रहण करने लगा है। उन्हें यह भी लगा कि खलिहानों के बीच की दूरी कुछ-कुछ कम हो गयी है।
एक दिन प्रभुदयाल आ गये सल्तनत के पास। उसे गौर से निहारा और कहने लगे, 'सल्तनत, दुनिया कह रही है कि तुम मेरी बहू हो, अगर यह सच है तो मैं तुम्हें लेने आया हूँ, बेटी।'
बहुत भावुक हो गयी सल्तनत और विस्फारित तथा अविश्वसनीय नेत्रों से अपलक देखती रह गयी प्रभुदयाल को। उसने तो सोच रखा था कि भैरव के घर तक का सफर काफी मुश्किलों, मुसीबतों और टकराहटों से भरा होगा। लोग दहाड़ेंगे...उसकी औकात बतायेंगे...उसे धिक्कारेंगे...उसे निर्लज्ज, बेहया और नीच साबित करेंगे। अब तो एक पैर से लँगड़ी हो गयी है, इसके लिए भी उसे कोसा जायेगा और उसे अपाहिज-नाकाबिल बताया जायेगा। उसे बासी और रौंदी हुई एक बेअस्मत लड़की बताया जायेगा। लेकिन यह सब कुछ नहीं हो रहा। देहात का एक मामूली किसान अपनी रूढ़ियों और आग्रहों से क्या इस तरह अचानक मुक्त होकर उदात्त हो सकता है?
सल्तनत ने अभिभूत होकर बड़े आदर से कहा, 'इतनी आसानी से आप मुझे स्वीकार कर लेंगे...मुझे लग रहा है जैसे एक सपना देख रही हूँ। यह तो ऐसा करिश्मा हो गया जैसे हमारी नहर में ढेर सारा पानी आ गया हो। मुझे यकीन नहीं हो रहा कि आप सचमुच मेरे सामने खड़े हैं और मुझे लेने आये हैं।'
प्रभुदयाल का भोलापन और भी गाढ़ा हो गया, 'यकीन तो खुद मुझे भी नहीं हो रहा कि मैं लेने आ गया हूँ तुम्हें बिना बारात और फेरे के। लेकिन मैं जानता हूँ कि जैसे जाति और धर्म तुमलोगों के लिए कुछ नहीं है, वैसे ही बारात और फेरे भी तुमलोगों के लिए कोई मानी नहीं रखते।'
सल्तनत की विह्वलता पानी की तरह पसीज गयी, 'जी तो चाहता है बाउजी कि इसी वक्त मैं आपके साथ घर चल चलूँ जो सही मायने में मेरा अपना घर होनेवाला है। लेकिन आप जानते हैं कि हमने अपने गले में एक जेहाद और जुनून बाँध लिया है, जिसके सामने अपनी निजी चिन्ता जरा पीछे छोड़नी पड़ रही है।'
'यह जानने के बाद ही तो मैं समझ सका कि तुम क्या हो। मुझे लगा कि तुमसे अच्छी बहू तो सचमुच कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। नहर से मेरा रिश्ता औरों की बनिस्बत कुछ ज्यादा ही घनिष्ठ रहा है। नहर ने मुझे नौकरी भी दी थी और अब मैं देख रहा हूँ कि नहर के नहीं रहने से जो बेचैनी मेरे भीतर घुट रही थी वह तुम्हारी मार्फत अब जगजाहिर होने लगी है। मुझे बहुत अच्छा लगा, सल्तनत...आज तक किसी ने भी तो इसके उद्धार के लिए ऐसी आवाज बुलंद नहीं की। अपने को एक से एक धाकड़ और रसूखदार कहनेवाले लोग है यहाँ। सभी तमाशबीन बने हुए थे जैसे किसी दैवी शक्ति की बाट जोह रहे हों या फिर सोच रहे हों कि हम क्यों जहमत उठायें...कोई दूसरा क्यों नहीं। तुमने लड़की होकर भी यह बीड़ा उठा लिया है...भैरव से मेरी यह गिला खत्म हो गयी कि वह नौकरी क्यों नहीं करता। यह नहर सलामत हो तो हजारों-हजार नौकरी और भरण-पोषण का इंतजाम समाया है इसमें। हम भूखे रहकर भी भैरव को इस काम में भिड़ा देखकर संतोष कर सकते हैं।'
सल्तनत अपादमस्तक श्रद्धासिक्त हो गयी, 'बाउजी, मुझे आज समझ में आ गया कि भैरव...भैरव क्यों है? इसलिए कि वह आपका बेटा है। तौफीक मामू ने आपके बारे में एक बार कहा था कि मैं उसे अच्छी तरह जानता हूँ। जो चीज उसे समझ में आ जाये उसके लिए वह हर चलन और रिवाज तोड़ सकता है...आज मैंने इसे सच पाया।'
'तो तुम आओगी न! '
'आपकी इजाजत का तोहफा मिल गया, अब ना का सवाल ही कहाँ है? '
'तो इसे मैं तुम्हारी मर्जी पर छोड़ता हूँ...जब तुम ठीक समझो, आ जाना। मेरा घर तुम्हारे स्वागत के लिए हमेशा तैयार मिलेगा। चलता हूँ।'
सल्तनत को लगा कि प्रभुदयाल के रूप में सारी दुनिया का प्रोत्साहन उसके साथ हो गया है। उसके भीतर एक नया जोश छलछला उठा।
भैरव और सल्तनत विभिन्न गाँवों के कुछ अग्रणी प्रतिनिधियों के साथ सांसद टेकमल से मिलने चले गये।
'मेरा नाम सल्तनत है।'
'मैं भैरव हूँ।'
एक अकड़ में बैठा हुआ घूरकर देखा टेकमल ने, 'अच्छा...अच्छा। सल्तनत और भैरव। लैला-मजनूँ की तरह प्रेमियों की एक और जोड़ी। नाम सुना है भाई तुमदोनों का। तुम्हारे प्यार के काफी चर्चे हैं इस इलाके में। बहुत खूब...प्यार होना चाहिए...तुमदोनों की मिसाल इस जनपद में प्रेम करनेवालों को एक नयी प्रेरणा देगी। यह भी सुना है कि तुमलोग नहर को दुरुस्त करने के लिए एक तेज अभियान चला रहे हो। इसी सिलसिले में आये हो न मेरे पास? '
'जी हाँ, हम इसी सिलसिले में आपके पास आये हैं। इस जिले के लिए नहर खुशहाली और आजीविका का एक स्रोत है।'
'भाई, अब मुझे तुमलोग नहर का महात्म्य तो न समझाओ। मैं भी यहीं का रहनेवाला हूँ। हमारे खेतों को भी इसी नहर से संजीवनी मिलती रही है। मैं प्रतिनिधि हूँ इस क्षेत्र का...इसलिए ऐसा नहीं है कि नहर की दुर्दशा से अपरिचित हूँ। मुझे अच्छा लगा कि तुम सबने यहाँ के लोगों की लापरवही को झकझोरने का काम किया है। इन्हें जरा समझ में तो आये कि नहर जैसे बड़े-बड़े विकास-स्रोतों को कायम रखने में क्या कुछ करना होता है? आज तक किसी दूसरी जाति ने मुझे वोट नहीं दिया। मैं सिर्फ अपनी जाति के वोट से विजयी होता रहा हूँ। अब आज नहर अवरुद्ध हो गयी है तो क्या सिर्फ मेरी जाति के लोग ही भुगत रहे हैं? अगर नहर फिर से चालू हो जाती है तो क्या सिर्फ मेरी ही जाति के लोग उससे फायदा उठायेंगे? क्या लोगों को इतनी सी बात समझ में नहीं आनी चाहिए? '
सभी सुनने वाले ठगे रह गये जैसे एक सांसद ने नहीं, किसी अधकचरे फुटपाथी आदमी ने अपनी बात रखी हो।
भैरव ने जरा रुक्ष होकर कहा, 'टेकमल जी, जनता वोट दे या न दे...विकास कार्य को आगे बढ़ाना या उसे बहाल रखना सरकार का फर्ज होता है। आप प्रतिनिधि सिर्फ अपने जातीय वोटरों के ही नहीं है, बल्कि उनके भी हैं जिन्होंने आपको वोट..। '
टेकमल फनफना गये, 'भैरव और सल्तनत! मैं जानता हूँ कि तुमलोग किसके इशारे पर और किस मकसद से नहर को मुद्दा बनाकर खुद को चर्चा में लाना चाह रहे हो? तौफीक मियाँ ने तुमलोगों को राजनीति में उतारने का बढ़िया तरीका निकाला है। अच्छा है, हिन्दू और मुसलमान, दोनों के वोटरों को तुमलोग अपनी तरफ मोड़ सकते हो। लेकिन सुन लो, जीतूँगा यहाँ से मैं ही। नहर पर तुम्हारी राजनीति आगे नहीं बढ़ सकती।'
'टेकमल जी, वोट के अलावा भी दुनिया में बहुत कुछ होता है। मैं जानती हूँ आप बहुत पुराने मँजे हुए नेता हैं और बहुत मामूली चीजों को भी बहुत फैलाकर देखने की कला है आपके पास। लेकिन आप यकीन मानिए, फिलहाल हमारी मुराद सिर्फ नहर से है। मेहरबानी करके आप हमें यह बताने की जहमत करें कि एमपी कोटे का एक करोड़ रुपया सुना है अब तक रखा है, क्या उसे नहर की मरम्मत में लगाना उचित नहीं होगा? इतनी रकम से पूरा नहीं तो आधा-अधूरा कुछ काम तो हो ही जायेगा।'
'नहीं, यह संभव नहीं है। इस पैसे से हम अपने क्षेत्र के प्रत्येक गाँव में चरवाहों के लिए एक-एक विद्यालय भवन बनवाने जा रहे हैं। तुमलोग कुछ ज्यादा ही जल्दी में हो। यह काम इस तरह फटाफट नहीं हो सकता। मुख्यमंत्री से मेरी बातचीत हो चुकी है। कृषि मंत्रालय ने इसे अपनी कार्य योजना में शामिल कर लिया है। अभियंताओं का एक आकलन दल जल्दी ही मौके का दौरा करने वाला है।'
'टेकमल जी, अगर जल्दी कुछ नहीं किया गया तो धान की अगली फसल भी खाली चली जायेगी...फिर तो यहाँ के किसान पूरी तरह तबाह हो जायेंगे।'
'देखो भाई, अभी तुमलोग एकदम बच्चे हो...कुछ मालूम नहीं है तुम्हें कि दुनियादारी क्या चीज होती है। सरकारी काम को अंजाम देने का एक ढंग होता है...एक रफ्तार होती है। कोई आग बुझाने का काम तो है नहीं कि दमकल लगाकर फटाफट बुझा दिया। मुझे खुद इसकी चिन्ता है...अगले साल चुनाव होनेवाला है। आपलोगों को इतना आश्वासन दे सकता हूँ कि इस विषय पर कार्रवाई शुरू हो गयी है...आगे आपलोगों की मर्जी। चाहें तो मुख्यमंत्री से मिल लें...प्रधानमंत्री से मिल लें...जनतंत्र है, आप कहीं भी जा सकते हैं।'
जिस तरह की बातें हुईं, किसी को भी इस टेकमल पर कोई भरोसा नहीं हुआ। सबने तय किया कि मुख्यमंत्री से मिलकर ही वस्तुस्थिति की सही जानकारी ली जाये। भैरव कुछ लड़कों के साथ राजधानी जाकर यह काम भी कर आया। मुख्यमंत्री का वही स्टीरियोटाइप घिसा-पिटा जवाब...हम छानबीन करेंगे...प्रगति का जायजा लेंगे...जल्दी करने का निर्देश जारी करेंगे।
सावन फिर आ गया। धान की गाछी पारकर किसान रोपा करने के लिए तैयार थे, मगर नहर की दुर्दशा में कोई फर्क नहीं...पानी एकदम नदारद...वर्षा में भी कोई खास दम नहीं...कभी चार बूँद, कभी आठ बूँद, कभी सिर्फ गर्जन-तर्जन। देखने से लगता था कि नहर शर-शैया पर किसी कंकाल की तरह चित लेटा पड़ा है। उसके बगल में निचली सतह पर बहनेवाली सकरी नदी पानी से भरी हुई उफनती-लहराती बहे जा रही थी। यह कैसी विडम्बना थी कि गाँव की करवट में पानी का अविरल प्रवाह जारी था फिर भी खेत प्यासे थे। कैसी हरजाई है यह नदी कि आँचल में दूध रखकर भी अपने बच्चों को तड़पा रही है। सल्तनत कभी छत पर खड़े होकर देखती थी...कभी नदी के तट पर जाकर उसे निहारती थी। एक मर्तबा भैरव ने उसे समझाया था, 'नदी का इसमें कोई कसूर नहीं है, सल्तनत। गुनहगार हम स्वयं और हमारी बनायी व्यवस्था है। आज से सैंतालीस साल पहले जबकि देश विकास का ककहरा शुरू कर रहा था तो एक मुख्यमंत्री ने साहस किया और इतनी बड़ी नहर खुदवा दी। आज हमारे पास हर तरह के संसाधन हैं...राजकोष में पैसे की कमी नहीं है, फिर भी उस खुदी हुई नहर का रख-रखाव तक करना मुहाल हो गया। इसका सबसे ज्यादा जिम्मेदार हम जनता हैं कि टेकमल जैसों को अपना भाग्यविधाता बना देते हैं।'
सल्तनत देख रही थी कि जकीर का चेहरा उतरता जा रहा था। पंप की पहुँच वाले खेत में उसने रोपा कर दिया था, लेकिन इतना से साल भर तो क्या तीन महीने भी लगातार चूल्हा नहीं जलनेवाला था। गन्ने के बाद धान पर ही गृहस्थी का सारा दारोमदार टिक गया था। अब जकीर के पास भी कोई काम नहीं बचा था। गाँव के सभी लोग हताश-उदास इधर-उधर यों ही डोल रहे थे जबकि इस मौसम में किसी को छींकने-खाँसने तक की फुर्सत नहीं हुआ करती थी। पूरा धनहर बाँध हलवाही की एक आह्लादित ध्वनि से गुंजरित रहा करता था, जिसमें बैलों के ललकारने-पुचकारने तथा पानी के छपर-छपर की मनोहारी आवाजें शामिल रहती थीं। गृहिणियाँ कलेवा बनाने और ले जाने में मशगूल हो जाया करती थीं। इस बार किसी के पास कोई काम नहीं था। बिना किसी प्राकृतिक आपदा के गाँव की ऐसी फटीचरी हालत पहले कभी देखी नहीं गयी थी।
उबासी और बोरियत से लदी इन्हीं परिस्थितियों में एक दिन मतीउर ने बहुत सकुचाते हुए कहा। यह कहने के लिए वह कई दिनों से मन बना रहा था, 'छोटी दी, अब इस गाँव में मेरे करने के लिए कुछ नहीं रह गया है, लगता है जैस खाली वक्त मुझे काटने दौड़ रहा हो। बुरा न मानना दी...मैं अब यहाँ से जा रहा हूँ।'
सल्तनत की देह का जैसे सारा खून जम गया। हकलाते हुए पूछा उसने, 'जा रहे हो, लेकिन कहाँ? '
'हाफिज जी के पास अतीकुर की चिट्ठी आयी है। उसने लिखा है कि अगर मैं जाना चाहूँ तो उसके पास जा सकता हूँ...वह मुझे वहाँ कोई काम दिला देगा।'
'हाफिज जी ने क्या तुम्हें खुद बताया? '
'हाँ।'
'अतीकुर ने क्या और भी किसी के बारे में कुछ लिखा है? '
'अम्मा के बारे में लिखा है कि वह भी अगर जाना चाहे तो मैं उसे अपने साथ लेता आऊँ।'
सल्तनत की आँखें डबडबा गयीं और गला रुँध गया।
'तुम घबराओ नहीं दी, मैं अम्मा को नहीं ले जा रहा...वह तुम्हारे पास ही रहेगी।'
'मुझे और इस गाँव को छोड़कर तुम भी मत जाओ, मतीउर। तुम्हारे बिना मेरा बहुत कुछ सूना हो जायेगा। तुम्हारे और अम्मा की शह-हिमायत और निगरानी ने ही तो मुझे जिंदा रखा है।'
'मैं तुम्हारे और अम्मा के लिए वहाँ से पैसे भेजूँगा दी।'
'मुझे पैसे नहीं, मतीउर...गाँव में तुम्हारा साथ चाहिए। फितरत से तुम एक सच्चे किसान हो...तुम्हारे जैसे लोग यहाँ नहीं रहेंगे तो हमारे जेहाद करने का मतलब ही क्या रह जायेगा? '
'मुझे इस तरह की बातें समझ में नहीं आती दी।'
'मतीउर, मैं कहना चाहती हूँ कि नहर में पानी आयेगा, तुम विश्वास करो। हम यह लड़ाई बहुत दूर तक लड़ेंगे। खेती तुम्हारी तबीयत, कूबत और फितरत का काम है। इसके सिवा दूसरा कोई भी काम तुम्हारे दर्जे को बहुत छोटा कर देगा।'
'हाफिज जी का बेटा और दूसरे कई लोग जा रहे हैं, दी। मैंने इनके साथ जाना तय कर लिया है।'
'मतलब काफी लोग गाँव से उखड़ रहे हैं।' सल्तनत की मायूसी में एक वेदना समा गयी।
मिन्नत ने कई दिनों से नहाया नहीं था। वह रोज अपने कपड़े लेकर नहर में बने नहाने के चबूतरे पर जाकर बैठ जाती थी और पानी आने की राह को एकटक ताकती रहती थी। मतीउर ने जाने के दिन उसे कुएँ पर ले जाकर नहला दिया और उसके एक-एक कपड़े की साबुन लगाकर धुलाई कर दी।
मतीउर जाने को हुआ और अपना झोला उठा लिया तो मिन्नत सामने आ गयी, जैसे कह रही हो कि बेटे, मैं पागल नहीं हूँ, सब समझ लेती हूँ कि क्या कुछ हो रहा है...तुम भी जा रहे हो न मुझे छोड़कर?
मतीउर से अम्मा का यह असहाय-मासूम चेहरा देखा न गया और वह जार-जार रो पड़ा। सिसकियों के बीच ही उसने कहा, 'मैं तुम्हें छोड़ नहीं रहा हूँ, अम्मा...देखना, मैं जल्दी ही तुम्हें लेने आऊँगा। तुम्हें छोड़कर मुझे अब तक जीना कहाँ आया, अम्मा। छोटी दी, अम्मा का पूरा खयाल रखना। मैं जा रहा हूँ लेकिन जानता हूँ अम्मा और तुम्हारे बिना मेरा वहाँ मन नहीं लगेगा।'
सल्तनत के आंसू भी हरहरा कर चू पड़े, 'तुम्हारे बिना मैं भी चैन से नहीं रह पाऊँगी, मतीउर। शहर के हरजाई पानी का असर मत चढ़ने देना अपने ऊपर। सुना है वहाँ जाकर लोग सगे को भी बेगाना बना देते हैं। नहर में पानी आयेगा तो मैं तार भेजूँगी, तुम फौरन वापस आ जाना, मेरे भैया। खेत तुम्हारी बाट जोहते रहेंगे।'
सल्तनत मतीउर से यह सुनने के लिए उत्सुक थी कि हाँ दी, नहर में पानी आते ही मैं भागा-भागा आ जाऊँगा, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं कहा।
मतीउर चला गया तो जकीर भी जैसे एकाकी हो गया। खेती में दोनों एक-दूसरे के काफी मददगार थे और लगभग साये की तरह साथ-साथ रहते थे। देखने से यह लगा था कि जकीर का अपना भरोसा भी कहीं से हिल गया है। उसने भी ऐसा मान लिया कि नहर में अब पानी सचमुच कभी नहीं आयेगा।
सल्तनत की अधीरता को देखते हुए भैरव ने समझाया था, 'तुम इस तरह कातर और भावुक बनकर खुद को कमजोर मत होने दो, सल्तनत। जानता हूँ कि मतीउर तुम्हारा नैतिक अवलंब था...लेकिन अब तुमने अपनी दिशा निर्धारित कर ली है। मैं तो हूँ न तुम्हारे साथ...जकीर भी है...तुम्हारी अम्मा भी हैं और अब तो पूरा गाँव एवं जवार है तुम्हारे साथ। एक मतीउर की जगह देखो कितने-कितने मतीउर जुड़ गये हैं हमसे।'
सल्तनत भैरव की छाती से एक अबोध बच्ची की तरह चिपक गयी। भैरव ने उसके कपोलों और बाजुओं को बड़े प्यार से थपकी दी जैसे एक सख्त चट्टान के भीतर बसी तरलता-कोमलता का स्पर्श कर रहा हो।
एक रात सल्तनत ने देखा कि नहर में ढेर सारा पानी आ गया है, जो तटबंधों के बीच मुश्किल से अँट रहा है। किसान खुशी से झूम उठे हैं। झिंगुरों, उल्लुओं, मेढ़कों और स्यारों की मनहूस आवाजों से कराहती रातें बलेशर पासवान के आल्हा और तुमाड़ी गोप के लोरिकाइन गीत से फिर सुंदर-सुहावनी हो गयी है। सुबह ही सुबह अपने बैलों को खिला-पिलाकर किसान हलवाही के लिए निकल पड़े हैं। जकीर और मतीउर के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं है। नहर से पईन के जरिये खेतों में पानी हहर-हहर करके प्रवेश कर रहा है। मुसहरी से धनरोपनी और मोरकबरा टोली में बँट-बँटकर औरत-मर्द घर से निकल पड़े हैं। हर्षातिरेक में सल्तनत पुकार उठती है, 'भैरव...भैरव। देखो, रूठा हुआ सावन-भादो अपनी पूरी सज-धज के साथ वापस आ गया है। भैरव...कहाँ हो तुम? तुम्हें दिखाये बिना मुझे चैन नहीं मिल रहा...मतीउर को वापस बुलाओ, हलवाही के लिए अपने खेत बुला रहे हैं उसे।'
नींद खुल गयी सल्तनत की और सपने का चटख रंग काफूर हो गया। कुछ भी नहीं बदला था बाहर और त्रासदी अपनी पूरी निर्ममता से कायम थी अपनी जगह।
निकहत जब इदरीश की अनुपस्थिति में लतीफगंज से लौटी थी तो अपने साथ तीन पुड़िया चूहा मारने की दवा खरीद लायी थी। इदरीश खुर्राट था, खूँखार था, गुस्सैल था, वहशी था...दिन-रात में शायद ही कभी सीधे मुँह बात करता था। उसे सताने, तड़पाने, सख्ती वरतने और सितम ढाने में लोमहर्षक मजा मिलता था। निकहत चूहे मारने की दवा रोज गुप्त ठिकाने से निकालती थी और खाने में मिला देना चाहती थी, लेकिन उसकी रूह ने हमेशा उसे रोक दिया। अन्ततः इस नतीजे पर पहुँची वह कि किसी को मार देने की बर्बरता उससे कतई मुमकिन नहीं होगी, चाहे वह उस पर रोज कहर ढानेवाला जल्लाद उसका शौहर ही क्यों न हो।
उसने एक फैसला किया।
जहर के पुड़िए हाथ में लेकर उसने इदरीश को दिखाते हुए कहा, 'देखो, ये तीन पुड़िए जहर हैं जिसे मैंने तुम्हें मारने के लिए खरीदे हैं। लेकिन मेरे दिल ने इसे मंजूर नहीं किया। मैं एक अदना-नाचीज इंसान, कौन होती हूँ किसी को मारने वाली? अब मैंने तय किया है कि इसे खाकर मैं खुद को ही खत्म कर लूँगी। तुम्हारे साथ अब मुझे एक पल नहीं रहना है।'
झपट्टा मारकर इदरीश ने उसके हाथ से पुड़िए छीन लिए, 'कमीनी...बेहया। तू मुझे मारना चाहती थी? और अब खुद मर जाने का ड्रामा कर रही है।'
'किसी जहर के बिना भी मैं खुद को मार सकती हूँ...तुम हरदम घर में बैठे नहीं होते।'
'आखिर तू चाहती क्या है? '
'मैं तुम्हारे साथ जीने से बेहतर मर जाना समझती हूँ।'
'अरी चुड़ैल, मैं छोड़ भी दूँ तो कौन पूछेगा तुझे? अब तुममें रखा ही क्या है? '
'तुम्हारे जैसे पूछनेवाले से अच्छा है कोई पूछनेवाला न हो।'
इदरीश ने फटाफट दस-बीस लात-घूँसे जड़ दिये। निकहत जानती थी कि यह तो होना ही है...अक्सर होता ही रहता था। उसने उसे धिक्कारते हुए कहा, 'यह तुम्हारा आखिरी मारना है...कल तुम मेरी लाश पीटना।'
इदरीश थाना-कचहरी की पेचीदगी में फँसने के डर से तनिक हिल गया। इसे एकबार वह भुगत चुका था। अचानक उसकी विष-खोपड़ी में एक शैतान-युक्ति उभर आयी। हिकारत से मुँह बनाकर कहा उसने, 'ऐसे भी तो मैं तुम्हें पूरी तरह निचोड़ और चूंस ही चुका हूँ... तुममें अब मेरी कोई खास दिलचस्पी नहीं है। ठीक है...मैं तुम्हें आजाद कर देता हूँ...लेकिन एक शर्त है...कोई एक आदमी ढूँढ़कर लाओ जो तुम पर तरस खाकर भी तुम्हारा हाथ थाम सके। चूँकि मैं अगर ऐसे ही भटकने के लिए छोड़ दूँगा तो तुम्हारे भाई और मामू मुझे कसूरवार ठहरायेंगे। मैं उनकी हमदर्दी खोना नहीं चाहता...मुझे अभी उनसे बहुत काम निकालना है।'
'मैं जानती हूँ कि तुम चालाकी से उस आदमी का नाम जानना चाहते हो, लेकिन तुमसे न तो मैं डरती हूँ और ना ही वह आदमी। तुम्हारी बनायी हुई इस बदतर हालत के बावजूद मेरे हाथ थामने के लिए जो शख्स तैयार मेरी राह देख रहा है, उसका नाम कान खोलकर सुन लो...जकीर है...जकीर।'
इदरीश को लगा जैसे उसकी आँखों में मिर्ची झोंक दी गयी और कान में नश्तर चुभो दी गयी। कम्बख्त यह जकीर तो उसका जानी दुश्मन हो गया है। सल्तनत को भी इसी हरामी ने आश्रय दिया तथा भैरव का मन भी शह देकर इसी ने बढ़ाया है। अब तक उसकी किसी भी खुराफात का कोई जवाब नहीं दिया गया, लेकिन अब इसे यों ही बख्श देना वजिब नहीं है। इदरीश का टेढ़ा दिमाग तेजी से उल्टी तरफ चलने लगा।
सल्तनत रोज छत पर चढ़कर नहर को निहारती और उसके बाजू में बह रही नदी को देखती, जिसका पानी निरर्थक बहे जा रहा था। नहर सूखा का सूखा ही रह गया। धान के खेत परती रह गये। किसानों की आँखों में उतरा हुआ सूनापन और भी दयनीय हो गया।
चिन्ताओं की आँधी से जूझते हुए जकीर ने एक दिन कहा, 'इस मुल्क में सबके लिए सरकार है, लेकिन किसानों का कोई नहीं है। उसे अपने हाल पर जीना-मरना है। अगर यही हाल रहा तो कृषि पर कोई कैसे टिका रह सकता है।'
नहर का जायजा लेने के लिए कोई आकलन समिति नहीं आयी अथवा कोई दूसरी कार्रवाई होने के कहीं आसार दिखाई नहीं पड़े। इसी बीच लोकसभा का चुनाव भी हो गया। अपने जनसंपर्क भाषण में लंबे-चैड़े सब्जबाग दिखाने के मोहिनीमंत्र का सिद्धहस्त खिलाड़ी टेकमल फिर मैदान में था। भैरव और सल्तनत ने अपने सभी साथियों के साथ कई बैठकें कीं, जिनमें बार-बार यह चेतावनी दी गयी कि जातीय आधार पर वोट देने से खुद को बचायें और टेकमल जैसे दोमुँहे एवं निकृष्ट आदमी को इस सीट से बेदखल करें। इसकी हार नहर के पक्ष में एक तरह का जनमत-संग्रह होगा।
लेकिन दुर्भाग्य! नहर जैसा जीवन-मरण वाला मुद्दा भी जातीय मोह के आगे छोटा पड़ गया और टेकमल फिर जीत गया। नहर बने या न बने, इसकी बिना परवाह किये उसकी बड़ी आबादी वाली जाति ने उसे जीताना ज्यादा जरूरी समझा।
जकीर तो ठगा रह ही गया, सल्तनत को भी गहरा आघात पहुँचा। भैरव ने इन्हें सँभालने की कोशिश की, 'इन्हीं ओछी मानसिकताओं ने तो हमारी तरक्की को पीछे की तरफ धकेला है। सभी बीमारी की जड़ हमारी यही क्षुद्रता और संकीर्णता है। हमें इन्हीं से जूझना है। नहर के जीर्णोद्धार में पैसे से अधिक मानसिकता का महत्व है। इसलिए हम पस्त और हतोत्साहित नहीं होंगे और अपना अभियान जारी रखेंगे।'
लगातार दो खरीफ और फिर एक रबी फसल में धोखा खाने के बाद जकीर की आंतरिक हालत बिल्कुल चरमरा गयी। वह एक अच्छा-खासा खाता-पीता मझोला किसान था। उसके घर की कोठियों में कम से कम पचास मन चावल का भंडार हमेशा जरूर रहा करता था। गाँव में अपने करीबी लोगों के घटने-कमने के समय अपनी ओर से इमदाद मुहैया कराने के लिए उसकी मुस्तैदी गौरतलब थी। आज हालत ऐसी हो गयी कि उसे खुद के लिए भी किल्लत के दिन देखने पड़ गये। बोरिंग करवाने और पंप बिठाने के समय उसने जो कर्ज लिया था, वह घटने की जगह बढ़ता ही चला जा रहा था।
उसने काफी सोच-विचार और मनोमंथन करके अच्छी आमदनी देनेवाली फसल उगाने की रूपरेखा बनायी। तय हुआ कि पंप की पहुँचवाले अधिकांश खेतों में प्याज की खेती की जाये। गाँव के ज्यादातर किसान इस निर्णय में शामिल हो गये थे, खासकर वे जिनके पास अपने पंप थे।
प्याज की गाछी पारी गयी और धान की तरह खेतों में कादो बनाकर रोप दी गयी। धान की तरह इसकी जड़ों में लगातार पानी की जरूरत नहीं होती। बस दो-तीन दिनों में इसे पटाते रहना होता है। इसमें दो-तीन बार खाद (सल्फेट या यूरिया) छिड़क दिये जायें तो पौधे जोरदार पुष्ट बन जाते हैं। जकीर ने खाद का छिड़काव तो किया ही, कीड़ों और बीमारियों से बचाव के लिए दवाई भी स्प्रे की। वह इसमें कोई कसर नहीं रहने देना चाहता था। सल्तनत इसकी वापस आ गयी तन्मयता देखकर बहुत खुश थी।
प्याज-खेत की मेड़ों पर जकीर और भैरव के साथ वह भी चक्कर लगाने चली जाती। प्याज के पौधे दमदार होते जा रहे थे और उसके नीच पोट भी खूब बढ़िया आकार ले रहा था। बेहतरीन परिणाम की चमक जकीर की आँखों में सहज ही देखी जा सकती थी। सल्तनत और भैरव ने इस चमक से एक अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव किया। एक किसान को अपनी मिट्टी से जुड़े रहने के लिए ऐसी चमक का बना रहना बहुत आवश्यक है।
सल्तनत ने कहा था, 'आज मतीउर होता तो प्याज की इतनी जबर्दस्त पैदावार देखकर गदगद हो जाता। मेरे खयाल में पहले किसी ने नहीं सोचा था कि यहाँ की मिट्टी प्याज के लिए इतना मुफीद है।'
उम्मीद पर प्याज पूरा खरा उतरा। किसी भी गोटा प्याज का वजन सौ-डेढ़ सौ ग्राम से कम नहीं था। एक कट्ठे में सात से आठ मन का हिसाब लगाया गया। जकीर तो मानो धन्य-धन्य हो गया। उसने चार बीघा प्याज रोपा था, जिससे लगभग साढ़े पाँच सौ मन प्याज की उपज प्राप्त हुई।
उपज के समय हमेशा वस्तुओें के दाम गिर जाते हैं। खासकर ऐसी वस्तुओं के दाम तो और भी गिर जाते हैं जो सड़-गलकर खराब होने वाली हो। ऐसी चीजों के दाम तब और-और गिर जाते हैं जब उसकी पैदावार हर जगह उम्मीद से ज्यादा हो जाती हो। इस साल प्याज का यही हाल हो गया। पता चला कि पूरे देश में इसकी जबर्दस्त खेती हुई है। तो क्या यह आम की तरह की फसल है जो एक साल छोड़कर अगले साल खूब होती है?
जकीर के सामने किंकर्तव्यविमूढ़ता की गहन स्थिति पैदा हो गयी। महज बीस-पच्चीस रुपये मन वह प्याज बेचे भी तो कैसे और अगर न बेचे तो उसे रखे भी कहाँ?
उसने अपने घर की कई कोठरियों में जमीन से ऊपर बाँस की फराटी से तीन स्तरीय मचान बनायी और प्याज को उस पर बिछा दिया। भैरव, सल्तनत, जकीर की अम्मा आदि उसकी देखभाल में लग गये। हर दो-तीन दिन में उसकी उलट-पलट की जाती और सड़ने की गिरफ्त में आने वाले को बाहर निकाल दिया जाता।
यह क्रम इसी तरह चल रहा था कि एक-डेढ़ महीने बाद ही उसके सड़ने की गति अचानक तेज हो गयी। बाजार-भाव अब भी वैसा ही था। कोई आढ़तिया प्याज को पूछ नहीं रहा था। जरूरतमंद बनकर जो बेच रहे थे उन्हें गरजू समझकर माटी का मोल दिया जा रहा था। यह एक अजीब विडम्बना है कि जब पैदावार किसानों के हाथ में होती है तो उसका दाम औना-पौना होता है और जब हाथ से निकल जाती है तो दाम आसमान छूने लगता है। जकीर ने देखा कि इस तरह बेचने की बनिस्बत गोबर-गनौरा की तरह बतौर खाद खेतों में डाल देना बेहतर है। अन्ततः हुआ भी यही...लगभग पूरा प्याज सड़ गया और जिस खेत से वे उपजाये गये थे उन्हीं में उन्हें फेंक दिया गया...'माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूँधे मोय' की तर्ज पर।
यह एक और मोर्चा था जहाँ किसान अर्थात जकीर पराजित हो गया। कभी पानी के बिना खेत परती रह जाते हैं...कभी जवान फसलें सूख जाती हैं...कभी खलिहान में लाये अनाज सड़ जाते हैं...कभी घर में आयी उपज बरबाद हो जाती है...इसके अलावा भी न जाने किन-किन मोर्चों पर कितने-कितने दुश्मन हैं किसानों के...कीड़े, चूहे, चोर, जानवर, पक्षी, तूफान, पाला, लू और अब यह सरकार भी जो उचित भंडारण तक की व्यवस्था उपलब्ध नहीं करवा सकती। कोल्ड स्टोरेज के बिना या फिर कोल्ड स्टोरेज में बिजली के बिना पूरे देश में हजारों-लाखों टन प्याज की तरह के कच्चे उत्पाद हर साल सड़ जाते हैं।
जकीर के लिए यह एक और बड़ा आघात था। अब तो जैसे बर्दाश्त की इंतहा हो गयी थी। उसके चेहरे की रंगत निस्तेज हो गयी। सँभलने की इस बड़ी कोशिश के नाकामयाब होने के बाद शायद उसका धैर्य अब निचुड़ गया था। वह एकदम गुमसुम हो गया...बोलना, बतियाना, हँसना, खिलखिलाना...सब कुछ जैसे प्याज की सड़ाँध से संक्रमित हो गया। जिसने कभी कोई कमी और किल्लत नहीं देखी हो उसे अगर देखना पड़ जाये तो यह उनके लिए हिमालय की चढ़ाई हो जाती है, जिसमें सभी कामयाब नहीं होते।
भैरव को इसकी हालत देखकर स्मरण हो आया कि काफी पहले जब सब कुछ ठीक-ठाक था, इसी जकीर ने उसे हुलसित होते हुए कहा था, 'देखना भैरव, मैं एक मिसाल कायम करूँगा कि मुझे देखकर लोग मानेंगे...खेती करना और किसान होना भी एक इज्जतदार काम है। मैं एक ट्रैक्टर खरीदूँगा...फिर मेरे पास कार भी होगी। आखिर पंजाब और हरियाणा भी इसी देश में हैं, जहाँ किसान कार पर बैठकर अपने फार्म हाउस जाते हैं और शहरी सुख-भोग के सारे साधन घर में रखते हैं।'
आज उसी जकीर की यह नियति हो गयी कि कृषि नाम से ही जैसे मोहभंग हो गया। भैरव से यह सब देखा नहीं जा रहा था।
सल्तनत ने समझाने की बहुत चेष्टा की, 'जकीर भाई, आपका दर्जा तो एक मजबूत खम्भे की तरह रहा है, जिसके सहारे हम सभी टिके हैं। आप इस तरह हिल जायेंगे तो सब कुछ धराशायी हो जायेगा...हमारी गुजर-बसर...हमारा प्यार...हमारी लड़ाई। मतीउर चला गया...अब आप भी उम्मीद छोड़ देंगे तो हमारा मनोबल किसके भरोसे कायम रहेगा।'
जकीर की भंगिमा में कोई बदलाव नहीं आया, जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।
उसकी अम्मा एक दिन हाफिज जी के पास चली गयी। घिघियाते हुए कहा, 'जरा मेरे बेटे की झाड़-फूँक कर दीजिए हाफिज जी। पता नहीं उसे क्या हो गया...किसकी नजर लग गयी...हर वक्त गुमसुम और फिक्रजदा रहने लगा है।'
हाफिज को जैसा तमाचा मारने का मौका मिल गया। कहा उसने, 'नजर तो उसे लगनी ही थी, मोहतरमा। मोमिनों की जज्बात को बहुत ठेस पहुँचायी है उसने। एक काफिर लड़के से बिरादरी की एक लड़की के लगाने-फँसाने में मददगार रहा है वह। मुझसे उसकी झाड़-फूँक नहीं होगी।'
अम्मा ने उसे बेपनाह नफरत से घूरते हुए एक करारा जवाब पकड़ा दिया, 'तो जा, तेरा भला भी नहीं होगा हाफिज। तू क्या समझता है कि झाड़-फूँक करता है तो तू खुदा हो गया? मैं बददुआ देती हूँ कि तेरे हाथ से झाड़-फूँक की तासीर आज से खत्म हो जाये...और सुन लो, सल्तनत और भैरव की मुहब्बत का मैं भी खैरख्वाह हूँ...यह मुहब्बत हमेशा आबाद रहेगी।'
हाफिज अम्मा का मुँह देखता रह गया।
जकीर की तरह गाँव के अन्य किसानों की हालत भी प्रायः जर्जर ही थी। एक बेबसी और बेचैनी उनके चेहरे पर भी दर्ज थी। लेकिन जकीर ने चूँकि खेती को एक चुनौती की तरह लेकर बड़े-बड़े सपने पाल रखे थे, इसलिए उसकी हताशा अपेक्षाकृत ज्यादा थी। भैरव ने उसके बढ़ते मानसिक असंतुलन को देखकर बार-बार समझाने की कोशिश की।
'जकीर, किसान का अर्थ ही होता है अपार धैर्य और जीवटता झेलने वाला। तुम इस तरह बेहाल रहोगे तो हमारी मुहिम आगे कैसे बढ़ेगी, यार? '
जकीर में कोई सुधार नहीं आया। वह अकेले में कभी नदी की तरफ, कभी नहर की तरफ, कभी बाँध की तरफ, कभी रेलवे लाइन की तरफ निकल जाता और घंटों वापस नहीं आता। जानवरों की तरफ तो उसने देखना भी बंद कर दिया था।
एक दिन सुबह किसी गोरखिये ने आकर बताया कि जकीर रेल-लाइन पर ट्रेन से कटकर मर गया। पूरा गाँव सन्न रह गया। सल्तनत और भैरव फूट-फूट कर रो पड़े।
'यह क्या कर दिया तूने, जकीर? तुम्हीं हमें लड़ने और संघर्ष करने को उकसाते थे और तुम्हीं हारकर मैदान छोड़ गये? यह तो सरासर नाइंसाफी है, मेरे दोस्त। सल्तनत तो लँगड़ी हो ही गयी थी और अब तो मानो मैं भी अंधा हो गया। तुम्हीं तो थे मेरी आँखें। तुम्हारा अपनापन और घनिष्ठता ही तो मेरी शक्ति थी। हाय जकीर, उस हत्यारिन रेल लाइन से, जहाँ तुम कट मरे, अपने कई गाँववालों को मैंने बचाया है...लेकिन लानत है मुझ पर कि तुम्हें ही नहीं बचा सका।'
जकीर की अम्मा की तो जैसे दुनिया ही बरबाद हो गयी। उसका सबसे प्यारा और दुलारा बेटा नहीं रहा। कई दिनों तक वह रो-रोकर बेहोश होती रही। कलकत्ता से उसके दोनों बेटे आ गये। हाफिज और कुछ अन्य लोग इन दोनों को लगा-बुझाकर चढ़ाने-बहकाने की जुगत में लग गये कि भैरव और बदचलन सल्तनत के चलते ही सारा कुछ हुआ है...इन्हें अब घर में रहने देना ठीक नहीं है। बेहतर होगा कि वह अपनी अम्मा को अपने साथ ही लेता जाये।
अम्मा शोक में थी फिर भी पूरे होश में थी। वह अब तक घर में सल्तनत, मिन्नत और भैरव के होने का अर्थ समझ चुकी थी। इनके जरिये मिलने वाले सेवा-सम्मान उसके जीने के अनिवार्य पहलू बन गये थे। उसने गाँव छोड़ने से इनकार करते हुए कहा कि जब तक ये लोग हैं, हम यहाँ अकेले नहीं हैं। जकीर को जिन परिस्थितियों ने मारा है, उनके खिलाफ चलनेवाली मुहिम की मै चश्मदीद गवाह रहना चाहती हूँ।'
जकीर की खुदकुशी से तौफीक मियाँ को यों लगा जैसे उन्हें आसमान की ऊंचाई से उठाकर किसी ने नीचे पटक दिया हो। वे भागे-भागे गाँव पहुँचे । शहर जाने के बाद गाँव में जकीर ही था जिससे उनकी गहरी छनती थी और वे उसे बहुत प्यार करते थे। उनमें वैचारिक समानता थी और वे गाँव में उसे अपना प्रतिबिम्ब मानते थे। जकीर की अम्मा, सल्तनत और भैरव की अधीरता को उन्होंने ढाँढ़स दिया। कहा कि नहर के लिए आंदोलन को तेज करना अब जरूरी है। रणनीति क्या होनी चाहिए, इस बारे में उन्होंने विस्तार से चर्चा की। इस दिशा में अब तक जो कुछ किया गया था उसकी समीक्षा करते हुए उन्होंने उनकी सराहना की। आश्वासन दिया कि वे भी जल्दी ही इससे पूरी तरह जुड़ने की मोहलत निकालने जा रहे हैं।
जकीर के मरने से इदरीश को मानो मुँहमाँगी मुराद मिल गयी। बहुत खुश हुआ वह। निकहत के सामने ठहाका लगाते हुए उसने मुँह चिढ़ाया, 'तुम्हारा हाथ थामनेवाला इकलौता आशिक मर गया निकहत। अच्छा हुआ वह खुद ही मर गया...नहीं तो उसे मैं मार देता। अब तुम क्या करोगी, बदजात औरत? '
निकहत पहले ही एकदम पस्त थी। उसके अंदर पैदा हुआ अनिश्चय का भूचाल अब तक थमा न था। वह छुप-छुप कर कई किश्तों में रो चुकी थी। इदरीश उसके कटे पर नमक डाल रहा था। उसने बिफरते हुए कहा, 'जकीर के बाद अब मैं खुद भी मर जाऊँगी। बर्छी की तरह चलनेवाली तुम्हारी जुबान एक तिल मुझे गवारा नहीं है। मैंने फिर से दो पुड़िये चूहे मारने की दवा खरीद ली है। इस बार किसी भी सूरत में यह दवा बेकार नहीं जायेगी। इससे या तो तुम मरोगे या मैं मरूँगी।'
इदरीश ठगा रह गया। हमेशा मुँह सिलकर दुबकी-सहमी रहनेवाली इस औरत की यह मजाल और ऐसा सख्त तेवर। उसे यकीन हो चला कि जरूर अब यह कुछ कर गुजरेगी।
इदरीश ने जरा नरम पड़कर गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए कहा, 'तू आखिर चाहती क्या है?'
'तुमने हम तीन बहनों पर जुल्म ढाये हैं...मैं तुमसे नफरत करती हूँ और तुम्हारी शक्ल भी नहीं देखना चाहती। तुमसे निजात पाने के लिए मैं या तो मौत चाहती हूँ या तुम्हारी नजरों से दूर होना चाहती हूँ।'
'ठीक है...मैं भी ऊब गया हूँ तुमसे। अब तुममें रखा ही क्या है कि मैं तुम्हें रोककर रखूँ। जा, आज से मैं तुम्हें आजाद करता हूँ। जकीर तो अब है नहीं, मुझे चिढ़ उसी से थी। देखता हूँ कि तुम्हें अब कौन मरदूद पनाह देता है...जा, निकल जा मेरे घर से।'
निकहत ने एक पल की देर नहीं की और घर से सरपट निकल गयी। गाँव की गलियों में लोग उसे आजाद जाते हुए घूर-घूर कर एक अनहोनी की तरह देखते रहे और अर्थ टटोलते रहे।
निकहत जब लतीफगंज में घर पहुँची तो जकीर की अम्मा के गले लगकर बिलख-बिलख कर रो पड़ी। जकीर से उसका अब तक कोई रिश्ता नहीं बना था, फिर भी यों लग रहा था कि आज वह सचमुच की बेवा हो गयी।
अपने आँसुओं पर काबू करते हुए अम्मा ने कहा, 'तूने आने में बहुत देर कर दी, निकहत। जकीर कहता तो नहीं था लेकिन जब पगडंडी पर दूर तक उसकी आँखें बिछ जाती थीं तो हम समझ जाते थे कि वह जरूर तुम्हारे ही आने का इंतजार कर रहा है।'
'मेरा तो करम ही फूटा है, ममानी। खुदा ने मेरी तकदीर ही नहीं बनायी कि किसी का सच्चा प्यार मुझे हासिल हो। काश, मैं एक दिन के लिए भी उसकी हो जाती। यह मलाल मुझे जिंदगी भर सालता रहेगा।'
'खैर बेटी...जकीर तो नहीं है...लेकिन तुम्हारे लिए इस घर में उसकी बनायी जगह अब भी महफूज है।'
'मैं इस घर को छोड़कर अब कहीं नहीं जाऊँगी, ममानी।'
सल्तनत को बहुत दिलासा हुआ कि दोजख से निकलकर निकहत वापस आ गयी।
भैरव और सल्तनत ने निष्कर्ष निकाला था कि जकीर की मौत सिर्फ किसी के दोस्त या बेटे या भाई की मौत नहीं है, बल्कि यह धरती के सच्चे बेटे उस किसान की मौत की सूचना है जो पूरी आबादी के लिए राशन उगाता है और पूरी दुनिया की भूख को करारा जवाब देता है। युगों से सहनशीलता की प्रतिमूर्ति माना जाने वाला यह किसान जब असह्य होकर आत्महत्या करने लगे तो निश्चित तौर पर यह हुकूमत के बद से बदतर होने की इंतहा है।
दोनों ने मिलकर तय किया कि अब हमें उस अगले चरण की कार्रवाई करनी होगी जिसे शांतिपूर्ण संघर्ष का अमोघ अस्त्र माना जाता है।
सल्तनत ने कहा, 'आमरण अनशन पर मैं बैठूँगी...बाकी सारा काम तुम सँभालेगे...सबसे संपर्क साधना, लोगों को एकजुट रखना, बयान देना, अफसरों-नेताओं से बात करना।'
'नहीं सल्तनत, यह सारा काम कुछ साथियों की मदद लेकर तुम करोगी...आमरण अनशन पर मैं बैठूँगा।'
दोनों में इस बात को लेकर देर तक हुज्जत होती रही। दोनों ही एक-दूसरे को भूखे-बेहाल देखने की कल्पना नहीं कर पा रहे थे।
'तुम्हें भूखा-प्यासा रहना पड़ेगा...लाचार, कमजोर, अस्वस्थ, कृशकाय और बदरंग हो जाओगी...मुझसे देखा नहीं जायेगा तुम्हारी यह हालत।'
'तुम क्या समझते हो तुम्हारी ऐसी हालत मुझसे देखी जायेगी? कभी नहीं। अनशन पर मैं ही बैठूँगी...यह मेरी जिद है। तुम अपनी सल्तनत को औरत जानकर बहुत कोमल, मासूम और मुरझा जाने वाली छुईमुई समझ रहे हो न...तो मैं तुम्हें दिखा दूँगी कि मुझमें भी बर्दाश्त करने की ताकत है।'
'इदरीश की ज्यादती सहते हुए मैं तुम्हें देख चुका हूँ चन्द्रमुखी कि मेरी सल्तनत जहाँ जीवटता और तरलता की निर्झरणी है वहीं उसमें चट्टान जैसी सख्ती, जुझारूपन और जीवटता भी है। इसीलिए तो चाहता हूँ कि तुम पूरी मुहिम की बागडोर सँभालो और अनशन पर मुझे बैठने दो।'
'नहीं...नहीं...मुहिम तो तुम्हें ही सँभालनी है। तुमने ही मुझे सब कुछ सिखाया है और अब भी तुम्हारी अक्ल के भरोसे ही चलती हूँ। मुझमें तो बस इतनी ही सिफत है कि तुम्हें देखकर मैं महीनों बिन खाये-पिये रह सकती हूँ।'
'तुम्हें देखकर क्या मैं नहीं रह सकता? '
'नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं देख रही हूँ कि जकीर भाई के इंतकाल के बाद पहले ही तुम बहुत परेशान हो। कितने दुबले हो गये हो...पता भी है तुम्हें? हरदम कुछ न कुछ सोचते रहते हो।'
'तुम्हें तो यों ही लगता है कि मैं दुबला हो गया हूँ। इसीलिए पता नहीं क्या-क्या खाने के लिए मुझे देती रहती हो, लेकिन खुद का खयाल कभी नहीं रखती। दुबली तो तुम स्वयं ही हो गयी हो। मैं क्या यह नहीं जानता कि जकीर की याद तुम्हें भी जार-जार रुला देती है। कई बार मैंने देखा है कि तुम अकेले बैठे रो रही हो।'
'तुम भी तो रोते हो...यह क्या मुझे मालूम नहीं है? कल बाउजी आये थे। उन्होंने मुझसे कहा कि भैरव को समझाओ बेटी...जकीर तो कम्बख्त बेवफाई करके चला गया...अब उसके लिए और कितने आँसू बहाये जायेंगे? '
आँखें भर आयीं भैरव की, 'मैं क्या करूँ, सल्तनत...उसके बिना लगता है मैं भी आधा मर गया हूँ।'
'मुझे भी यह नहीं भूलता कि हमारी मुहब्बत की बेल का वह एक मजबूत सहारा था। हमारे लिए क्या नहीं किया उसने...कौन-सी जोखिम नहीं उठायी।' कहते-कहते सल्तनत भी सुबकने लगी।
भैरव सल्तनत की आँखें पोंछने लगा और सल्तनत भैरव की।
तय हुआ कि सल्तनत ही अनशन पर बैठेगी।
समान विचारधारा के साथियों, कार्यकर्ताओं और किसानों की एक सभा करके इस निर्णय के पक्ष में यथासंभव एक राय बनायी गयी। सभी प्रशासनिक महकमों और सरकारी मशीनरियों को सूचित करने के लिए एक प्रपत्र तैयार किया गया जिस पर ज्यादा से ज्यादा हस्ताक्षर एकत्रित किये गये।
भैरव ने तौफीक मियाँ को इसकी इत्तिला कर दी।
नहर का मुख्यालय, जहाँ उसका संचालन कार्यालय और मुख्य संयंत्र अवस्थित था, के पास एक छोटा शामियाना लगाया गया और उसमें नहर के जीर्णोद्धार से संबंधित माँगों के अनेक पोस्टर और बैनर टाँके गये। नीचे एक दरी बिछायी गयी जिस पर बैठकर सल्तनत ने आमरण अनशन शुरू कर दिया।
एक दिन...दो दिन...तीन दिन...चार दिन...पाँच दिन...। सल्तनत बिना अन्न-पानी के बैठी रही। लोग आ-आ कर नारेबाजी कर जाते...लेकिन आवाज कारगर नहीं हो रही थी। जिन कानों तक इन्हें पहुँचनी थी वे जंग खाये किसी पुराने कपाट की तरह बंद थे। कहीं से कोई इसकी परवाह करने वाला नहीं था। सल्तनत की हालत बिगड़ती जा रही थी। निकहत और भैरव उसकी देखभाल करने के नाम पर बस टुकुर-टुकुर ताकते रहते थे और उसकी नाड़ियों को टटोल-टटोल कर थाहते रहते थे।
यह लगभग स्पष्ट हो गया था कि सल्तनत मरे या जिये, कोई यहाँ घास डालने वाला नहीं है। लग रहा था कि पुलिस, प्रशासन और सरकार है ही नहीं इस देश में...और अगर यह सब है भी तो शायद इस क्षेत्र के लोग नागरिक ही नहीं हैं इस देश के।
भैरव को तीन-चार दिनों के बाद ही आभास हो गया था कि यह अमोघ अस्त्र हर आदमी के लिए एक-सा प्रभावकारी नहीं है। उसने कहा, 'सल्तनत, तोड़ दो यह अनशन...तुम्हारी सुधि लेनेवाला कोई नहीं है। एक अंधी-बहरी दीवार से अपना सिर टकराकर मरने से कोई फायदा नहीं। मिलिटेंसी और टेरर की भाषा जिसके पास न हो, उसका कोई सुनने वाला नहीं है। न तुम गांधी हो और न यह सरकार अंग्रेजों की है, इसलिए ऐसे सत्याग्रह निरर्थक हैं। चलो, घर चलें और आज ही से लग जायें एक नये इंतजाम में।'
सल्तनत ने अपनी मद्धम वाणी में उसे आश्वस्त करते हुए कहा, 'हमें अब यह नहीं देखना कि वे अंधे हैं या बहरे...जब हमने मुहिम चला दी है तो बिना अंजाम पर पहुँचे पीछे नहीं हटेंगे। तुम घबराते क्यों हो...मैं इतना आसानी से मरने वाली नहीं हूँ। मैंने कहा था न कि तुम्हें देखकर तो मैं बिन अन्न-पानी के भी आसानी से जी सकती हूँ।'
भैरव का दिल दहल गया था। वह इसे कैसे मनाये? इसे कुछ हो गया तो वह भी एक जीवित लाश ही बनकर रह जायेगा...फिर तो यह मुहिम ऐसे भी नहीं चलेगी।
मनाने की कोशिश भैरव रोज ही करता रहा। छठे दिन तो मानो उसके सब्र की इन्तहा हो गयी, 'बस करो, सल्तनत। नब्बे करोड़ की आबादी वाले इस मुल्क में तुम कीड़े-मकोड़े की तरह एक मामूली इंसान हो। कोई तुम्हें पूछने, मनाने या गिलास भर जूस लेकर अनशन तोड़वाने नहीं आयेगा। तुम मर जाओगी तो उनकी बला से। मैं नहीं रह पाऊँगा सल्तनत तुम्हारे बिना। मेरी खातिर तुम तोड़ दो अनशन। तुम मेरे साथ सलामत रहोगी तो हम दूसरा उपाय निकाल लेंगे।'
'भैरव...मेरे चाँद...मेरे ख्वाब...मेरे नूर...तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो...मैं तो तुम्हारी जन्म-जन्मांतर की साथी हूँ।' सल्तनत की डूबती सी आवाज बहुत रुक-रुक कर निकल रही थी। उसने अपना हाथ उठाकर भैरव के गालों को छू लेना चाहा, लेकिन समर्थ नहीं हो सकी। भैरव ने खुद ही उसकी दोनों हथेलियाँ अपने गालों से सटा लिये।
'भैरव, मैं इतना ही कह सकती हूँ कि तुम्हारे ये स्पर्श मेरे लिए दुनिया के सबसे बड़े सुख के स्रोत हैं। इस अलौकिक स्पर्श के लिए मैं बार-बार जन्म लेती रहूँगी...लेकिन इसके साथ ही नहर की कीमत पर मैं बार-बार मरना भी चाहती हूँ। मैं अपने इस मन का क्या करूँ, भैरव? '
भैरव अपने लिए बनायी प्रकृति प्रदत इस सबसे बड़ी कृपा को अपलक-अवाक देखता रह गया।
सतवें दिन की सुबह अप्रत्याशित रूप से एक सरकारी जीप आयी जिससे प्रखंड विकास पदाधिकारी, अंचलाधिकारी, प्रखंड के डाक्टर तथा चार सशस्त्र सिपाही उतरे।
डाक्टर ने सल्तनत की नब्ज टटोलकर तथा स्टेथिस्कोप लगाकर जांच की और आपस में मंत्रणा की।
सल्तनत ने कहा, 'अभी मैं पूरी तरह ठीक हूँ...आपलोग चिन्ता न करें, मेरे मरने में अभी काफी देर है।'
अंचलाधिकारी ने कहा, 'डीसी की ओर से नहर के बारे में पूरी रिपोर्ट लिखकर सरकार को भेजी जा चुकी है। कार्रवाई जल्दी ही शुरू होगी...आप उपवास खत्म कर दें।'
भैरव ने सहमत होते हुए कहा, 'सल्तनत, ये लोग कह रहे हैं कि कार्रवाई जल्दी ही शुरू होगी...अनशन तोड़ दिया जाये।'
सल्तनत ने मंद स्वर में कहा, जैसे बहुत दूर से आती हुई आवाज हो, 'सच-सच बतलाना...तुम्हें इनके कहने पर भरोसा है? '
भैरव ने अपनी गर्दन नीचे झुका ली।
सल्तनत ने फिर कहा, 'मैं यह अनशन तभी तोड़ सकती हूँ जब उपायुक्त लिखकर आश्वासन दें कि एक महीने में कार्रवाई पक्के तौर पर शुरू हो जायेगी। मैं जानती हूँ इनका इस तरह गोल-मटोल कहना एक धोखा है।'
बी.डी.ओ. ने अफसरी अंदाज अख्तियार कर लिया, 'जो हमें कहना था हम कह चुके। हम आपलोगों को कल दोपहर तक का समय देते हैं...अगर आपलोगों ने खुद ही समाप्त नहीं कर दिया तो शाम को प्रशासन बल प्रयोग करने के लिए मजबूर हो जायेगा।'
जीप धूल उड़ाती हुई चली गयी।
सल्तनत के होठों पर व्यंग्य की एक अस्फुट-सी मुस्कान तिर आयी। पूछा उसने, 'हुँह...धमकी देकर चले गये न।' उसकी दृढ़ता जैसे और भी पुख्ता हो गयी।
भैरव हो लगा कि यह एक नुस्खा हो सकता है उसे डिगाने का, 'धमकी नहीं, सल्तनत। ठीक ही कहा उन्होंने। कार्रवाई वे जरूर करेंगे, तुम अब मान जाओ। इनके आने से हमारी इज्जत भी बच गयी। कोई यह तो नहीं कहेगा कि सरकार ने हमारी नोटिस तक नहीं ली।'
'भैरव, मैं जानती हूँ कि मुझे बचाने के लिए इन झूट्ठों, फरेबियों और धोखेबाजों का तुम समर्थन कर रहे हो। मैं जानती हूँ कि महज खानापूरी करने आये थे ये लोग। मैंने अनशन ढोंग या दिखावा करने के लिए या किसी लोभ-लालच में नहीं किया है कि इज्जत बचाने के नाम पर किसी के मुँह छूने भर से पिंड छुड़ाकर राहत की साँस ले लूँ। मेरे अनशन तोड़ देने से इतने दिनों तक किये गये संघर्ष का कोई मतलब नहीं रह जायेगा। फिर तो अनशन का न शुरू होना ही अच्छा था।'
सल्तनत ने बहुत ठहर-ठहरकर अपनी बातें कही थीं, जिससे लगता था कि बोलने की एक-एक बूँद ऊर्जा उसे अपने निस्पंद पड़ रहे जिस्म से निचोड़नी पड़ रही है। भैरव सहमत था कि उसकी कही सारी बातें ठीक हैं लेकिन इस समय वह चाहता था कि किसी भी तरह सल्तनत को आत्मघाती जुनून से उबार लिया जाये। तौफीक को फोन पर उसने सब कुछ बता दिया था और कह दिया था कि वे जल्दी से जल्दी चले आयें। वह मन ही मन कामना करने लगा कि उनके आने तक सल्तनत को कुछ न हो। वे अगर आ गये तो निश्चय ही सल्तनत को राजी करके अनशन खत्म करवा देंगे।
तौफीक एक मजदूर प्रतिनिधि मंडल के साथ किसी सम्मेलन में भाग लेने काठमांडू चले गये थे। उन्होंने बगल के शहर के एक दोस्त को फोन करके खबर की थी कि वे सम्मेलन खत्म होते ही नेपाल से सीधे गाँव ही पहुँचेंगे।
सुबह-शाम दूर-दूर से जाति-संप्रदाय से ऊपर उठकर बड़ी संख्या में लोग आ रहे थे और अपना समर्थन जता रहे थे। सिर्फ एक जाति थी टेकमल की जिसके लोग इक्के-दुक्के ही आ रहे थे। पता नहीं कौन क्या कहकर उन्हें बरगलाये जा रहा था। शायद टेकमल और उसके लोग समझते थे कि जिसमें टेकमल का प्रतिनिधित्व न हो वह आंदोलन नाजायज है और साथ ही उनके खिलाफ भी।
अनशन की सातवीं रात ठीक-ठाक गुजर जाये, भैरव मन ही मन इसकी प्रार्थना करता रहा। निकहत सारी रात जागकर सल्तनत के सिर सहलाती रही और सिर पर पानी थापती रही। सल्तनत ने उससे अर्द्धचेतावस्था में बड़बड़ाते हुए कहा था, 'निकहत! नहर में पानी आ जाये तो मतीउर को जरूर खबर कर देना...खेतों का आदमी है वह...वहाँ कुली-कबाड़ी का काम कर रहा होगा...जरूर मन नहीं लग रहा होगा उसका...इंतजार होगा उसे हमारे खत का।'
सल्तनत ने थोड़ी देर बाद भैरव को पुकारा, 'भैरव, देखो, नहर के लिए कितने लोग बेचैन हैं। तुम्हारा प्यार अगर इतने बड़े मकसद के लिए बलि चढ़ जाये तो यह कोई बड़ी कीमत नहीं है।'
'नहीं सल्तनत, नहीं,' भैरव की करुण व्यग्रता तीब्र हो गयी थी, 'यह मेरे साथ सरासर नाइंसाफी होगी। तुम मेरी जिंदगी हो...मेरी दुनिया हो। तुम नहीं रहोगी तो मेरी दुनिया ही खत्म हो जायेगी।'
सल्तनत भीतर से पूरी तरह जैसे तरल हो गयी, 'मेरे दोस्त...मेरे सनम...मेरे हमदम...मेरे महबूब।' क्षीण सी हँसी हँसते हुए सल्तनत जैसे किसी शांत-स्निग्ध जलधारा की तरह बहने लगी, 'एक बहादुर आदमी बड़ी से बड़ी चीज के खो जाने पर भी पस्त नहीं होता। इस आंदोलन को रुकना नहीं चाहिए। नहर में पानी आ जाये तो उस पानी से मुझे जलांजलि देना, मेरी आत्मा तृप्त हो जायेगी।'
अपने फेफड़े में कुछ साँसें सँजोकर उसने निकहत को पुकारा, 'मेरी बहन...एक जिम्मेवारी सौंप रही हूँ। तुम भैरव को सँभालना...इसकी आग बूझने न पाये...इसे सुलगाकर रखना।'
सल्तनत के निस्तेज और धीमा होकर बोलने के अंदाज से साफ लग रहा था कि अब उसके टिके रहने की उम्मीद तेजी से धुँधली पड़ने लगी है। भैरव खुद को रोक न सका और उसकी आँखें जार-जार बहने लगीं। बहुत सारे कार्यकर्ता भी टेंट में मौजूद थे...सबके रोयें एक आसन्न अनिष्ट को देखकर सिहर गये।
भैरव के लिए रात बहुत भारी होकर गुजरी। एक-एक पल पहाड़ जैसा साबित हो रहा था। सल्तनत की बिगड़ती हालत और धीरे-धीरे मौत के मुँह में सरकते जाने की खबर जंगल में आग की तरह पूरे इलाके में फैल गयी। सुबह प्रभुदयाल, मिन्नत, जकीर की अम्मा सहित हजारों कार्यकर्ता और शुभचिंतक उमड़ आये। सबकी एक ही ख्वाहिश थी...तौफीक जल्दी से जल्दी आ जायें और सल्तनत को समझा लें...सल्तनत अनशन तोड़ दे...इस तरह बेमौत मरने से कोई फायदा नहीं।
शुक्र है कि सबकी दुआ काम आ गयी। तौफीक आ गये और बगल के शहर से अपने साथ एक डाक्टर भी लेते आये। आते ही उन्होंने सल्तनत के सामने अपना इरादा दृढ़ता और बेबाकी से रख दिया, 'एक गूँगी, बहरी और नाकारा व्यवस्था के समक्ष इस तरह मरना कोई मूल्य नहीं है, सल्तनत...यह सरासर एक पागलपन है। तुम्हारे इस तरह फना हो जाने से कुछ भी हासिल नहीं होनेवाला है...बल्कि कुछ हासिल करने के लिए तुम्हारा जीना ज्यादा जरूरी है।'
सल्तनत ने आँखें खोलीं...तौफीक को देखा और फिर स्वतः ही उसकी आँखें बंद हो गयीं। जैसे उसने अपने मामू को तसलीम किया और फिर से अपने इरादे पर डट गयी।
तौफीक ने उसकी मंशा ताड़ते हुए कहा, 'सल्तनत...अगर तुम मेरा कहा नहीं मानोगी तो देखो तुम्हारे पहले मैं और यह भैरव मौत को गले लगा लेंगे। तुम्हें मरते हुए हम देखें, इसके पहले तुम्हें देखना होगा हमें मरते हुए...।'
सल्तनत ने फिर आँखें खोलीं और बहुत मोह से निहारा अपने अजीज मामू को...भैरव को...अम्मी को...प्रभुदयाल को...जकीर की अम्मा को। सबके चेहरे पर एक ही आरजू थी...एक ही ख्वाहिश थी...एक ही ललक थी कि तौफीक का कहा वह मान ले। उसने हलका-सा मुस्कराते हुए अपनी आँखों में कृतज्ञता का भाव भर लिया कि उसे इतने-इतने लोग चाहनेवाले हैं। गर्दन हिलाकर सबकी भावनाओं के अनुकूल अपनी रजामंदी जाहिर कर दी।
'डाक्टर, आप ग्लूकोज चढ़ाइए...।' तनिक मुदित होते हुए कहा तौफीक ने।
चिंतातुर भैरव के सामने जैसे बिछा हुआ एक अंतहीन अँधेरा एकबारगी छँट गया। सबके चेहरे के मातमी रंग काफूर होने लगे। सभी चाहते थे सल्तनत को बचाना...सल्तनत बच गयी।
टेकमल को एक करारा झटका लगा। वह मन बनाये बैठा था कि रास्ते का एक बड़ा रोड़ा अपने-आप ही टल जायेगा। उसने तौफीक के नाम कई गालियाँ बड़बड़ा दीं...यह दुष्ट लगता है फिर धीरे-धीरे यहाँ अपना पाँव जमाने में रुचि लेने लगा है। यह न आता तो वह जिद्दी और जाहिल लड़की मौत को अपने गले लगा चुकी होती और जन-कल्याण का सारा बुखार उतर चुका होता। टेकमल ने तो लगभग अपनी सारी चालें चल दी थीं। सभी संबंधित नौकरशाहों को समझा दिया था कि उसे बचाने के प्रति चिंतित होने की जगह ऐसी परिस्थिति बना दी जाये कि उसके मरने का इरादा और दृढ़ हो जाये। उसका मरना उसकी और प्रशासन दोनों की सेहत के लिए फायदेमंद है। कुछ भी आक्षेप आयेगा तो अपने रुतबे का इस्तेमाल करके वह सबका बचाव करेगा। टेकमल का दुर्भाग्य कि उसकी मुराद पूरी नहीं हुई। लेकिन वह कहाँ बाज आनेवाला था अपनी जाति दिखाने से। उसने इदरीश को अपने घर बुलावाया। इदरीश समझ गया कि शायद वक्त आ गया है कि बिछी हुई बिसात पर एक मोहरे की तरह वह खुद का इस्तेमाल कर ले। क्या पता उसकी खस्ताहाल माली हालत को कुछ राहत मिल जाये। टेकमल जैसे कद्दावर नेता द्वारा उसका बुलाया जाना उसके लिए एक बड़ी घटना थी।
बाअदब सलाम करते हुए उसने अपना परिचय दिया, 'हुजूर, मुझ खाकसार को इदरीश कहते हैं, आपने तलब किया मैं हाजिर हूँ।'
टेकमल अपने कुछ दरबारियों और बैठकवाजों के बीच घिरा था। इदरीश को उसने यों देखा जैसे उसका कद नाप रहा हो और वजन तौल रहा हो, 'तो तुम हो मियाँ इदरीश! यार, देखने में तो तुम वाकई काम के आदमी लगते हो।'
'आप हुक्म तो करके देखिए...काम मिलता नहीं इसलिए करूँ क्या? '
'मियाँ, पहले तो तुम अपना घर ठीक करो। सुना तीसरी बार तुम्हारा घर उजड़ गया और तुम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह गये! '
'क्या करता जनाब, एक जकीर था जिसे मेरी बददुआ ने तो मिटा दिया, दूसरा भैरव है, तीसरा तौफीक मियाँ है और चौथी जकीर की अम्मा है जो मेरी खुशियों के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। जकीर का घर पनाहगाह है मुझसे खार खानेवालों और मुझे मिटानेवालों का।'
'सुनो, तुम्हारे जो दुश्मन हैं, वे ही अब मेरे भी दुश्मन हैं। तुम अपने हक की लड़ाई लड़ो, जो मदद चाहिए मैं दूँगा। हाफिज करामत को मैंने समझा दिया है, तुम उनसे मिलो...अपने कौम की पंचायत लगाओ। पंचायत तुम्हें इंसाफ देगी। तुम्हारी दो-दो बीवियाँ तुम्हें छोड़कर अपनी मरजी से आवारागर्दी कर रही हैं । पंचायत उन पर दबाव डालेगी...सख्ती बरतेगी कि सल्तनत और निकहत तुम्हारे घर जाकर रहें और ऐसा करने के लिए वे तैयार नहीं हुए तो उन्हें शरण देनेवाले तौफीक और जकीर की अम्मा को कड़ी कार्रवाई से होकर गुजरना होगा। बिरादरी से दरबदर होने की सजा झेलनी होगी। अगर इससे भी उन पर कोई असर नहीं हुआ तो कुछ और भी संगीन शामतें उन्हें झेलनी पड़ेंगी। इसलिए तुम खुद को अब कमजोर और अकेला मत समझो...डटकर और तनकर खड़े होने का मन बनाओ...। '
अपनी तरफदारी में इतने बड़े आदमी को बोलते देख इदरीश का चेहरा श्रद्धासिक्त हो उठा। उसने स्वर में चापलूसी भरते हुए कहा, 'हुजूर, मुझे यकीन नहीं हो रहा कि आप जैसी बड़ी सियासी शख्सियत मुझ नाचीज को अपनी शागिर्दी बख्श रहा है। मैं तो इस रहमोकरम से पामाल हो जाऊँगा, हुजूर।'
'देखो इदरीश, तुम्हारा जो हाल है उसमें कुछ बचा नहीं है...लगभग ज्यादातर खत्म हो चुका है। इसलिए तुम्हें आरपार की कार्रवाई को अंजाम देने के लिए तैयार होना होगा। पत्ता फिट बैठ गया तो तुम्हारा घर फिर से आबाद हो जायेगा, नहीं तो बरबाद तो हो ही गये और क्या होगे। जो जितना बड़ा जोखिम उठाता है उसका हासिल भी उतना ही बड़ा होता है और नुकसान भी उतना ही बड़ा।'
'हुजूर, मैं समझा नहीं। पहेलियों की भाषा में नहीं, साफ-साफ बताइए। मुझे करना क्या होगा।'
'करने को तो तुम्हें हत्या भी करनी पड़ सकती है...बोलो, क्या कर सकोगे ? '
'हत्या करना मेरे लिए कोई जज्बात और उसूल का मामला नहीं है। आप अगर मेरे गुजरे कल पर एक नजर डालें तो पायेंगे कि बेरहमी का पहाड़ा पढ़ने में मैंने कोई कोताही नहीं की। तीनों बहनों के बस प्राण ही नहीं निकाल पाये वरना हत्या करने से कहीं ज्यादा सितम ढाये हैं उन पर। हत्या से बस इसीलिए मैं बचता रहा, चूँकि जेलखाना से मुझे बहुत डर लगता है।'
'डरने की कोई बात नहीं है, इदरीश...सबकी जेल एक समान जेल नहीं होती। रुतबे और हैसियत के अनुसार एक ही जेल अलग-अलग आदमी के लिए अलग-अलग जेल होती है। कितने ऐसे लोग हैं जिनके लिए जेल बाहर से भी निरापद और आरामदेह स्थल है। तुम्हें अब चिंता नहीं करनी है, अगर जेल जाना भी पड़ जाये तो तुम घाटे में नहीं रहोगे...बाहर से कहीं बेहतर ठाटबाट और परवरिश वहाँ तुम्हें मुहैया करा दी जायेगी।'
इदरीश की नसों में जैसे कोई ऊर्जा प्रवाहिनी ड्रग इंजेक्ट कर दिया गया, 'मैं समझ गया, मेरे आका...अब आपको कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है, आप देखिएगा, काम पूरा कर लेने के मामले में मैं जिन्न को भी पीछे छोड़ दूँगा।'
एक लम्पट और नाकारा टाइप आदमी का रातोंरात बाजार भाव इस तरह चढ़ सकता है, उसकी बिरादरी में किसी ने नहीं सोचा था। टेकमल की सिफारिश और हिदायत सुनकर हाफिज करामत ठगा रह गया। टेकमल अर्से से चुनाव जीतता आ रहा था और यहाँ का एक नामवर हस्ती के तौर पर जाना जाता था। करामत को याद नहीं पड़ता कि चुनाव के वक्त वोट माँगने के दरमियान हुए चंद आमना-सामना के अलावा उससे कभी कोई गुफ्तगू हुई हो। टेकमल ने हमेशा अपने को इस तरह बनाकर रखा कि आसानी से वह हर किसी के लिए उपलब्ध न हो। करामत को समझते देर न लगी कि इदरीश जैसे नामाकूल और नामुराद लफाड़ी के लिए नेता क्यों इतना खैरख्वाह बन गया है। लेकिन उसे क्या...सल्तनत के बिंदासपन से वे एक अर्से से जले-भुने तो थे ही...आज मजबूत खूँटे का सहारा मिल गया है तो उसकी आड़ में कसर निकाल ही लिया जाये।
करामत ने बिरादरी के मातवर किस्म के जरा कट्टर, लकीर के फकीर और मजहबपरस्त लोगों की एक पंचायत बुलायी और सिखा-पढ़ाकर इदरीश से फरियाद और इंसाफ की गुहार लगवायी। इदरीश ने कहा, 'आप सभी लोग गाँव के खैरख्वाह और मानिंद हजरात हैं। मेरे साथ लंबे समय से एक सोची-समझी साजिश के तहत ज्यादती की जा रही है, इसकी वजह से मेरी जिंदगी बरबाद होने वाली है। अपनी ही बिरादरी के कुछ लोग हैं जो मुझे मिटा देने पर आमादा हैं। मेरी पहली बीवी का जब इंतकाल हो गया तो उसकी बहन मेरी दूसरी बीवी बनायी गयी। आप जानते हैं कि उसे खामखा मेरे गले मढ़ा गया। एक गैरमजहब लड़के के साथ उसकी आशनाई थी, जिसके बारे में आज पूरा इलाका जानता है। उसने मेरे मुँह पर कालिख पोतकर मेरा घर छोड़ दिया और जकीर के घर को पनाहगाह बना लिया। जकीर तो अब नहीं है लेकिन उसकी वालिदा अब उसका पैगम्बर बन गयी है। भैरव के लिए वह घर खुल्लमखुल्ला ऐय्याशगाह है। तौफीक मियाँ उसके बहुत बड़े दानिशमंद हैं। मुझे चुप रखने के लिए उसकी तीसरी बहन से मेरी निकाह करवाकर मुझे फिर फँसा दिया गया। इस तीसरी का मरहूम जकीर से नैनमटक्का था, चुनांचे वह भी मेरी मिट्टी पलीद कर मेरे घर को ठोकर मार गयी और अपने महफूज अड्डे पर आ गयी। आप सबों से मेरी दरख्वास्त यह है कि इस गाँव में कोई कायदा-कानून और अनुशासन है तो मुझे इंसाफ दिलायें। आपलोग इस गाँव के और अपने समाज की नुमाइंदगी करनेवाले मोहतरम शख्सियत हैं। मेरा घर दो-दो बीवी के रहते बीरान और उजाड़ है।'
हाफिज करामत उसकी ताईद करते हुए सबको भड़काने के अंदाज में कहने लगा, 'अगर कोई सख्त कार्रवाई नहीं की गयी तो गाँव की फिजा में एक गलत संदेश जायेगा और इस तरह की बेहया और ढीठ कारगुजारी करने में किसी को कोई डर महसूस नहीं होगा।'
पंचायत में यह पूछने वाला कोई नहीं था कि सिक्के में दूसरा पहलू भी होता है और उस पहलू की भी शिनाख्त होनी चाहिए। चूँकि इस पंचायत को करंट कहीं और से मिल रहा था और उसका स्विच भी वहीं से आपरेट हो रहा था, इसलिए फैसला भी पहले से ही तय था। पंचायत में सल्तनत, निकहत, जकीर की अम्मा और तौफीक मियाँ बुलाये गये। करामत ने इदरीश के पक्ष को निर्दोष ठहराते हुए एकतरफा आरोप तय कर दिया और इंसाफ का दम भरते हुए हिदायत दे दी, 'इदरीश के साथ जो कुछ हुआ वह शर्मनाक है। अपने कौम के लिए यह एक कलंक है। सल्तनत और निकहत को जो लोग भी तरजीह देकर भड़काने का काम कर रहे हैं, वे अपनी हरकत से बाज आयें। सल्तनत और निकहत को पंचायत एक और मौका देना चाहती है। ये दोनों बिना किसी हील-हुज्जत के इदरीश के पास जाकर रहें। यह सरासर एक संगीन जुर्म है कि शौहर के रहते किसी और शख्स से इश्क लड़ाया जाये...और वह भी किसी गैर मजहब के आदमी के साथ।'
लगा जैसे कि सल्तनत की आँख में अंगारे समा गये और त्योरी में हजार कांटे उग आये, 'यों तो मैं आपके ऐसे किसी अनाप-शनाप इल्जाम का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हूँ, लेकिन आप जानते हैं कि चुप रह जाना भी मेरी फितरत नहीं है और वह भी आपलोग जैसे अक्ल के दुश्मनों के सामने। आप भाड़े के टट्टू बनकर जिस भेड़िए की वकालत में आज निर्लज्ज होने पर तुले हैं उसकी शराफत और दरियादिली पर आपको इतना ही एतबार है तो अपनी किसी बेटी से निकाह करवा दीजिए, फिर असली किस्सा आपको मालूम होगा। आपको हक किसने दिया कि आप इंसाफ की कुर्सी पर......। '
'रुको सल्तनत, आज इन्हें जवाब मुझे देने दो।' अपने इरादे को चट्टानी बनाकर जकीर की अम्मा ने हस्तक्षेप किया, 'मेरी आँखों पर भी पहले धुँधला चश्मा चढ़ा था और सल्तनत मुझे गुनहगार लगती थी लेकिन जब इसके जिस्म पर जुल्मोसितम की वहशी परतें बिछी देखीं और फिर यही हाल निकहत के साथ पेश होते पाया और फिर जब जन्नत के खौफनाक अफसाने से रूबरू हुई तो इस मुए इदरीश को जल्लाद मान लेने में मुझे जरा-सा भी शुब्हा न रह गया। सल्तनत का एक पाँव इसकी दरिंदगी की भेंट चढ़ गया है और आपलोग चले हैं इसे बेकसूर फरिश्ता साबित करने? इतना बेरहम तो कसाई भी नहीं होता। इस तरह की निहायत जालिम बकवास करते हुए आपलोगों को शर्म आनी चाहिए...हममजहब और हमबिरादर होकर इदरीश ने इन तीनों बहनों के साथ जो शातिराना सलूक किया, उससे लाख गुना बेहतर है वह भैरव जिसके दिलो-जां का पैमाना हमदर्दी और मुहब्बत से हमेशा छलका-छलका दिखाई पड़ता है। आपलोग कान खोलकर सुन लीजिए...इन्हें कोई अलग नहीं कर सकता और इनका आशियाना बेशक मेरा घर बना रहेगा। मैं किसी से नहीं डरती। मेरे मरहूम बेटे जकीर की जो ख्वाहिश थी, वह अब मेरी ख्वाहिश है। उसके जो ख्वाब थे वे मुझे भैरव, सल्तनत और निकहत की आँखों में दिखते हैं। गाँव के दुख और तंगहाली के लिए अपनी जान देनेवाला इनके सिवा कौन है इस खुदगर्ज माहौल में। आपलोग इस गाँव के कोई अन्नदाता नहीं है कि आप फरमान जारी करें और कोई उसे तवज्जह दे।'
'भूलो मत कि इस नाफरमानी और बदगुमानी पर तुमलोगों को बिरादरी और कौम से दरबदर किया जा सकता है।'
'बिरादरी और कौम तुम्हारी जागीर नहीं है, करामत। मस्जिद के मुलाजिम होकर तुम कोई खुदा नहीं हो गये हो। चुपचाप आयतों और कलमों तक ही अपने को महदूद रखो तो इज्जत बची रहेगी। सल्तनत, निकहत और चाची जान, चलिए यहाँ से। इनके साथ माथा खराब करना समय की बर्बादी है।' तौफीक ने धारदार कटार की तरह पलट वार करते हुए कहा और फिर वे चारों घृणा और हिकारत से इन्हें घूरते हुए चले गये। पंचायत वाले सभी हक्के-बक्के रह गये। इन्होंने ऐसे करारे और मुँहतोड़ जवाब की उम्मीद नहीं की थी...शायद सोचा था कि फरमान जारी होते ही वे बिलबिलाने और घिघियाने लगेंगे। इदरीश के तो होंठ में जैसे कील ठुँक गयी थी।
टेकमल पुराना खिलाड़ी था और जूते खा-खाकर भी हँसते रहने और अपनी आदत न छोड़ने के काइयेंपन का एक खतरनाक नमूना था। उसने सबको बहुत घिनौनी झाड़ पिलायी कि मुट्ठी भर सिरफिरे लोग उन्हें दुत्कार, फटकार व ललकार कर चले गये और इतनी बड़ी संख्या में होकर भी टुकुर-टुकुर मुँह ताकते रह गये। यह नहीं कि सब मिलकर उनकी बाँह मरोड़ें और जमीन पर पटक दें।
टेकमल ने भैरव के पिता प्रभुदयाल को बुलाया और उसे बैठाने के भी शिष्टाचार को नजरअंदाज कर यों कहने लगा जैसे वह खुद दूध का धुला एक सर्वाधिकारप्राप्त हुक्मरान हो। कहा, 'प्रभुदयाल, तुम्हारा बेटा जो कुछ कर रहा है उससे तुम अच्छी तरह वाकिफ हो। यह आवारागर्दी का इंतहा है कि एक गैर जाति और मजहब की लड़की के साथ उसके घर जाकर ऐय्याशी की जाये और उसे अपने मर्द तक को छोड़ देने के लिए बहका दिया जाये। गाँव के सभी मुसलमान इस शोहदेपन को अपनी इज्जत-हुरमत के साथ एक गलीज खिलवाड़ मानकर अंदर ही अंदर सुलग रहे हैं। अगर इसे रोका नहीं गया तो गाँव के अमन-चैन में कभी भी भयंकर आग लग सकती है जिससे जलकर वर्षों की साझी संस्कृति राख बन सकती है। किसी एक शख्स के कारण इतनी बड़ी तबाही हो, यह हमारे लिए कतई नागवार है। तुम उसे रोकते हो या हम कोई उपाय करें?' उसके लहजे में पर्याप्त ऐंठन और बदतमीजी घुली थी।
प्रभुदयाल ने उसे एक नादान और सिरफिरा समझने की प्रतीति कराने वाली तिरछी मुस्कान मारी और उसकी बुद्धि पर तरस खाते हुए से कहा, 'इस कहावत को पहले मैं सच नहीं मानता था कि तुम्हारे जैसे लोग साठ वर्ष तक नावालिग रहते हैं, आज तुम्हें देखकर मुझे लगा कि साठ की सीमा को सत्तर कर देना चाहिए। वाकई टेकमल भारत का ही लोकतंत्र है कि तुम्हारे जैसा नाकारा और घटिया आदमी विधायक, सांसद और मंत्री बन जाता है। जाति के नाम पर भेड़ियाधँसान जयजयकार का इससे गंदा उदाहरण और क्या होगा? तुम मेरे बेटे....। '
प्रभुदयाल निर्भीकतापूर्वक अपनी बात कह ही रहे थे कि टेकमल के दो खूँखार आदमियों ने दाँत पीसते हुए उनकी बाँहें पकड़ लीं और लगा कि उन्हें उठाकर वे जमीन पर पटक देंगे। प्रभुदयाल ने जरा भी धैर्य नहीं खोया और व्यंग्य से धिक्कारते हुए कहा, 'अपने अड्डे पर बुलाकर एक बूढ़े और अकेले आदमी पर दिखा लो जितनी वीरता दिखानी है। इस हरकत से सच्चाई बदल नहीं जायेगी, बल्कि मैं जो कह रहा था उसकी पुष्टि ही होगी।'
टेकमल ने इशारा किया तो उचक्कों ने उनकी बाँहें छोड़ दीं। उसने धमकाते हुए कहा, 'फिर क्या सोच रहे हो प्रभुदयाल, अपने बेटे को बरजोगे या गाँव में दंगा करवाओगे? '
'मेरे बेटे ने प्यार किया है...और उतना ही प्यार मेरे बेटे से वह लड़की सल्तनत भी करती है। यह सभी लोग जानते हैं, उसके परिवार वाले भी। अगर इसे लेकर मारकाट मचनी होती तो अब तक यह गाँव तबाह हो चुका होता। टेकमल, ऐसे प्यार से दंगा नहीं होता, रिश्तेदारी और रवादारी बढ़ती है। जाति और मजहब के दायरे उनके लिए होते हैं जो प्यार का अर्थ नहीं जानते। मैं भी नहीं जानता था और मुझे भी यह एक गलत काम लगता था लेकिन जब भैरव को मैंने देखा और उसे महसूस किया तो समझ में आया कि प्यार से आदमी छोटा नहीं बड़ा बनता है, टुच्चा नहीं ऊँचा बनता है, उसमें खुदगर्जी नहीं, परमार्थ विकसित होता है। दंगा तो नफरत करने से फैलता है।'
'ठीक है, तुम जा सकते हो...दंगा हुआ या फिर शान्ति भंग हुई तो यह तुम्हारी जिम्मेदारी होगी और तुम बख्शे नहीं जाओगे।'
प्रभुदयाल वहाँ से चल पड़ा लेकिन लगा कि उसके पाँव में कोई भारी पत्थर बँध गया है। उसे चलने में आसानी नहीं हो रही थी। एक अनिष्ट और भय से पैर मन-मन भर के लग रहे थे। तौफीक ने अब गाँव में अपनी धुनी रमा दी। जकीर का घर अब सामाजिक परिवर्तन के लिए विचार-विमर्श एवं कार्य-संचालन जैसी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। दोमंजिले मकान के लंबे-चैड़े क्षेत्रफल का खूब उपयोग होने लगा। उसकी माँ का ऐसा दयामयी और वात्सल्य रूप दिखाई पड़ने लगा कि सभी लोग उसे अम्मा का संबोधन देने लगे। अम्मा ने पूरी आजादी दे दी। वह अब मानने लगी थी कि किसी घर की इससे बड़ी सार्थकता और कुछ नहीं हो सकती। उसका मन लोगों की आमद-रफ्त के कारण हमेशा बनी रहनेवाली चहल-पहल में खूब लग रहा था। पहले वे ज्यादातर अकेले निष्प्रयोजन यों ही लेटी, बैठी, ऊबती और झींकती रहती...समय काटे नहीं कटता। कभी-कभार बस जकीर से दो-चार मिनट बोल-बतिया लिया। अब तो घर का कोना-कोना गुलजार रहने लगा। निकहत उसके एक-एक दुख-सुख का खयाल रखने लगी। उसकी एक-एक सुश्रूषा का मानो वह प्रभारी बन गयी। घर में सब कुछ व्यवस्थित और दुरुस्त हो गया। खाना तैयार होने से लेकर खाने और घर के एक-एक काम के संपन्न होने में एक लुत्फ समा गया। मिन्नत अब काफी सामान्य दिखने लगी। गृहस्थी के कई कामों में वह हाथ बँटाने लगी। अनाज-पानी की कोई किल्लत नहीं थी। तौफीक और जकीर के खेत की बँटाई से काम चलने भर उपार्जन हो जा रहा था। पानी का बढ़िया साधन रहता तो इतनी जमीन से लाखों का अन्न उगाया जा सकता था।
तौफीक मन ही मन आश्वस्त थे कि कुछ न कुछ जरूर सकारात्मक कर गुजरना है। अब गाँव में रहने को वे ज्यादा जरूरी मानने लगे। वे इसे शिद्दत से महसूस करने लगे कि भैरव और सल्तनत ने पूरे इलाके में जो माहौल सृजित किया है, उसे किसी ठोस परिणाम में रूपांतरित करने का इससे अच्छा वक्त नहीं आ सकता। आसपास के पच्चीसों-तीस गाँव के पढ़े-लिखे बेराजगार लड़के उनसे वैचारिक सहमति रखने लगे और किसी भी कार्रवाई में साथ देने के लिए समर्थन जताने लगे। ये लड़के अक्सर यहाँ आने लगे और पढ़ाई से लेकर विभिन्न रिक्तियों, उनके आवेदनों और तैयारियों पर परस्पर जानकारियों और सूचनाओं का आदान-प्रदान होने लगा। वे कुछ करना चाहते थे...कुछ बनना चाहते थे। तौफीक उन्हें रास्ता सुझाने लगे...उन्हें यथासाध्य मदद करने लगे। एक दिन उन्होंने उन लड़कों को संबोधित किया जो एक अर्से से आवेदन पर आवेदन, इम्तहान पर इम्तहान और साक्षात्कार पर साक्षात्कार दिये जा रहे थे...मगर उनका कहीं कुछ नहीं हो रहा था।
'जितनी नौकरियाँ हैं इस देश में उनसे बेरोजगारी दूर नहीं हो सकती। बेरोजगारी सिर्फ और सिर्फ कृषि-कार्य से ही दूर हो सकती है। कृषि ही एकमात्र वह क्षेत्र है जिसमें देश के सारे बेरोजगारों को काम देने की संभावना निहित है। कृषि आज तक अनपढ़ों, जाहिलों और हर जगह से ठुकरा दिये गये वंचितों के लिए हारे का हरिनाम पेशा बनती रही। ऐसा नहीं हुआ कि सचेत चयन के आधार पर कृषि को कोई अपने कैरियर का क्षेत्र बनाये। लेकिन अब वक्त आ गया है कि जिस तरह कृषि के लिए आधुनिक यंत्र और साधन विकसित हुए हैं, इसे सफेद कॉलर जॉब के रूप में अपनाया जाये और समाज एवं तंत्र इसे कार्यालय में बैठकर कुर्सी तोड़नेवालों से कहीं ज्यादा सम्मान की नजर से देखे। किसान धोती और लँगोटी में नहीं फुलपैंट और टाई में ट्रैक्टर चलाकर हल जोते और दौनी करे। वह पर्याप्त शिक्षित और होनहार व्यक्ति हो जो दिमाग लगाकर वैज्ञानिक ढंग से अपना काम करे। उसे उपज का दाम इतना मिलना चाहिए कि वह भी कार में चले और उसके घर में सारे आधुनिक साधन उपलब्ध हों। चूँकि अन्न और फसल से ज्यादा जरूरी कुछ भी नहीं है जीने के लिए।'
'सवाल है तौफीक अंकल कि हमारे पास कृषि करने लायक खेत और साधन भी तो हों।' बी.एससी. पास एक लड़का तारानाथ ने पूछा था। वह पड़ोस के एक गाँव भलुआही का था और भैरव व सल्तनत के विचारों से पूरी सहमति रखता था तथा उसके हर कदम पर साथ था।
तौफीक ने कहा, 'मैं इसी पहलू पर आ रहा था। तुमने ठीक कहा तारानाथ, कृषि करना भी किसी के लिए तभी मुमकिन है जब उसके पास पर्याप्त जमीन और साधन हो। तुम सब जानते हो कि अपने देश की सिर्फ तीस प्रतिशत जमीन ही अब तक कृषि योग्य हो पायी हैं और अब भी चालीस से पचास प्रतिशत परती, बेकार और बंजर पड़ी जमीनें ऐसी हैं जो कृषि योग्य बनायी जा सकती हैं। वर्षा का तकरीबन सत्तर से अस्सी प्रतिशत पानी यों ही बहकर बरबाद हो जाता है। उन्हें अगर संग्रहीत कर पायें तो सिंचाई की समस्या का एक करारा समाधान हो सकता है।'
'आप जो रास्ता बता रहे हैं वो किसी व्यक्तिगत के नहीं सरकार के चाहने से ही तय हो सकता है। यहाँ तो आलम यह है कि जो योजना वर्षों पहले मूर्त होकर जनहित के लिए अनिवार्य और लाभकारी सिद्ध हो चुकी हैं, उन्हें कायम और दुरुस्त रखना मुहाल हो गया है। बनी हुई नहर, गड़े हुए बिजली के खंभे और तने हुए तार, रेल की बिछी पटरियाँ और बने हुए स्टेशन, सड़कें, स्कूल...कुछ भी तो सलामत और व्यवस्थित नहीं रह गया है।' इस बार चन्द्रदेव नामक युवा ने अपनी बात रखी। एम. ए. पास करके वह भी एक लंबे अर्से से नौकरी के लिए अपनी चप्पलें घिस रहा था।
'कुछ भी ठीक नहीं है तभी तो संगठित होकर हमें कार्रवाई करने की जरूरत है। फिलहाल हमें तीन जरूरी कदम उठाने हैं...अगले चुनाव में हमें अपने ऐसे प्रतिनिधि को जिताकर भेजना है जो कम से कम इतना ईमानदार जरूर हो कि जनता की धरोहरों और थातियों को बरबाद और बेकार होने से बचा सके। दूसरा कदम है नहर के अस्तित्व में आने के बाद उपेक्षित और बेमरम्मत होकर बेकाम हो गये अपने गाँव के पुराने जल भंडार, आहरों-पोखरों को फिर से पुनर्जीवित करना जिसमें बरसात का पानी जाकर जमा हो सके। इन्हें काम के लायक बनाना जरूरी है। जल संचित रखने के पुराने तरीकों का आज भी कोई विकल्प नहीं है। तीसरा काम है गाँव के पश्चिम में नदी के किनारे परती और बेकार पड़े एक बहुत बड़े रकबे पर यहाँ के सारे बेरोजगार लड़के, नौकरियों के लिए खाक छानना छोड़कर, मिलकर सहकारी खेती शुरू करें।'
चन्द्रदेव और ताराकांत के जैसे वहाँ लगभग डेढ़ दर्जन लड़के मौजूद थे। तौफीक अपनी बात खत्म कर उम्मीद करने लगे कि कुछ सवाल और कुछ संशय उठाये जायेंगे। जब किसी ने कुछ नहीं कहा तो उन्होंने फिर अपनी बात आगे बढ़ायी, 'तुम सभी जिस तरह चुप हो, यह ठीक नहीं है। तुम्हें भीड़ का अंग नहीं बनना है...तुम्हें किसी का अनुयायी या पिछलग्गू होकर नहीं रहना है, बल्कि हरेक को अगली पंक्ति का ध्वजवाहक प्रतिनिधि बनना है। मेरा काम नेता बनना नहीं बल्कि तुम सबको नेता बनाना है। मैंने जो काम गिनाये...सुनने और कहने में जितना अच्छा है, करने में उतना ही मुश्किल है। बहुत सारे अड़ंगे और जोखिम रास्ते में आयेंगे, जिनका एकमात्र उपचार होगा एकजुटता। एकजुटता और सामूहिक नेतृत्व बहुत जरूरी है, इनके बिना कुछ भी नहीं हो सकता...कुछ भी नहीं। जैसे आज तक नहीं हुआ।'
श्रोताओं में भैरव और सल्तनत भी शामिल थे। भैरव ने कहा, 'बैसाख बीतने वाला है और जल्दी ही बरसात शुरू हो जायेगी। अहरा-पोखरा की बांध को दुरुस्त करने का काम तुरंत शुरू कर देना चाहिए। गाँव के बहुतेरे किसान इस काम में साथ देने के लिए तत्पर हैं। सभी चाहते हैं कि धान की अगली फसल किसी भी तरह मारी न जाये। लगातार मारा झेलते हुए सबकी हालत पतली हो गयी है। कल हम सभी लोग घर-घर जाकर सबको सूचना दे दें...परसों से हमें इस काम में लग जाना है।'
सल्तनत ने कहा, 'हरिजन टोली के लोग भी इस काम में साथ देने के लिए राजी हैं। हालाँकि उन्हें कोई खेत नहीं है...लेकिन हमने समझाया उन्हें कि खेती नहीं होगी...फसल नहीं उपजेगी तो उन्हें जो भी मजदूरी मिलती है, कहाँ मिलेगी? मैं कल उन्हें जाकर खबर दे आऊँगी कि वे कुदाल-गैंता लेकर आहर के पास आ जायें।'
'सल्तनत, वहाँ जो भी हरिजन काम करेंगे, उनके लिए सत्तू का इंतजाम करवा लेना...घर में चना और जौ रखे हुए हैं।' पीछे से जकीर की अम्मा ने कहा।
सल्तनत श्रद्धासिक्त होकर उसे देखने लगी। कहा, 'तुम अन्नपूर्णा हो, अम्मा...जब तक हमारे सरों पर तुम्हारा साया है, कोई भूखा नहीं रहेगा।'
'तुमने ठीक कहा, सल्तनत। सबके लिए खाना तैयार है...आपलोग सभी नीचे चलिए।'
सभी लोग भोजन के लिए नीचे चले गये। भैरव ऊपर ही बैठा रह गया। एक किताब पढ़ते हुए उसमें खो गया। थोड़ी ही देर में सल्तनत आ गयी बुलाने, 'चलो, नीचे सभी लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं। किताब बाद में पढ़ लेना।'
'निकहत को मैंने बता दिया था कि मैं घर से खाकर आया हूँ।'
'निकहत ने आज खाने की विशेष तैयारी की है, उसका मन रखने के लिए कुछ तो ले लो। तुम्हारे लिए यहीं ले आती हूँ मैं...। '
भैरव के मना करते-करते भी सल्तनत उसकी कुछ मनपसंद चीजें ले आयीं...सेवई, बजका, पापड़, तिलौरी।
'सल्तनत, कहा मैंने कि खाकर आया हूँ...मन नहीं है खाने का।'
'ठीक है, तो मैं भी नहीं खाती।'
'ओफ्फो...ठीक है बाबा, लाओ।'
दोनों एक ही थाली में साथ-साथ खाने लगे। सल्तनत ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा, 'मुझे तुम कुछ परेशान-से लग रहे हो।'
'सल्तनत, तुम अकेले इधर-उधर जाने में जरा एहतियात बरतो। कल हरिजन टोली जाओगी तो मुझे अपने साथ ले लेना।'
'भैरव, जो भी बात है मुझे साफ-साफ बताओ। परेशान करनेवाले जो मामले हैं उन्हें मुझसे शेयर करो, मुझे चिन्तारहित रखने के लिए अकेले घुटते रहते हो। मैं अब तुरंत हाथ लगते ही मुरझाजाने वाली छुईमुई नहीं हूँ।'
'इदरीश को टेकमल ने खुली छूट दे दी है कि वह तुम्हारे और निकहत के साथ कुछ भी सलूक करे, वह उसे संरक्षण देगा। पंचायत का ड्रामा करवाकर उसने नेता व ढोंगी किस्म के मुसलमानों को भी हमारे खिलाफ में खड़ा करवा दिया। अब वे लोग भी इदरीश के समर्थक हो गये। इदरीश अब तुम्हें या निकहत को कहीं भी अकेले देखकर कैसी भी कमीनगी को अंजाम दे सकता है। अगर उसने दबोचकर अपने घर में कैद कर दिया तो उसके चंगुल से छुड़ाना आसान काम नहीं होगा। चूँकि टेकमल के कारण पुलिस-प्रशासन और कौमी-हिमायत आदि सभी मामले में उसकी स्थिति काफी मजबूत हो गयी है।'
सल्तनत ने एक लंबी साँस ली। भय की एक अप्रकट सिहरन दौड़ गयी उसके भीतर, लेकिन वह भैरव को कहीं से भी कमजोर करना नहीं चाहती थी। उसने कहा, 'इदरीश से टक्कर लेने में हम दोनों बहनें सक्षम बन गये हैं, भैरव। वह अगर हमें दबोच भी लेगा तो हम कोई मिश्री की डली नहीं हैं कि वह घोलकर पी लेगा। पहले हम जरा सहमे हुए मुरौव्वत करते रहे, अब हम मुँहतोड़ जवाब देकर उसे छट्ठी का दूध याद दिला देंगे।'
भैरव को अच्छा लगा कि सल्तनत के भीतर प्रेम की सरिता ही नहीं बहती वरन एक दहाड़ती हुई सिंहनी भी निवास करने लगी है। उसने उसके अधरों को चूम लिया।
'इस समय जिस अनुपात में हमारे दोस्त बढ़े हैं उसी अनुपात में लगता है दुश्मन भी खड़े हो रहे हैं। टेकमल को इदरीश के रूप में एक बढ़िया हथियार मिल गया है। पता चला है कि एक मुजरिम के रूप में ढालने के लिए उसने कई तरह की कवायद शुरू कर दी है। एक लड़का रूपेश है, जिसे तुम शायद जानती हो, टेकमल के विश्वासपात्रों की सूची में उसने अपना नाम दर्ज करवा लिया है, लेकिन वह हमारा भी बहुत प्रशंसक है और साथ ही शुभचिंतक भी। वह वहाँ की सारी सूचनाओं से मुझे अवगत कराता है। उसी ने बताया कि इदरीश को टेकमल ने अपने आक्रामक दस्ते में शामिल कर लिया है और उसे बम बाँधने तथा रिवॉल्वर-रायफल से निशाना लगाने की ट्रेनिंग दे रहा है।'
सल्तनत जैसे स्तम्भित हो गयी, भैरव ने उसकी स्थिति ताड़ ली। उसकी हथेली को अपने हाथों में भरकर उसे थपथपाते हुए कहा, 'सल्तनत, घबराने से काम नहीं चलेगा, हमें अब उसी की भाषा में जवाब देने की तैयारी करनी है।'
'उसी की भाषा में तैयारी? मतलब तुम भी गोली और बम-बारूद का रास्ता अख्तियार करोगे? '
'हाँ सल्तनत, करना होगा...दुश्मन अगर हमारी हत्या करने पर आमादा है तो हम उस पर स्नेह बरसाकर उसे नहीं जीत सकते।'
'लेकिन हम जिस लक्ष्य को लेकर चले है उसकी पवित्रता इन खून-खराबों से क्या कलंकित नहीं होगी? '
'जीतना हमारा लक्ष्य हो तो साधन की पवित्रता का आकलन दुश्मन के व्यवहार और औजार तय करते हैं। दुश्मन अगर विश्राम शिविर पर रात में हमला करे तो उसे युद्ध नियम का इकतरफा वास्ता देकर बख्शा नहीं जा सकता, बल्कि उसे उसी वक्त उससे ज्यादा प्रहारात्मक जवाब देना होगा। दुश्मन जाहिल और मूढ़ हो तो उसे शास्त्र ज्ञान कराकर नहीं बच सकते, बल्कि उसी की तर्ज पर हमें भी आचरण करने के लिए मजबूर होना होगा। टेकमल को अपनी कुर्सी हिलती नजर आ रही है, तो वह किसी भी तिकड़म से अपनी धाक कायम रखना चाहता है। हम ऐसा नहीं होने देंगे चाहे जान की बाजी क्यों न लगा देनी पड़े।'
'मैं तुम्हारे मुँह से मिसाल के तौर पर भी ऐसे जुमले नहीं सुनना चाहती। मेरी दुनिया का आदि और अंत तुम्हीं से होता है। तुम्हारे बिना मुझे कोई कामयाबी नहीं चाहिए। मैं इंसान हूँ, देवता नहीं...कम से कम इतना खुदगर्ज होना तो मेरा अधिकार है। जरा याद करो, जब मैं अनशन से मूर्च्छित हो रही थी तो किस तरह तुम बिलबिला रहे थे। सच भैरव, तब मुझे बचाने की तुम्हारी सात्त्विक व्यग्रता और व्याकुलता देखकर मौत की ओर बढ़ते जाने का वाकई मुझे भी अफसोस होने लगा था। आखिर मैं भी तुमसे उतना ही प्यार करती हूँ। बल्कि तुम तो मर्द हो, शायद मेरे बिना रह भी लो, मैं तुम्हारे बिना कैसे रह सकूँगी? इसलिए जब भी जोखिम उठाने की बात होगी, आगे मैं रहूँगी। मुझे मरने का डर नहीं है, लेकिन तुम्हारे बिना जीने का डर मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ देता है।'
सल्तनत ने अपना सिर भैरव की छाती पर टिका दिया। भैरव ने छलछलाये हृदय से उसे अपने अंक में भर लिया।
'रूह और जिगर से प्यार करनेवालों के लिए देह की बहुत अहमियत नहीं होती, सल्तनत। किसी की ताबीर बाहर न होकर भीतर हो तो वह ज्यादा स्थायी होता है। हममें कोई एक भी रहे तो क्या हुआ रूह में अंकित ताबीर तो रहेगी ही...उस पर किसी दुश्मन का कोई अख्तियार नहीं हो सकता।'
'भैरव, रूहानी एहसास का दर्शन सुनने में कितना ही अच्छा लगे, फिलहाल तो देह हमारे लिए सबसे बड़ा और असरदार सच है। इसके अनुपस्थित होने की हम आशंका ही क्यों करें? तुम मुझे आज भीतर से एकदम हिले हुए दिख रहे हो। इदरीश कुछ नहीं कर सकता। वह एक बहुत डरपोक आदमी है।'
'सल्तनत, मैं हिला हुआ इसलिए नहीं हूँ कि मैं किसी से डर गया हूँ...दरअसल मुझे अपनी उस तैयारी से सामंजस्य बिठाने में दिक्कत हो रही है, जिसके हम अभ्यस्त न रहे, जो हमारे स्वभाव में नहीं रहा।'
'मुझे साफ-साफ बताओ, तुम क्या तैयारी कर रहे हो? '
'रूपेश, तारानाथ, चन्द्रदेव, रामपुकार, धेनुचंद, खेमकरण, सम्पत आदि लड़कों ने बहुत जोर देकर हमें सुझाया और चेताया है कि कुछ अस्ला और औजार से हमें भी लैस होकर रहना चाहिए।'
'तौफीक मामू क्या इससे सहमत हैं? '
'असहमत भी क्यों होंगे, वक्त की नजाकत और जरूरत तो वे देख ही रहे हैं। तुम्हें जानकर ताज्जुब होगा कि इस काम के लिए अम्मा भी राजी है।'
एकदम खामोश हो गयी सल्तनत... चेहरे का रंग अचानक बदल गया, जैसे किसी सदमाखेज खबर से बावस्ता हो गयी हो। मतलब यह तय हो गया कि कुछ न कुछ अनिष्ट होना है। ये अस्ला और औजार ऐसे हैं कि आमने-सामने दोनों के पास हों तो वे बिना चले नहीं रह सकते...और जब वे चलेंगे तो जाहिर है किसी का खून ही बहायेंगे...किसी की जान ही लेंगे।
सल्तनत की उदासी को भैरव बखूबी समझ सकता था। वह हमेशा इस बात की हिमायत करती थी कि दुनिया जंग से नहीं, मुहब्बत से जीतना ज्यादा आसान है। जिस बदअमनी का उसे खौफ था आखिरकार उसी का हौआ सामने खड़ा हो गया। भैरव उससे तिल भर भी मतभेद नहीं रखता था। परिस्थितियाँ ऐसी न होतीं और सबका दबाव न होता तो वह इस तरह की तैयारी का समर्थन कतई नहीं करता। तौफीक भी खूनी टकराव से उपजे नतीजों के पक्षधर नहीं थे। पक्षधर हुए तो जरूर काफी सोच-विचार किया होगा उन्होंने। अतः यह जरूरी था कि उनके फैसलों और सिफारिशों को सर्वोच्च मान्यता दी जाये। सल्तनत के लिए तौफीक के कुछ तय कर लेने के बाद कुछ भी टिप्पणी करने का कोई हाशिया नहीं रह जाता था। भैरव ने लगे हाथ एक और जानकारी सुपुर्द करने का मन बना लिया। उसने कहा, 'करामत, फजलू और नन्हकू मियाँ आदि ने अतीकुर, मुजीबुर और शफीक मियाँ को गाँव आने के लिए टेलीफोन किया है। उन्होंने पंचायत के फैसले का हवाला देते हुए उन्हें बताया है कि सरेआम जो बेहयाई चल रही है, उस पर लगाम नहीं लगाया गया तो कौम से बाहर करना एक मजबूरी बन जायेगा। चुनांचे एक बार गाँव आकर तुमलोग अपनी बहनों को रास्ते पर लाने का एक आखिरी फर्ज पूरा कर जाओ।'
सल्तनत को बहुत बुरा लगा कि वे यहाँ आकर नाहक अपनी जिद फिर दोहरायेंगे...एक टकराव और तनातनी के माहौल से फिर रूबरू होना होगा। क्या अतीकुर और मुजीबुर अब कुछ बदल नहीं गये होंगे? क्या उन्हें अब तक समझ में नहीं आ गया होगा कि जाति, मजहब और कौम मुसलसल इंसानियत को तकसीम करते हैं? क्या उन्हें इदरीश के मुखौटे के भीतर छिपे भेडिये की जानकारी नहीं हो गयी होगी? क्या गाँव की बदसूरती बदलने की की जा रही उनकी कोशिशों का उन पर कोई असर नहीं पड़ा होगा? अगर वे पूर्व की तरह ही अपनी धारणाओं पर लकीर के फकीर की तरह अड़े होंगे तब तो उनसे काई संवाद और संबंध कायम ही नहीं किया जा सकता। उन्हें उसी रूप में यहाँ महसूस करना एक यातना से ही गुजरने के बराबर होगा। उसने मन को समझाया कि चलो इसी बहाने उन्हें देखने का एक मौका मिल जायेगा।
आहर और पोखर की चैड़ी मेड़ को दुरुस्त करने तथा उनकी गहराई को बढ़ाने का काम निर्धारित समय पर शुरू कर दिया गया। खेती से जुड़े और उस पर आश्रित हिन्दू, मुसलमान, हरिजन, सभी वर्ग के लोग श्रमदान के लिए कुदाल, गैंता और खंती लेकर निकल पड़े। इस मुहिम से सिर्फ मुट्ठी भर वे लोग अलग थे जो राजनीति से प्रेरित थे और टेकमल, इदरीश, करामत, फजलू तथा नन्हकू मियाँ से नजदीकी रखते थे। सामूहिकता का ऐसा नजारा शायद इस गाँव में पहले कभी उपस्थित नहीं हुआ था। ये आहर और ये पोखर कल पानी से पता नहीं कितना भरेंगे, मगर आज एक जोश, एक उत्साह और एक ऊर्जा के बहाव से लबालब भर गये थे। लगभग चालीस-पचास दिनों तक चला यह अभियान...इस दौरान सब के सब एकजुट रहे...किसी के माथे पर एक सलवट न आयी...लग रहा था जैसे हरेक का निजी मसला हो...सबमें ज्यादा से ज्यादा योगदान करने का उतावलापन समाया था। मर्दों के साथ कई कामकाजी औरतें भी साथ देने में कोताही नहीं कर रही थीं। तौफीक, प्रभुदयाल, भैरव, तारानाथ, चन्द्रदेव, रामपुकार, धेनुचंद, खेमकरण, सल्तनत, निकहत आदि सभी ने अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार काम ढूँढ़ लिया था। तौफीक एकदम विभोर थे इस शानदार भागीदारी पर। इतने बड़े पैमाने पर लोग सहयोग करेंगे इसकी उम्मीद उन्हें न थी। उन्होंने सौ-सवा सौ लोगों की ही उम्मीद की थी। उनके भीतर कई छटाएँ और बिजलियाँ कौंधने लगीं। ऐसा जनसमर्थन हो तो गाँव का क्या देश का नक्शा रातोंरात बदला जा सकता है। हर नामुमकिन को मुमकिन का जवाब दिया जा सकता है। ऐसे ही जागरण को कहते हैं पाताल से पानी निकाल लाना। तौफीक साफ-साफ देख और महसूस रहे थे इसके पीछे छिपी उस मेहनत और मशक्कत को जिसे भैरव और सल्तनत ने बूँद-बूँद करके एकत्रित किया था। उन्हें अब लग रहा था कि अनशन पर बैठने का प्रत्यक्ष नतीजा भले न निकला लेकिन उसके अप्रत्यक्ष बहुत सारे फायदे हुए। लोगों का विश्वास पक्का हो गया कि वाकई ये लोग पूरे समर्पण और जी-जान से गाँव के लिए कुछ करना चाहते हैं।
आहर और पोखर दोनों की गहराई अब इतनी हो गयी कि आसपास के सारे लावारिस बहते पानी का इनमें आकर जमा होना तय हो गया। उसकी बाँध भी इतनी पुष्ट, चौड़ी और ऊँची हो गयी कि बाढ़ भी आ जाये तो कटाव का डर न रहा। बाँध पर चारों तरफ वृक्षारोपण कर दिया गया। एक साथ हजारों की तादाद में पेड़ लग गये...महुआ, नीम, पीपल, बड़, बेल, जामुन, आम, साल, सागवान, कटहल, गूलर, पाकड़, ताड़, खजूर आदि। एक पंथ दो काज। पर्यावरण का इस तरह भला इस गाँव में पहले कभी नहीं हुआ था।
इस अभूतपूर्व अभियान की चर्चा गाँव-गाँव से होते हुए अगल-बगल के शहरों तक में पहुँच गयी थी। चाय और पान की दुकानों पर तथा टेकरों, बसों और रेलगाड़ियों में यात्रा करते हुए ग्रामीण बातें करते तो उनमें एक प्रमुख विषय की जगह लतीफगंज का यह कायापलट महायज्ञ ने ले लिया।
टेकमल ने अपने लिए इसे एक चेतावनी के तौर पर लिया। उसने भी कार्यक्रम की इतनी बड़ी सफलता की कतई उम्मीद नहीं की थी। बहुत हलके रूप में लेते हुए उसे लगा था कि चंद सिरफिरों का अपरिपक्व सोडावाटर उफान है, जो एक ही झटके में शांत पड़ जायेगा और फ्लॉप हो जायेगा। जनता सामूहिकता में कुछ करने के लिए भला अब कहाँ संगठित हो पाती है। सबके अपने-अपने पचड़े, दुख, शिकायतें और झंझट हैं जो उन्हें खंडित और विभाजित रखते हैं। टेकमल के लग्गू-भग्गू पहले तो इस कार्यक्रम की खिल्ली उड़ाते रहे और उसे समझाते रहे कि सारा कुछ थोथा बकवास है, इसका कोई परिणाम नहीं निकलना है, चिन्ता करने की कोई बात नहीं है। मगर लोगों की संलिप्तता ज्यों-ज्यों सघन होती गयी और एक आंदोलन की शक्ल लेता हुआ काम ठोस रूप में परिवर्तित होने लगा, उनका मुँह छोटा होता गया...आवाज मद्धम पड़ने लगी और चेहरे का रंग फीका होता गया।
टेकमल ने अपने सारे दरबारियों और चिलमचियों को जबर्दस्त झाड़ पिलायी, 'तुमलोग इसी तरह लफ्फाजी करते रहोगे और हाथ के तोते उड़ते चले जायेंगे। यह खुद ही फ्लॉप हो जायेगा, मानकर खेल बिगाड़ने की कोई कोशिश नहीं की गयी। जबकि आराम से कुछ लोगों को, खासकर जो मेरी जाति के लोग थे, भड़काया और तोड़ा जा सकता था...रंग में भंग डालने के दूसरे उपाय किये जा सकते थे। अब जब इतना बड़ा धक्का लग गया और सारा श्रेय कमबख्त तौफीक, भैरव और बदजात सल्तनत के हिस्से चला गया, कितना मुश्किल होगा एक ही डंडी के दूसरे पलड़े पर उनके मुकाबले तुलकर खुद को वजनदार बनाना? राजनीति में विरोधियों का कद बड़ा हो जाये तो फिर अपनी हैसियत बरकरार रखना लोहे के चने चबाने के बराबर है। आइंदा जरा खयाल रहे कि इनका ऐसा कोई आयोजन सफल न हो।'
सबने पालतू कुत्तों की तरह एक साथ दुम हिलायी और यह संकल्प दोहराया कि आगे उनके किसी भी रास्ते को निष्कंटक नहीं रहने देना है। टेकमल ने स्क्वायड में नये-नये शामिल रंगरूट इदरीश को जरा धमकाते हुए पूछा, 'क्यों इदरीश मियाँ, बाजा लेकर वजनदार बन गये हो और बजाने की कला भी सीख ली है तो कोई राग बजाकर दिखाओगे कि शागिर्दी के नाम पर थू-थू करवाओगे? '
'अब आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा, जनाब। मैं वो सारा राग बजाकर दिखाऊँगा जो दुनिया बदलनेवाले सामाजिक संतों के लिए दुनिया से मुक्ति का मार्ग खोल देगा। इसके लिए राग तांडव हो या राग भैरव...सब बजाऊँगा मैं। बस इस बार के लिए बख्श दीजिए।' उसने अपने जबड़े को रगड़कर अपने नृशंस इरादे का बोध कराया।
टेकमल ने इस जवाब पर अपनी संतुष्टि जतायी।
उम्मीद अब अंकुराने लगी थी कि इस बार खरीफ की फसल मारी नहीं जायेगी। सारे किसान आहर और पोखर के शानदार कायाकल्प पर आह्लादित थे। उन्हें इस बात का अफसोस हो रहा था कि यह काम सबने मिलकर और पहले क्यों नहीं कर लिया? कर लिया होता तो आज जिस जर्जर हालत को भोग रहे हैं, यह नौबत तो न आती। किसी ने कहा था काश, सल्तनत और भैरव का बालिगपन तीन-चार साल और पहले शुरू हो गया होता। तौफीक ने बधाई देने वाले लड़कों एवं किसानों को कहा था, 'यह तो बस एक कामचलाऊ उपाय है...मिशन तो तब पूरा होगा जब नहर का जीर्णोद्धार हो जायेगा और शत प्रतिशत क्षमता के साथ गाँव और जवार के खेतों को सिंचित करने का हौसला जाग्रत हो जायेगा।'
अम्मा बहुत खुश थी। उसे इस बात का मलाल था कि यह दिन देखने के लिए खेती का दीवाना उसका बेटा जकीर जीवित नहीं है। भैरव ने कहा था, 'जकीर हमारे साथ है, अम्मा...वह हमें भरे हुए आहर-पोखर तथा लहलहाती फसलों के रूप में दिखेगा। उसकी शहादत ने हमारे भीतर सोयी हुई इच्छा-शक्ति को झाकझोर देने का काम किया है।'
सल्तनत ने कहा, 'हमें अभी से खरीफ फसल बोने की तैयारी में लग जाना होगा। घर में ऐसा कोई नहीं है जो पूरा काम सँभाल सके। जितने खेत हैं, सबको आबाद करने के लिए एक तगड़े और अनुभवी किसान का होना जरूरी है। 'अम्मा ने जरा चहकते हुए कहा, 'सल्तनत, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम चिट्ठी लिखकर मतीउर को बुला लें? खेती उसके मिजाज और खून में बसा है, यही एक काम है जिसमें उसकी जी भर तबीयत रमती है। यहाँ की बिगड़ती हालत से निराश और आजिज होकर चला गया था वह। अब जब आकर देखेगा कि अनिश्चितता का मंजर खत्म हो गया है तो उसे बेहद खुशी होगी।'
सल्तनत और तौफीक के चेहरे पर जैसे एक कौंध उभर आयी। सल्तनत ने प्रशंसा के भाव से उसे देखते हुए कहा, 'अम्मा, एकदम सही फरमाया आपने। हम नाहक चिंतित हुए जा रहे थे। हैरत है कि हमारे दिमाग में मतीउर का नाम आ क्यों नहीं रहा था? '
'उसके लिए भी अच्छा होगा...बेकार में वहाँ कुली-कबाड़ी का काम कर रहा है। यहाँ अपने मन का मालिक बनकर अपना काम करेगा। अतीकुर और मुजीबुर से उसकी पटरी भी नहीं बैठती है...सुना है वह कोई अलग डेरा लेकर रहता है।' तौफीक ने अपना समर्थन जताया।
'उसके गाँव छोड़ते वक्त मैंने कहा था मामू कि नहर में पानी आयेगा तो मैं तुम्हें खबर करूँगी, तुम वापस आ जाना। खेती तुम्हारा पेशा ही नहीं जमीर का एक हिस्सा है, मतीउर। तुम कुली-कबाड़ी होने के लिए नहीं एक गैरतमंद किसान होने के लिए पैदा हुए हो। उसने जवाब में कुछ कहा तो नहीं था लेकिन मेरे जज्बात को अपने जिगर में उतार जरूर लिया था। वह इतना टूटकर गया था कि उसे उम्मीद ही नहीं थी कि यहाँ दोबारा खेती के अनुकूल स्थिति कायम होगी।'
'तो तुम आज ही उसे चिट्ठी लिख दो और फोन भी कर दो सल्तनत कि जितना जल्दी हो सके, वह चला आये। हम सभी लोग उसका इंतजार कर रहे हैं और सबसे ज्यादा उसके वे परिचित खेत इंतजार कर रहे हैं जो अब लहलहाने की तैयारी में हैं...और वे आहर-पोखर उसकी राह देख रहे हैं जो अब बदले रूप में सबको खुशहाली बांटने के लिए तत्पर हैं।'
तौफीक ने गर्व से निहारते हुए कहा, 'अम्मा, तुम तो नज्म पढ़ने लग गयी...देखो हालात आदमी को कितना प्रभावित कर देते हैं।'
अम्मा ने कहा, 'तुमलोगों की सोहबत का असर तो कुछ न कुछ होना ही था। मैं क्या, लगता तो ऐसा है कि यह पूरा गाँव ही नज्म पढ़ने और सोचने लगा है।'
सबने अम्मा को यों निहारा जैसे वे फलों से लदे किसी घने छायादार वृक्ष को देख रहे हों। तौफीक ने आज के कार्यक्रम की चर्चा करते हुए कहा, 'अम्मा, आज हम सभी लोग उपायुक्त से मिलने जा रहे हैं । नदी किनारे की फुलेरा बाँध का हमारी सहकारिता 'लतीफगंज विकास समिति' के नाम आबँटन करने संबंधी हमारे आवेदन पर आज सुनवाई और कार्रवाई होगी।'
'कौन-कौन जा रहे हैं ? क्या मुझे भी जाने की जरूरत है? '
'नहीं, आपको अभी परेशान नहीं होना है। आज हमारे सभी सदस्य अर्थात 42 लड़के जा रहे हैं और वे उपायुक्त के सामने पेश होंगे और उन्हें यह विश्वास दिलायेंगे कि वे किसी एक जाति, धर्म से नहीं हैं और उनका मतलब किसी खास व्यक्ति, जाति या कौम को फायदा पहुँचाना नहीं है। वे सभी पढ़े-लिखे और बेरोजगार लोग जाति और मजहब से ऊपर उठकर इस सहकारिता में शामिल हैं और अपने जीवन-यापन के लिए इस निरर्थक भूखंड को आय का माध्यम बनाना चाहते हैं।'
'इस योजना पर टेकमल और उसके गुर्गों का क्या रुख है, यह स्पष्ट हुआ है या नहीं।' अम्मा ने पूछा।
'हम तो यह मानकर ही चल रहे हैं कि उसका रवैया रास्ते में टाँग अड़ाने का ही होगा...लेकिन हमने भी पूरी तैयारी कर ली है। अपने पहलेवाले नेटवर्क को फिर से व्यवस्थित कर रहा हूँ और ऊँचे ओहदे पर पहुँचे अपने पुराने साथियों से अपनी निकटता को ताजा कर रहा हूँ। टेकमल को काउंटर करने के लिए हम किसी भी मोर्चे पर कमतर नहीं रहना चाहते।' तौफीक ने अपने आत्मविश्वास को जगाने की कोशिश की।
उत्साहित होकर भैरव कहने लगा, 'बाउजी बताते हैं कि आप अगर नौकरी करने के लिए शहर न चले गये होते तो टेकमल जैसा शातिर और गुंडा तत्व कभी यहाँ का सांसद न बना होता। आपका जिस तरह उन दिनों आम आदमी के दुख-सुख में साझीदारी बढ़ रही थी और सार्वजनिक मुद्दों के लिए जूझने की आपकी जीवटता के लोग कायल होते जा रहे थे कि बड़े से बड़ा जनसमर्थन चाहते तो हासिल कर लेते।'
'नहीं भैरव, ऐसा नहीं है। यह आकलन जरा अतिशयोक्ति भरा है। वोट और जनसमर्थन का आधार ज्यादातर मामलों में जाति और कौम ही बनता रहा है। आप काम चाहे कितना ही करें, आप कितना ही ईमानदार और कर्मठ हों, जब चुने जाने की बात होगी तो आप जाति और कौम के स्तर पर फेंका जायेंगे।'
अम्मा ध्यान से सुन रही थीं इनकी बातें। जरा चिन्तातुर होकर उसने पूछा, 'अगर ऐसा है तौफीक मियाँ, तब तो इस मुए टेकमल को कभी हराया नहीं जा सकेगा। इसकी जाति की तादाद तो कभी कम होगी ही नहीं।'
'लोहे को लोहा काटता है, अम्मा। हर चीज का अंत होता है, टेकमल का भी होगा।'
अब इनके शहर जाने का समय होने वाला था। एक-एक कर सभी लड़के जुटने लगे थे। तारानाथ, चन्द्रदेव, रामपुकार, खेमकरण, धेनुचंद और अन्य। लड़के छिड़े हुए प्रसंग पर ध्यानपूर्वक कान लगाये हुए थे। तारानाथ ने कहा, 'हम टेकमल के मामले में यह धारणा गलत साबित करके रख देंगे, अंकल, आप देखिएगा। हम सभी साथियों ने तय कर लिया है कि सल्तनत हमारी नेता होंगी और टेकमल के खिलाफ चुनाव लड़ेंगी। मेरा दावा है कि इन्हें जीतने से कोई नहीं रोक सकेगा।'
तौफीक, भैरव, अम्मा, सल्तनत आदि के लिए यह पहला मौका था जब इस तरह का विचार उनके सामने आया था, अतः एकबारगी वे सुनकर चैंक उठे। सल्तनत ने सान्निध्य भाव से देखा तारानाथ को और जरा मुस्कराते हुए कहा, 'तारा, क्या मुझे मरवा देने का इरादा है?'
सभी लोग हँस पड़े। अम्मा ने तारा का समर्थन किया, 'तारा ठीक कहता है, सल्तनत...तुम्हीं एक हो जो टेकमल को कड़ी टक्कर दे सकती हो।'
तारा ने फिर जोड़ा, 'अब किसी के लिए मार-काट कर लेना इतना आसान नहीं रह गया है। हमें कमजोर समझ लेने की जो गलती करेगा, उसे बहुत पछताना पड़ेगा। टेकमल से पूरे क्षेत्र के लोग त्रस्त हैं और उसे सबक सिखाने के लिए तत्पर हैं। आप इस क्षेत्र के हर गाँव में अपनी एक पहचान कायम कर चुकी हैं। फिर उसे धूल चटाने के लिए आपसे अच्छा उम्मीदवार भला कौन हो सकता है? '
'ठीक है तारा, इस बारे में हम सब मिलकर बाद में फैसला करेंगे। चलो, अभी समय हुआ जा रहा है। निकहत कहाँ है, उसे कहो, हमें कुछ नाश्ता कराये।' तौफीक ने प्रसंग को समेटते हुए जाने की हड़बडी दिखायी।
नाम सुनते ही निकहत हाजिर हो गयी। शायद पास ही से वार्तालाप सुन रही थी। उसने कहा, 'नाश्ता तैयार है...आप सभी लोग इस सभाकक्ष से नीचे आइए।'
सभी ने नीचे आकर नाश्ता किया और चाय पी। रसोई को पूरी तरह निकहत ने सँभाल लिया था और शिकायत का कोई मौका नहीं रहने दिया था। उसकी अम्मा मिन्नत भी काफी संतुलित व सामान्य व्यवहार करने लगी थी। रसोई में निकहत की पूरी मदद करने लगी थी। गली-कूचों में यत्र-तत्र आवारा भटकना तथा कुछ भी करने की सनक दिखाने लगना उसने लगभग बंद कर दिया था। अब सब महसूस कर रहे थे कि दुत्कार, फटकार, गाली-गलौज और जोर-जबर्दस्ती वाली बदसलूकी के कारण ही उसमें विक्षिप्तावस्था उभर आयी थी। अब जब उसे इस तरह सताने वाला कोई नहीं रह गया और सभी उससे अच्छी तरह नरमी एवं प्यार से पेश आने लगे तो उसे ठीक होने के लिए किसी इलाज की भी जरूरत नहीं पड़ी। सल्तनत और निकहत दोनों उसे खूब जी में लगातीं...रोज नहलवाकर उसके कपड़े बदलवा देतीं... उसके सिर में तेल लगाकर जूड़ा कर देतीं...उसकी उँगलियों के नाखूनों में पॉलिश और उसके पैर में आलता लगा देतीं। मिन्नत खिलखिलाकर हँसती और अपनी बेटियों को मुग्ध होकर देखती। सल्तनत शुरू से ही उस पर प्राण छिड़कती रही, मिन्नत इसे समझती थी, शायद इसीलिए वह जहाँ भी सोती मिन्नत उसके पार्श्व में जाकर उठँग जाती। उसका जरा-सा भी सिर दुखता, अपच हो जाता, सर्दी लग जाती...मिन्नत ताड़ लेती और उसके लिए रतजगा कर देती।
मतीउर हर महीने उसके लिए दो सौ रुपये का मनीआर्डर भेजता था। सल्तनत उसे बताती कि छोटे ने तुम्हारे लिए ये रुपये भेजे हैं। उसकी आँखें गीली हो जातीं। ऐसा लगता कि उसे देखने के लिए उसमें मन ही मन एक तड़प समा जाती है। मतीउर कुली-कबाड़ी वाली मामूली व अनिश्चित कमाई के बावजूद माँ के लिए अपने कर्तव्य पालन से बाज नहीं आता था। सल्तनत भावुक हो जाती थी यह सोचकर कि दो बड़े बेटे मोटी कमाई करते हैं, फिर भी उन्हें अपनी माँ के लिए एक पैसा देना गवारा नहीं। कई साल हो गये कभी सुधि भी नहीं ली कि माँ जीती है या मरती है। सल्तनत के मन में कभी खयाल आता कि ऐसे बेटों के बड़ा होने से क्या फायदा जो अपनी माँ से खुद को बड़ा समझने लगे। मतीउर अगर वापस आ गया तो माँ की तबीयत और भी बेहतर हो जायेगी।
सबके साथ चलने के लिए सल्तनत भी तैयार हो गयी। आज ही उसे फोन करके सूचित कर देना है और चिट्ठी भी लिख देनी है। एक दुकान का फोन नम्बर देकर रखा है, वहाँ मैसेज दे देने से वे लोग उस तक संप्रेषित कर देते हैं।
घर से निकलकर सभी लोग बस के लिए पक्की सड़क पर आ गये। इसी समय कहीं से अचानक रूपेश प्रकट हो गया। उसने एकांत में ले जाकर भैरव से कुछ कानाफूसी की और तुरंत अंतर्ध्यान हो गया। भैरव के माथे पर अचानक पसीने की बूंदें चुहचुहा आयीं। सल्तनत ने ताड़ लिया कि जरूर कोई परेशानी का सबब है। तौफीक लड़कों के साथ बातें करने में मशगूल थे। भैरव ने सल्तनत को बता दिया कि टेकमल भी अपने गुर्गों के साथ डीसी आफिस पहुँचा हुआ है, इसलिए वहाँ कुछ भी अप्रिय घट सकता है। भैरव कुछ लड़कों के साथ घर जाकर जवाबी तैयारी अपने साथ ले लेना चाहता था, लेकिन सल्तनत ने एकदम मना कर दिया कि आज पहले हम देख ही लें कि टेकमल और उसके आदमी कितने पानी में हैं।
सभी लोग उपायुक्त (डीसी) कार्यालय पहुँचकर अपनी बारी का इंतजार करने लगे। एक साथ पचास आदमी के समूह के कार्यालय में पहुँचते ही सरगर्मी बढ़ गयी और लोग बाग ध्यान से इस तरफ देखने लगे। इन्हें अंदर जाने के लिए जब बुलावा आया तो उसी समय अप्रत्याशित रूप से अंदर से टेकमल बाहर निकला। तौफीक जाते हुए और टेकमल निकलते हुए आमने-सामने पड़ गये। कुछ देर दोनों एक-दूसरे को ऊपर से नीचे तक घूरते रहे। फिर तौफीक ने अपने होंठों पर मुस्कान लाते हुए कहा, 'और कितना देखोगे, टेकमल। वहीं हूँ यार जो पहले था। हाँ, तुम जरूर बदल गये हो।'
टेकमल ने मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ा दिया, तौफीक ने भी उसका सम्मान किया। टेक ने उसका हाथ हिलाते हुए कहा, 'मैं वही देख रहा था कि तुम जरा भी नहीं बदले। यह ठहराव क्या पूरा जीवन बनाये रखोगे? दुनिया की ज्यादातर चीजें क्षण-क्षण बदलती हैं...सूरज तक देखो दिन भर में कितना रूप बदलता है।'
'जमाने के साथ बदलकर चलना तो अच्छा जरूर होता है, टेकमल...लेकिन स्यार की तरह रंग बदलकर आँखों में धूल झोंकना अच्छा नहीं होता। खैर, तुम्हारी जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि मैं अब वाकई उन चीजों को बदल देना चाहता हूँ जो आँख में अर्से से खटक रही हैं।'
'कोशिश करके देख लो...हसीन सपने देखने के लिए तुम तो दिन को भी रात मानकर चलते रहे हो। देख रहा हूँ कि काफी भीड़-भाड़ जुटा ली है तुमने।' टेकमल ने सरसरी तौर पर एक उपहास की निगाह दौड़ायी लड़कों पर, 'कोई काम पड़े तो आ जाना मेरे पास।'
'यहाँ कोई रहे और तुमसे काम न पड़े...ऐसा हो ही नहीं सकता। शुक्रिया इस जर्रानवाजी के लिए...मैं जरूर आऊँगा तुम्हारे पास।'
'चलता हूँ।' मुख में राम बगल में छूरी वाली अपनी छायावादी धूर्तता दिखाते हुए टेकमल चला गया। आगे पीछे चलने के लिए सशस्त्र अंगरक्षक उसके साथ लग गये। खिड़की से अनायास नजर नीचे चली गयी तो तौफीक ने देखा कि बाहर आलीशान कारें और जीपें उसकी राह देख रही हैं। जीप में उसकी खूँखार सेना अस्लों से लैस होकर लदी हुई थी। ऐसे लोगों को, जो खुद ही जरायमपेशा हैं...जो खुद ही असुरक्षा के वायस हैं...न जाने क्यों प्रशासन सुरक्षा के नाम पर शोहदों का काफिला लेकर चलने की इजाजत दे देता है? किसी ने सूचित किया था कि जीप में इदरीश भी सवार है। घिन आ गयी थी तौफीक को। भैरव, सल्तनत और सभी लड़के बड़े हैरत से टेकमल का तौफीक से मिलना और बोलना-बतियाना देख रहे थे। लग रहा था जैसे दो दुश्मन नहीं जिगरी दोस्त मिल रहे हों। शायद इसे ही आज की राजनीति कहते हैं।
उपायुक्त ने हरेक लड़के से बातचीत की, उनके शैक्षणिक प्रमाणपत्र देखे और इस तथ्य को सच पाया कि सभी लड़के पर्याप्त शिक्षित हैं और अब तक बेरोजगार रहने के लिए अभिशप्त हैं। उसने तौफीक को संबोधित करते हुए पूछा, 'क्या ऐसा संभव नहीं है कि इस क्षेत्र के सांसद को विश्वास में लेकर आप इस योजना को आगे बढ़ायें? '
तौफीक ने बेबाकी से कहा, 'महोदय, यह सांसद उस नस्ल का नहीं है जो काम बनाता है, यह उस नस्ल का है जो काम बिगाड़ता है। मैं जानता हूँ कि वह आपसे मिलकर गया है तो अपनी टाँग अड़ाकर ही गया होगा। अगर वह विश्वास करने लायक होता तो हमें इन बेरोजगारों को लेकर संस्था बनाने की कोई जरूरत नहीं होती। इस आदमी के कारण आज पूरा इलाका भुखमरी के कगार पर खड़ा है। मैं आपको बता दूँ कि नेता बनने की ख्वाहिश लेकर मैं यह सब नहीं कर रहा...हाँ, यह ख्वाहिश लेकर मैं जरूर चल रहा हूँ कि इस टेकमल को अब नेता नहीं रहने देना है। मुझे अगर नेता बनना होता तो आज से पन्द्रह साल पहले उस समय मैं नेता बन गया होता जब इस टेकमल ने राजनीति का ककहरा भी नहीं सीखा था।'
'तौफीक साहब,' उपायुक्त ने अपने पुकारने के अंदाज से यह स्पष्ट कर दिया कि वह उनसे काफी प्रभावित है, 'आप एक अनुभवी और विवेकसंपन्न व्यक्ति हैं...मैं क्या बताऊँ, आप तो सबकुछ जानते हैं। पिछले दिनों आपलोगों ने अपने गाँव में जो काम किया है, उससे मैं अवगत हूँ, इसलिए मेरे मन में इस योजना के लिए कोई संशय नहीं है। मैं सचमुच चाहता हूँ कि बेकार और खाली पड़ी जमीन आपकी संस्था को लीज पर जरूर दी जाये। यह एक अनूठा और अनुकरणीय प्रयोग साबित हो सकता है। मेरे सामने...। '
'आप अगर ऐसा समझते हैं,' बीच में ही रोक दिया तौफीक ने, 'तो इस टेकमल के कहने से ना मत कीजिए, महोदय। आप एक प्रशासनिक पदाधिकारी हैं...देश आप जैसे समर्थ लोगों के ही बूते चलता है...टेकमल जैसे अवांछित और नालायक आदमी तो सांसद, विधायक और मंत्री बनते और मिटते रहते हैं। लेकिन आप अपनी मेधा और तेजस्विता से आये हैं और पूरा जीवनकाल आपको अपनी सेवा देनी है। इसकी बेजा धौंस और गुंडागर्दी की आप परवाह मत कीजिए। आप तय कर लेंगे और अपने पद की शक्ति के साथ डट जायेंगे तो यह डरपोक आदमी, जो अपनी जान जाने का डर लिये गुंडों पर आश्रित रहता है, आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। आप स्वयं देख लीजिए कि आपके इस निर्णय से कितने अभागे लोगों के जीवन का अंधकारमय अध्याय प्रकाशमय बन सकता है। आप बताइए कि इनके भविष्य को सँवारने के प्रति राष्ट्र का क्या कोई कर्तव्य नहीं होना चाहिए? अव्वल तो इन्हें भी किसी अच्छी आजीविका पाने का अवसर मिलना चाहिए था...जो नहीं मिला तो इन्हें उस काम के लिए भी रोक देना क्या सरासर नाइंसाफी नहीं होगी, जिसे अपनी तकदीर की रेखा बदलने के लिए ये खुद आगे बढ़कर अंजाम देना चाहते हैं? अब मैं कुछ नहीं कहूँगा, आप जो फैसला चाहें ले लें।' तौफीक जाने के लिए उठ गये। उनके साथ बैठे हुए भैरव, सल्तनत, तारानाथ, चन्द्रदेव आदि ने भी अपना आसन छोड़ दिया।
उपायुक्त ने आदर से पुकारते हुए कहा, 'तौफीक साहब, अब तो मैं सचमुच यह देखना चाहता हूँ कि आपकी योजना किस हद तक सफलता की ऊँचाई छू सकती है। जोखिम उठाना भी पड़े तो मैं उठाऊँगा...आपकी संस्था को जमीन दी जायेगी। जाइए, काम आगे बढ़ाइए। बीडीओ और कर्मचारी जाकर जमीन की नापी करके निशान लगा देंगे, फिर हम आवश्यक कार्रवाई के उपरांत आपके पास लीज का पेपर भिजवा देंगे। अगर वैधानिक कार्रवाई के तहत इसके लिए सचिव और मंत्री तक से स्वीकृति लेने की जरूरत होगी तो मैं वह भी करूँगा। कहिए, अब तो आप खुश हैं न।'
तौफीक ने दोनों हाथ जोड़ दिये, 'आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सर...बहुत बहुत धन्यवाद।' कृतज्ञता से उनके स्वर आर्द्र हो गये। उपायुक्त ने उनके जुड़े हुए हाथ को अपनी हथेलियों में भरकर अपनी छाती से लगा लिया, 'तौफीक साहब, धन्य तो आज मैं हो गया हूँ...अपनी आठ साल की नौकरी में मैंने हजारों आदमियों से डील की लेकिन आपके जैसा ठोस और सच्चा आदमी मुझे पहली बार मिला। आपकी योजना क्या रूप लेती है, मैं जहाँ भी रहूँ, मेरी निगाह टिकी रहेगी।'
तौफीक ने उनकी आत्मीयता से उत्साहित होकर चलते-चलते भैरव, सल्तनत और कुछ खास-खास लड़कों से विशेष परिचय करवाया। वे खुश हुए कि गाँव में जागरूकता व एकजुटता की ऐसी कल्याणकारी हवा बहायी जा रही है।
तौफीक का यहाँ से निकलकर बैंक जाने का कार्यक्रम था। भारतीय स्टेट बैंक की स्थानीय शाखा में उनका एक पुराना दोस्त अधिकारी था। वे एक ट्रैक्टर फाइनांस करने के बारे में बात करना चाहते थे। कार्यालय से बाहर आकर उन्होंने दो लड़के तारानाथ और चन्द्रदेव को अपने साथ ले लिया और बाकी सबको सल्तनत एवं भैरव के साथ लगा दिया। कार्यालय परिसर से बाहर निकलकर वे बाजार की तरफ कुछ ही कदम चले होंगे कि पीछे की एक सकरी गली से अचानक सायँ-सायँ करके दो गोलियाँ चलीं और एकाध फुट के फासले से उनके बायें से निकल गयीं। वे बाल-बाल बच गये। यह स्पष्ट था कि निशाना उन्हें ही बनाया गया था। भैरव अपने ग्रुप के साथ कुछ ही दूर आगे बढ़ा था। सभी लोग दौड़कर उसके पास आ गये। सल्तनत बदहवास थी मगर तौफीक मुस्करा रहे थे। अब उसे यकीन हो गया था कि दुश्मनी किस स्तर तक नीचे गिरकर जान तक लेने पर उतारू हो गयी है। सल्तनत ने जरा घबराते हुए कहा, 'मामू, घर चलिए...बैंक का काम किसी और दिन होगा।'
तौफीक ने वहाँ मौजूद एक-एक कर सभी चेहरेां का जायजा लिया, फिर कहा, 'सल्तनत, हम जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वहाँ शिकस्त खानेवाले कायर इस तरह के हमले बारबार करेंगे। हमें इसके लिए तैयार रहना होगा कि हममें से किसी को कभी भी गोली लग सकती है, किसी की भी जान जा सकती है। दरअसल हम एक युद्ध लड़ रहे हैं भ्रष्टाचार और हरामखोरी के खिलाफ। मोर्चे पर साथ लड़नेवाले सिपाही घायल हो जाते हैं या मर जाते है, युद्ध फिर भी जारी रहता है। हमें भी इसी सहनशीलता का परिचय देना होगा। तुमलोग जाओ, मैं बैंक का काम कर ही लेता हूँ।'
तौफीक तारानाथ और चन्द्रदेव के साथ चल पड़े। सल्तनत हैरत से उन्हें जाते हुए देखती रह गयी। भैरव से उसने पूछा, 'कहीं उनलोगों ने पीछा करते हुए फिर निशाना साध लिया तो? '
भैरव ने कहा, 'यह आशंका उनके दिमाग में भी जरूर उभरी होगी...वे विशेष चैकसी बरत लेंगे। हो सकता है पुलिस को भी इत्तिला कर दें। चलो तुम फोन कर लो। इस तरह के हमले हमारे ऊपर भी हो सकते हैं।'
सल्तनत के चेहरे पर एक मायूसी उतर गयी। घर लौटी तो उससे खाना खाया न गया। लेट गयी वह चुपचाप। शाम को भैरव आया तो उसे समझाकर उसका जी बहलाने लगा, 'गीदड़भभकी देकर वह डराना चाहता है हमें। इतना आसान नहीं है किसी को मार देना। साले को जिंदगी भर जेल में चक्की पीसनी होगी। मरनेवाला तो मर जाता है लेकिन मारनेवाले की जिंदगी भी कम तबाह नहीं हो जाती है।'
'जिसकी पहुँच, ठेक और धाक होती है उसकी जिंदगी पर कोई फर्क नहीं पड़ता।'
'ठीक है तो हमलोगों ने हाथों में कौन-सी मेंहदी लगा रखी है। अगर उसकी ओर से गोलियाँ चलेंगी तो हम भी चुप नहीं बैठेंगे। मुँहतोड़ जवाब देंगे।'
'भैरव, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम टेकमल को पुख्ता भरोसा दिला दें कि हम उसके रास्ते में रोड़ा नहीं हैं और नाहीं हम उसकी कुर्सी के दावेदार हैं। हमें सिर्फ इस क्षेत्र के विकास और किसानों की खुशहाली से मतलब है। वह अगर इसमें मदद कर सकता है तो ठीक है, नहीं कर सकता है तो वह अपने रास्ते चले और हमें अपने रास्ते चलने दे। टकराव की कोई वजह ही न हो बीच में।'
'सल्तनत, ऐसा नहीं हो सकता। यहाँ कुछ भी होगा...विकास होगा, या विकास नहीं होगा, तो जाहिर है उससे टेकमल निरपेक्ष नहीं रह सकता। होगा, ऐसा वह चाहता नहीं, चूँकि इसमें मेहनत चाहिए, ईमानदारी चाहिए...और उसके बिना होगा तो श्रेय किसी और को मिलेगा और इसे निंदा का पात्र बनना होगा। इसलिए वह अपनी भलाई सिर्फ इसमें देखता है कि यहाँ कुछ भी न हो। दूसरे के जरिये से हो तो यह उसके लिए और भी आपत्तिजनक है। वह बर्दाश्त नहीं कर सकता इसे। अब हमें तय करना है कि हम क्या करें? एक गलत और गलीज आदमी से डर जाने की वजाय उसे रास्ते से हटा देना हमारे मिशन की सार्थकता है।' भैरव ने अपनी बात खत्म करके उसका चेहरा देखा...अब भी उदास और विरक्त था। उसने उसे छेड़ने की मुद्रा बना ली, 'एक बहादुर लड़की आज इतना कमजोर क्यों दिख रही है?'
सल्तनत की आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे। उसने कहा, 'आज हमारे बीच से कोई एक चला जाता तो हम कैसे झेल पाते इस सदमे को और कैसे बढ़ा पाते अपना अभियान! '
'बस भी करो सल्तनत, तुम तो आज जैसे एकदम पिघला हुआ मोम बन गयी हो। नीचे चलो, चाय पीते हैं। अब तक तौफीक अंकल भी आ गये होंगे।'
नीचे सचमुच तौफीक आ गये थे और चाय का दौर चल रहा था। तौफीक ने बताया, 'बात पक्की हो गयी है। एक महीने के भीतर हमें ट्रैक्टर मिल जायेगा।'
'सिक्यूरिटी के तौर पर जमीन बंधक एवं नगद भुगतान करने की भी व्यवस्था करनी होगी।'
अम्मा ने कहा, 'जमीन बंधक करना है तो मैं कर दूँगी।'
'तुम्हारे करने की जरूरत नहीं है...मैं अपने हिस्सेवाली जमीन मॉर्गेज कर दूँगा। रही बात डाउन पेमेंट की...वह भी इंतजाम हो जायेगा। मेरे संपर्क के कुछ बिजनेसमेन साथी हैं। थोड़ा-थोड़ा चार-पाँच साथी से ले लेने से काम निकल आयेगा। कुल कीमत का कम से कम दस प्रतिशत यानी चालीस हजार रुपये लगेंगे।'
'अंकल, आप तो हमलोगों के लिए संकट मोचक बन गये हैं। कोई भी समस्या हो समाधान तुरंत हाजिर है। उपायुक्त को जिस तरह आपने कन्विंस किया, किसी के लिए भी संभव नहीं था। टेकमल को वहाँ से निकलकर जाते देखने के बाद मुझे तो कोई उम्मीद नहीं थी।' भैरव ने अम्मा को विस्तार से पूरा प्रकरण बताया।
'सच पूछो तो उम्मीद मुझे भी नहीं थी। लेकिन मैं इसमें विश्वास करता हूँ कि बिना धैर्य खोये आदमी को अंतिम समय तक कोशिश जारी रखनी चाहिए। डीसी के रजामंद होने में मुझे अपने से ज्यादा उस डीसी का ही कमाल दिखता है कि वह एक बहुत ही इंसाफपसंद, ईमानदार और कोमल-हृदय आदमी है। इसके रहते हमलोग ज्यादा से ज्यादा जितना कर सकते हैं, कर लें। किसी क्षेत्र के विकास की एक कुंजी अगर वहाँ के चुने हुए जनप्रतिनिधियों के हाथ में होती है तो दूसरी कुंजी इन जिलाधिकारियों के पास भी होती है। तो कम से कम एक कुंजी के उपयोग का रास्ता तो हमारे लिए आसान हो ही गया है।'
'यह सब तो ठीक है, तौफीक मियाँ...हमें बहुत अच्छा लग रहा है सुनकर। मगर गोली चलानेवाले को कैसे रोकोगे? सल्तनत का मुँह देखो जैसे इसे साँप सूँघ गया हो।'
'सल्तनत...क्या हो गया तुम्हें? जब तक हमें कुछ नहीं हुआ तब तक कुछ हो जाता इसकी चिंता कतई नहीं करनी चाहिए। इससे हमारे मनोबल पर असर पड़ता है। गोली तो चलनी ही है...और चलेगी भी...टेकमल जैसे लोग जब निरुत्तर, असहाय और खारिज होने लगते हैं तो प्रतिद्वन्द्वी को मार देना...मिटा देना ही इनके पास एकमात्र उपाय रह जाता है। लेकिन हम उसे ऐसा करने के लिए आजाद नहीं छोड़ देंगे। हम उसी की भाषा में उसे जवाब देंगे। फिलहाल हमें अगले कार्यक्रम पर अपना ध्यान केन्द्रित करना है।'
'क्या है अगला कार्यक्रम ?' अम्मा ने पूछा।
'अभी से ही हमें फुलेरा बाँध की जमीन को तैयार करने में लग जाना होगा। उसे समतल बनाना, उससे रोड़ा-पत्थर और झाड़-काँटे आदि की सफाई करना, उसकी मेड़ डालकर घेराबंदी करना आदि कई काम हैं जिन्हें ट्रैक्टर आने के पहले कर लेना है। भैरव, तुम अपने पिता प्रभुदयाल जी को बोल देना, जरा वे देखभाल कर दें। वे एक पक्के किसान हैं। उनसे यह भी मशविरा करना है कि उस मिट्टी में कौन-सी फसल ज्यादा माकूल रहेगी।'
'ठीक है, मैं उन्हें कल ही बुला लेता हूँ।' भैरव ने कहा।
'नहीं, अभी उनका उस जगह पर जाना ठीक नहीं है।' सल्तनत ने हस्तक्षेप किया।
भैरव ने जरा नाराजगी की भंगिमा बना ली, 'सल्तनत, तुम तो लगता है जैसे किसी प्रेत कुएँ में फँस गयी हो जिससे निकलना ही नहीं चाहती।'
'सल्तनत ठीक कह रही है, भैरव...मेरा ही ध्यान इस तरफ नहीं गया था। उनका अभी वहाँ जाकर कोई काम करवाना वाकई निरापद नहीं है। तुम उन्हें यहाँ बुलाकर ले आना।' तौफीक ने सल्तनत का समर्थन करते हुए कहा।
'मेरी समझ से उस जमीन में मूँगफली और गन्ने की फसल बहुत बढ़िया हो सकेगी। चूँकि ये दोनों ही फसलें बलुआही मिट्टी में खूब अच्छी जमती हैं। उस बाँध में जिनके खेत हैं वे यही दो फसलें उगाते हैं। पइन बनाकर सकरी नदी का पानी अगर वहाँ तक लाया जा सके तब इसमें धान की भी जोरदार खेती हो सकती है। आगे प्रभु दयाल से पूछना ज्यादा फायदेमंद होगा।' अम्मा ने अपनी राय दी।
'कल जब सभी लड़के आयें तो उनसे बात कर लेनी हैं कि इसे कामयाब करने के लिए शुरुआत के कुछ दिन जमकर पसीने बहाने होंगे...वे मानसिक रूप से तैयार होकर परसों से भिड़ जायें। सदस्यों की संख्या 42 है और जमीन का कुल रकबा तकरीबन डेढ़ सौ बीघा होगा...मतलब एक आदमी पर लगभग चार बीघा की मेहनत। ज्यादा नहीं है...शहर में अगर इतना ही क्षेत्रफल में कोई कारखाना खुल जाता तो उससे हजारों आदमी की आजीविका चलने लगती। यहाँ भी हम इसे कारखाने की तरह ही चलायेंगे और साबित करेंगे कि कृषि को भी उद्योग की तरह लाभप्रद और कारगर बनाया जा सकता है।' तौफीक अपनी दूरदर्शिता की नयी-नयी तहें खोलने लगे।
'साबित होगा अंकल, जरूर होगा। लोग खेती से भागकर उद्योग की तरफ जाते हैं। आप उद्योग से निकलकर खेती की तरफ आये हैं। आपका तजुर्बा...इस उम्र में भी आपकी श्रमशीलता और यहाँ के लड़कों की एकजुटता तथा उत्साह...जकीर का आत्मोत्सर्ग और अम्मा की प्रेरणा...सबका योग सफलता ही नहीं किसी बड़ी सफलता का जन्म देगा।' भैरव ने बड़े आह्लादित होकर कहा।
'तुम्हारी यही अदा मुझे सबसे अच्छी लगती है, भैरव कि तुम गजब के आशावादी और सकारात्मक व्यक्ति हो। नेतृत्व करने वाले कमाँडर को इसी तरह होना चाहिए।' तौफीक ने उसकी पीठ सहलायी।
तौफीक अपना ज्यादा समय या कहा जाये सोने के बाद का पूरा समय अम्मा के घर पर ही व्यतीत करते थे। सारी गतिविधियाँ वहीं से संचालित हो रही थीं। खाना-पीना-नाश्ता-चाय सबकुछ वहीं होता था। सल्तनत, निकहत व मिन्नत ने तो अम्मा के घर को ही पनाहगाह, दरगाह और इबादतगाह मान लिया था। तौफीक सिर्फ सोने के लिए अपना घर आते थे। दो-चार बार तो अम्मा कह भी चुकी थी कि उसका इसी घर में सोना ज्यादा ठीक रहेगा। उसका अकेलापन भी नहीं रहेगा और इस घर में एक मर्द होने का सुरक्षा कवच भी मिल जायेगा। तौफीक को लगा कि यह प्रस्ताव ठीक है। इसी बीच मतीउर का जवाब आ गया कि वह गाँव आ रहा है तो उन्होंने यथास्थिति को बहाल रखा। एक सुबह वे सोये ही थे कि दरवाजे पर दस्तक हुई। टेकमल की आक्रामकता की वजह से अब उन्हें जरा सचेत होकर रहना पड़ रहा था। जाँच-परखकर उन्होंने दरवाजा खोला तो सामने शफीक, उसकी बेगम, अतीकुर और मुजीबुर खड़े थे। तौफीक ने अपने भाई और भौजाई को सलाम कहा। दोनों में किसी ने जवाब नहीं दिया...अतीक-मुजीब भी मुँह घुमाये हुए थे। बिना कुछ बोले वे घर के अंदर चले गये। वे क्या पूर्वाग्रह लेकर किस मंशा से आये हैं, उनके आवभाव ने पूरी तरह स्पष्ट कर दिया। तौफीक समझ गये कि इनसे रिश्ते सामान्य करने की शायद अब कोई भी कोशिश बेकार है। चुपचाप अपने कमरे में जाकर उन्होंने फिर लंबी तान ली।
दिन चढ़े तक वे सोकर उठे तो देखा घर में काफी चहल-पहल मची है। रोजा, नमाज और शरीयत के प्रति निष्ठा बरतने की कायल आसपास की औरतें शफीक बहू से किस्सा-कहानी में मशगूल हो गयी थीं। इदरीश भी उनकी खिदमत में आ जुटा था और दुकान से सौदा-सुलुफ लाने की भाग-दौड़ कर रहा था। करामत, नन्हकू, फुनन मियाँ आदि भी आकर मीटिंग-सीटिंग व काना-फूसी करने लगे थे। रसोई में सालन आदि बनने की खुशबू उठने लगी थी। तौफीक को लग रहा था जैसे घर में वह कोई ऐसा मुसाफिर हो जिससे यहाँ कोई परिचित नहीं। उसे एक विचित्र और खतरनाक मोर्चाबंदी किये जाने की बू आने लगी। वे धीरे से उठे और बिना किसी नित्य क्रिया के कपड़े आदि लेकर अम्मा के घर आ गये। यहाँ जब पूरी कमेंटरी सुनायी तो सब सकते में आ गये। सल्तनत ने अतीक और मुजीब के आने की खबर अपनी अम्मी को दी। सुनकर उसकी आँखें चमक उठीं। उसने पूछा, 'मतीउर कब आयेगा? '
सल्तनत प्रसन्न होकर उसका मुँह देखने लगी। कौन कहता है कि उसकी अम्मी पागल है। इसे पूरा होश-हवाश है और सब कुछ याद है। सल्तनत ने उसे गले से लगा लिया, 'अम्मी, आज तूने साबित कर दिया कि तू बिलकुल ठीक हो गयी है। तुम्हें भली-चंगी देखने के लिए मैं बहुत-बहुत तरसती रही हूँ, अम्मी। निकहत,' उसने हुलसते हुए निकहत को आवाज लगायी, 'देखो, निकहत, अम्मी एकदम ठीक हो गयी है। मतीउर को याद कर रही है, उसके बारे में पूछ रही है।'
पास आकर निकहत ने अम्मी की आँखों में झाँका, उनमें ढेर सारी ममता थी...ढेर सारी समझदारी थी और ढेर सारी जिजीविषा थी। निकहत की आँखें भर आयीं। उसने कहा, 'अगर तुम सचमुच ठीक हो गयी हो अम्मी तो अब भी हम दो बची बहनों की बलैया उतार दो। किसी की नजर लग गयी तुम्हारी बेटियों को। एक पागल बना दी गयी माँ के बच्चों का कुछ भी ठीक नहीं होता। तुम्हारी ममता और लालन-पालन की छतरी के बिना हमारी जिंदगी देखो अम्मी कैसे तितर-बितर हो गयी। तुम्हारी सभी बेटियों को तुम्हारा अभिशाप झेलना पड़ा। जवान हो रही बेटियों को माँ की निगहबानी की सबसे ज्यादा जरूरत होती है...सच अम्मी, तुम्हारे बिना हमें ठीक से जवान होना भी नहीं आया।'
निकहत जैसे एक आर्तनाद कर रही थी जो सीधे मिन्नत के सीने में उतरती चली गयी। निकहत को वह देखने लगी और जार-जार रोने लगी। अचानक उसके कंठ से स्वर फूट गया, 'मुझे माफ कर देना, बेटी। कब और कैसे मेरा दिमाग गैरहाजिर हो गया, मुझे कुछ पता नहीं। मैं काफी अर्से से समझने लगी हूँ कि मेरे बिना तुमलोगों ने बहुत दुख झेले हैं।'
तीनों माँ-बेटियों ने एक-दूसरे के गले लगकर खूब आँसू बहाये। दूर से खड़े तौफीक और अम्मा इन्हें देख रही थीं। उन्हें लग रहा था जैसे बेटियों से बिछड़ी माँ आज एक मुद्दत बाद वापस मिली है। दोनों ही यह सोच रहे थे कि मिन्नत अगर ठीक होती तो सचमुच इनके साथ जो ज्यादतियाँ हुईं, वे कतई नहीं होतीं।
सल्तनत ने अपनी माँ को बताया, 'तुम्हारा मतीउर यानी हम सबका मतीउर जल्दी ही आनेवाला है। वह शायद तुम्हें छोड़कर अब कहीं नहीं जायेगा। जाने भी मत देना उसे...तुम्हारे प्यार-दुलार के बिना उस लड़के का भी बहुत कुछ खो गया है। न उसे बचपन मिला, न उसे तालीम मिली, न उसे अच्छा भविष्य मिला।'
'मेरा अतीक-मुजीब कैसा है? वह गाँव आया है...मुझसे मिलने नहीं आयेगा? '
'हाँ, अम्मी...तुम्हारा अतीक-मुजीब गाँव आया है लेकिन वह तुमसे मिलने आयेगा या नहीं यह मैं नहीं जानती। वे कैसे हैं...हम कैसे हैं, यह जानने और बताने का अधिकार ही उसने हमसे छीन लिया। इसलिए उनके बारे में कुछ नहीं मालूम।' सल्तनत की आवाज एक आंतरिक पीड़ा से सनी थी।
'वे कहाँ हैं? मैं मिल आऊँ उनसे?' उतावलेपन से पूछा मिन्नत ने।
'वे बगल वाले अपने घर में ही हैं। तुम जरूर जाओ, अम्मी...तुम उनकी माँ हो...तुम हमारे बीच पुल की तरह बनी रहती तो शायद हम एक अच्छे भाई-बहन के तौर पर रिश्तों में हमेशा गुँथे होते। मैं तो अब भी उन्हें बहुत मिस करती हूँ, अम्मी...तुम्हारे हवाले से वे अगर हमें वापस मिल जायें तो यह हमारी एक बड़ी खुशकिस्मती होगी।'
तौफीक और अम्मा का ध्यान इन पर लगातार टिका था। सल्तनत की उदात्तता और बड़प्पन एक बार फिर उन्हें अभिभूत कर गया था। वे आज तक इस लड़की का थाह न ले सके कि इसके जिगर में प्रेम और करुणा की कितनी विशाल सरिता प्रवाहित है। जुल्म सहने की दशा में पत्थर की तरह वज्र हो जाती है और जब भावुक होती है तो किसी झरने की तरह बहने लगती है।
मिन्नत उठकर बेटे से मिलने चल पड़ी। मन में कोई आन-गुमान नहीं लाया कि वे खुद क्यों नहीं आये...यह क्यों जाये? माँ इसी बिन्दु पर माँ हो जाती है...कैसी भी हों उसकी औलाद...कैसा भी वे व्यवहार करें...माँ उनके साथ उदार रहेगी, स्नेहिल रहेगी, दयामयी रहेगी। अपने बच्चों के हर सितम का जवाब वह अपनी ममता से ही देगी। वह तेजी से घर की चैखट पार कर गयी। वे पता नहीं अपनी माँ के प्रति अपनी उपेक्षा के लिए कितना शर्मिंदा होंगे लेकिन एक माँ आज फिर सिद्ध करेगी कि उसका मातृत्व अजेय है।
धीरे-धीरे चलती हुई मिन्नत अपने पुराने आंगन में दाखिल हुई। शफीक बहू ने उसे सबसे पहले देखा तो बस देखती रह गयी। साफ-सुथरा, अच्छा-भला हुलिया और सीधी-सधी चाल। उसने आवाज लगायी, 'अतीक-मुजीब, देखो तुम्हारी अम्मी आयी है।'
दोनों निकलकर बाहर आये और पहले तो हैरत से देखते रहे फिर अस्लावलैकुम कहा।
'जीते रहो,' मिन्नत ने जवाब दिया। वे दोनों जैसे निहाल हो गये। बचपन से ही उन्हें याद नहीं कि अम्मा ने इस तरह बोलकर आशीर्वाद दिया हो।
'अम्मी, तू ठीक हो गयी? ' अतीक ने पूछा।
'क्यों, तुम्हें यकीन नहीं आ रहा।'
'खुदा का लाख-लाख शुक्र अम्मी...हम तो नाउम्मीद हो गये थे कि तुम्हारी दुआओं की नियामत अब हमें इस जनम में कभी नहीं मिलेगी।' मुजीब ने कहा
'बस अम्मी, तुम हमारे साथ चले चलना। बहुत तकलीफ झेल ली तुमने...अब वहाँ चैन व आराम की जिंदगी बसर करना।' अतीक ने पूरा सम्मान और अधिकार जताते हुए कहा।
मिन्नत ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। बात बदलते हुए पूछा, 'शादी कर ली तुम दोनों ने? '
'हाँ, कर ली...हमारे दो-दो बच्चे भी हैं।'
इसी तरह वे काफी देर तक कमरे में बैठकर बातें करते रहे। शफीक माँ-बेटों के इस लगे दरबार को दूर से ही देख रहा था, मगर अपनी बहन से सामना करने की उसे हिम्मत नहीं हो रही थी। उसे अपनी सारी दुष्टताएँ और ज्यादतियाँ याद आ गयी थीं ।
अंत में अतीक ने गाँव आने के अपने मकसद का हवाला देते हुए कहा, 'तुम अब ठीक हो गयी हो अम्मी तो सल्तनत और निकहत को ठीक रास्ते पर लाओ। बहुत जगहँसाई हो रही है इनके चलते। अगर ये नहीं मानेगी तो अंजुमन कमिटी ने इन्हें बिरादरी और कौम से निकाल देने का मन बना लिया है। सोचो, तब हमारी क्या इज्जत रह जायेगी...हम कहीं के नहीं रह जायेंगे...न घर के न घाट के। तौफीक मामू भी सनक गये हैं और तरक्कीपसंद बनने के जोम में दोनों बहनों को झाँसी की रानी बनाने पर तुल गये हैं। तुम समझाओ कि वे इदरीश के साथ रहें...इदरीश बहुत अच्छा शख्स है। हम जब से आये हैं हमारी तीमारदारी में लगा है। वह उनका अच्छी तरह खयाल रखेगा और परवरिश करेगा। उसे कुछ मदद चाहिए होगी तो हम देंगे।'
बिना जवाब दिये मिन्नत चलने के लिए खड़ी हो गयी।
मुजीब ने पूछा, 'तुमने कुछ कहा नहीं, अम्मी ?'
'तुम सभी बड़े हो गये हो...मेरे कुछ कहने का वक्त निकल गया है। अपने बारे में तुमलोग खुद फैसले लेने लायक हो गये हो। मेरी मुराद बस इतनी है कि किसी के साथ नाइंसाफी न हो।'
'अम्मी, एक मिनट रुकना।' अतीक ने कहा तो मुजीब ने एक थैला लाकर मिन्नत के हाथों में थमा दिया।
'इसे लेते जाना, अम्मी...तुम्हारे लिये कुछ कपड़े हैं और कुछ खाने का सामान।' मुजीब ने कहा।
थैला लेकर मिन्नत चल पड़ी। अतीक ने याद दिलाते हुए कहा, 'आते रहना, अम्मी...अभी हम कुछ दिन रहेंगे यहाँ।'
बिना कुछ बोले मिन्नत चल पड़ी।
मिन्नत ने टुकड़े-टुकड़े करके वहाँ का वाकिया यहाँ सुना दिया। उनके बर्ताव से इन्हें खुशी हुई। सल्तनत ने तो ऐसा सोचा ही नहीं था। सच ही कहा है कि दिल से पुकारो तो अपना खून उफन पड़ता है। अपनी माँ के लिए उनके मन में अभी भी जगह बची हुई थी, इसीलिए उसे ध्यान में रखकर कपड़ा, बिस्कुट, खजूर, चनाचूर आदि सौगात लेते आये। यह अच्छा संकेत था पुल के पूरी तरह ध्वस्त न होने का। सल्तनत के भीतर फिर उनके लिए लगाव अँखुवाने लगा। उसका जी भी उन्हें देखने के लिए मचल उठा लेकिन बीच की दरार इतनी चैड़ी थी कि उसे हठात पाट लेना उसके लिए आसान नहीं था। चुनांचे वह छत पर चढ़कर आँगन में या फिर बाहर के रास्ते पर ध्यान टिकाये रखने लगी। कहीं तो दिख ही जायेंगे इन नामुरादों के जलवे। ममानी का मगज देखो, यह नहीं हुआ कि जरा झाँक लें इस तरफ। तौफीक मामू ने देखा कि वे बुरी तरह उनसे मुँह फुलाये हुए हैं तो उन्होंने तय कर लिया कि उनके रहने तक वहाँ न जायें तो ज्यादा बेहतर होगा। नाहक उन्हें भी खलल पड़ती होगी और माहौल देखकर उनका भी जी खराब होता है। अपना कामचलाऊ बोरिया-बिस्तर लेकर वह इस पार ही चले आये।
आगे पता चला कि दोनों भाई रोजा-नमाज के खूब पाबंद हो गये हैं और मस्जिद जाकर पाँचों वक्त की नमाज अदा करते हैं। सल्तनत की नजर फिर तो उन पर बार-बार पड़ने लगी...घर से मस्जिद और मस्जिद से घर जाते हुए। उसे अजीब-सी वितृष्णा हुई। इतनी ऊँची तालीम एमए, पीएचडी करके आदमी क्या ऐसा बन जाता है...एकमुखी, दकियानूस, फिरकापरस्त, कट्टर ? कैसा हुलिया बना लिया है दोनों ने...लंबी दाढ़ी, सिर पर छोटे-छोटे बाल, चूड़ीदार पाजामा और लंबी शेरवानी...पूरी तरह टिपिकल मौलवी-मुल्ला और पीर-फकीर वाला वेश। इस उम्र में तो इन्हें पतलून-शर्ट और क्लीन शेव में दूर से ही स्मार्ट दिखना चाहिए था। इतनी अच्छी शक्ल-सूरत है...दप-दप गोरा, भरा-पुरा, काया छह फुट की। सल्तनत को ताज्जुब हुआ कि जिस तौफीक मामू की देखरेख में इन्होंने दुनियादारी का पहाड़ा पढ़ना शुरू किया, उन्होंने तो कभी रोजा-नमाज नहीं किया...मजहब के चश्मे लगाकर इंसान को खानों में बाँटने का काम नहीं किया, फिर भी वे इंसानियत के सबसे बड़े प्रचारक रहे... ढोंग और पाखंड के कटु आलोचक रहे। इन्हें देखते हुए भी ये लड़के पता नहीं कैसे उलटी दिशा की तरफ बढ़ते चले गये? खबर आने लगी कि कभी मस्जिद में, कभी मदरसे में, कभी घर में दाढ़ीछाप लोगों के साथ इनकी खूब बैठकें हो रही हैं। इनके सामने जो एकसूत्री कार्यक्रम था वह किसी से छिपा नहीं रह गया था।
बताया जा रहा था कि करामत और नन्हकू के कहे अनुसार वे उनके फैसले को लागू करवाने के लिए कई स्तरों पर प्रयास कर रहे हैं। टेकमल से भी इनकी नजदीकी करवा दी गयी थी और अब उसके पास इनका आना-जाना जारी हो गया था। कुछ लोगों के लिए यह बड़ा थ्रिलिंग होता है कि कोई भी सूत्र तलाश कर किसी नामी-गिरामी आदमी के आसपास मँडराते रहें...उनके खाँसने-छींकने की अदा की दाद देते हुए बलि-बलि जायें। अतीक-मुजीब इसी मनोवृति के शिकार थे। टेकमल से जान-पहचान बढ़ जाने से उन्हें लगा जैसे उनकी हैसियत जरा तगड़ी हो गयी।
एक दिन कोई लड़का जकीर की अम्मा को बुलाने आ गया कि शफीक बुला रहे हैं। अम्मा को गुस्सा तो बहुत आया कि बड़े नवाब के नाती हो गये हैं कि बुला रहे हैं। खुद यहाँ आकर मिलने में क्या उसे शर्म आ रही थी कि पाँव में बेड़ी पड़ी थी। मन तो इनकार कर देने का था कि जाओ मैं नहीं जाती। लेकिन वह चली गयी कि कंबख्त को इतनी भी तमीज नहीं है तो जायें जहन्नुम में...हमारा क्या बिगड़ेगा। अम्मा वहाँ चली गयी। शफीक और ममानी ने बड़े अदब से उन्हें बैठाया और हाल-समाचार पूछा। फिर अपने मतलब पर आ गये, 'अम्मा, तुम्हीं एक हो जिसके चाहने से सब कुछ ठीक हो सकता है।'
'मैं समझी नहीं, शफीक...क्या गड़बड़ है जिसे तुम ठीक करना चाहते हो? अब तक तो जो भी गड़बड़ियाँ हुई है, उसके किरदार तुम्हीं रहे हो। आज जब तुम नहीं हो तो कहाँ और कैसे गड़बड़ हो गयी? '
'अम्मा, मेरी मुराद सल्तनत और निकहत से है। उन्हें आपने अपने घर में पनाह दे रखा है...जहाँ भैरव कमीने के आने-जाने पर कोई रोक-टोक नहीं है। लिहाजा ये लड़कियाँ बदमिजाज और ढीठ होती चली गयीं। इदरीश हमलोगों का लिहाज करके अब तक चुपचाप है। पंचायत में उसका जाना लाजिमी था। अब हमलोगों का यह फर्ज है कि पंचायत की ताकीद को अमल में लायें। आप मदद कीजिए हमें।'
'शफीक, पंचायत तो पहले इस बात पर लगनी चाहिए कि तुमने एक अंधे और बहरे की तरह इन दोनों बहनों को एक ऐसे अंधे कुएँ में ढकेल दिया जिसमें एक दरिंदे का निवास था। पंचायत तो इस बात पर होनी चाहिए कि तुमने अपनी बहन मिन्नत को अत्याचार की चक्की में पीसकर उसे और भी पागल बना दिया। तुम किसी खुशफहमी में मत रहना, तुम्हारे दिन अब लद गये हैं। पनाह उन्हें अपने घर में मैंने नहीं दिया, बल्कि उन्होंने नया जीवन देकर मुझे दिया है इस दुनिया में, वरना जकीर के गुजर जाने के बाद मैं भी जिन्दा कहाँ रह गयी थी।'
'ठीक है, मुझे जो कहना था कह दिया, अब आगे जो होगा उसे सँभाल लेना। अब यह तय हो गया है कि यहाँ के मुसलमान इस भैरव को अपनी आबरू से लगातार खिलवाड़ करते हुए बर्दाश्त नहीं करेंगे।'
'हाँ शफीक, यहाँ के मुसलमान यह बर्दाश्त करेंगे कि उनकी लड़कियों को उन्हीं का एक आदमी कसाई की तरह रोज जिबह करे। यहाँ के मुसलमान यह बर्दाश्त करेंगे कि उनकी खेती-बाड़ी सब चैपट हो जाये और वे बरबाद हो जायें। यहाँ के मुसलमान यह बर्दाश्त करेंगे कि कोई आदमी उन्हें अपने फायदे के लिए भड़काये और वे भड़क जायें। अब भी होश में आओ शफीक, यह भैरव तुम्हारे भले आदमी इदरीश से एक लाख गुना अच्छा है। अब ये बच्चे न हिन्दू हैं, न मुसलमान हैं...इनका कौम अब सिर्फ मुहब्बत है। चलती हूँ...रात में ढंढे दिल से सोचना और अक्ल आ जाये तो आवाज लगा देना, तुमने जो भी गुनाह किये हैं, मैं उनकी माफी दिलवा दूँगी।'
'तुम उनसे माफी दिलवाओगी या उनके किये की सजा भोगोगी, यह तुम्हें जल्दी ही मालूम पड़ जायेगा। तुम जा सकती हो अब।'
'ठीक है, तुम्हारी इस गीदड़भभकी को अपने साथ लेकर जा रही हूँ। तुम्हारे जो तेवर हैं, ऊपरवाला ही तुम्हें बचा सकता है।'
अम्मा चल पड़ी वहाँ से। शफीक और उसकी बेगम हैरान रह गये...इस बुढ़िया के मिजाज की ऐसी ज्यामिति हो सकती है, उसने इसकी कल्पना तक नहीं की थी।
सल्तनत सोच रही थी कि कितना अच्छा हो कि अतीक-मुजीब के रहते मतीउर भी आ जाये। मतीउर उसका सबसे निकटतम नैतिक अवलंब था। जो काम भैरव, तौफीक मामू, अम्मी और अम्मा नहीं कर सकती थीं, वह मतीउर कर सकता था। वह रोज एकबार मतीउर को अपने ध्यान में लाती। जो खिचड़ी पक रही थी मतीउर अकेले उसका स्वाद बेजायका कर सकता था।
सल्तनत का सोचना सच हो गया। मतीउर आ गया गाँव। पूरा घर खुशियों से जैसे नहा उठा...सभी लोग खिलखिला उठे। मिन्नत में तो जैसे एक नयी स्फूर्ति आ गयी। उसका सबसे छोटा बेटा...सबसे पसंदीदा और दुलारा बेटा...उसका सबसे ज्यादा खयाल रखनेवाला बेटा अब उसकी आँखों के सामने था। शहर में रहकर मतीउर का चेहरा जरा खिल गया था और उसकी समझदारी में भी धार आ गयी थी। अपनी अम्मी को स्वस्थ और नीरोग देखकर उसके हर्ष का ठिकाना नहीं था। सल्तनत ने बताया,'जब से अम्मी ठीक हुई, तुम्हें रोज याद करती थी।' मतीउर ने उसके हाथों को अपने कपोलों से सटा लिया।
अम्मा ने कहा, 'हमारे सारे खेत तुम्हारे आने की बाट जोह रहे थे मतीउर, अब सँभालो तुम इन्हें। आज से इनके मालिक-मुख्तियार सब तुम्हीं हो। यहाँ पहले जैसी बदहाली नहीं है, गाँव के सभी लड़कों ने मिलकर एक नयी सुबह लाने की तैयारी की है। तुम्हारे तौफीक मामू, भैरव, सल्तनत, तारानाथ, चन्द्रदेव आदि सभी जी-जान से भिड़े हैं कि खेती ऐसा काम बन जाये कि पढ़े-लिखे लोग इसे पहली पसंद बनायें। तुम इस अभियान में इनकी मदद करो। चूँकि खेती करने का जो हुनर और धैर्य तुममें है, वह किसी में नहीं है।'
तौफीक ने उसे महत्व देते हुए समझाया, 'यहाँ कई और भी चुनौतियां हैं, जिनका तुम्हें सामना करना है और करारा जवाब भी देना है। निकहत और सल्तनत के भविष्य को रौंदनेवाले तत्व अब भी इस फिराक में हैं कि इन्हें घर से बेघर करके दोजख में ढकेल दें। बदकिस्मती से इस खेल में तुम्हारा दोनों भाई और शफीक मियाँ भी शामिल हैं। हालाँकि ये जानबूझकर नहीं नादानी और नासमझीवश ऐसा कर रहे हैं।'
निकहत रसोईघर के दरवाजे को पकड़कर मासूमियत से चुपचाप खड़ी थी और मतीउर को एकटक देखे जा रही थी। मतीउर उठकर उसके पास गया और आत्मीयता के तल से निकालकर भीगी हुई आवाज में पूछा, 'कैसी है तू, आपा? '
'क्या कहूँ, देख लो खुद ही। तुम्हारे यहाँ रहे बिना हमारी खैरियत का अल्लाह ही मालिक है।'
'मैं अब आ गया हूँ, आपा...तुमलोगों के बिना मेरे दिन भी अच्छे नहीं गुजरे। यहाँ की बहुत याद आती रही...सबसे ज्यादा तुम्हारी और अम्मी की। सल्तनत आपा की तो जानता था कि भैरव है। जब सुना कि तौफीक मामू यहाँ आ गये तो मुझे बहुत तसल्ली मिली। अपने इस घर को ममानी ने एक बड़े मकसद के लिए देकर सबको यहाँ बसाया, मैं तो वाकई इनका गुलाम हो गया हूँ। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है इस घर का इस शक्ल में ढलना।'
घर में भैरव दाखिल हुआ। वह और मतीउर दोनों एक-दूसरे को देखकर खिल उठे। हुलसते हुए मतीउर भी आगे बढ़ा और भैरव भी। दोनों गले से लिपट गये। भैरव ने उसे अच्छी तरह नापते हुए कहा, 'चलो, शुक्र है तुम दुबले नहीं हुए शहर में। बहुत मन लग रहा था न...आने का नाम नहीं ले रहे थे...चिट्ठी न जाती तो आते भी नहीं।'
'सच पूछो तो रोज मन होता था कि भाग आयें लेकिन मन मसोस कर रह जाता था कि आकर करेंगे भी क्या? गाँव तो पुरखों और अपनों से बनता है लेकिन शहर में जो एकाध अपने होते हैं वे भी अपने नहीं रह जाते। अतीकुर और मुजीबुर भाई साहेब ने दो माह बाद ही मुझे अलग कर दिया था और कहा था कि शहर में रहना है तो किसी पर बोझ बनकर नहीं, आत्मनिर्भर बनकर रहना होगा। मैं एक सेठ के गोदाम में ट्रकों पर बोरा लादने और उससे उतारने का काम करता था। उन्हें इतना भी धक-विचार नहीं हुआ कि ऐसे कुली-कबाड़ी के काम की बुनियाद पर मुझे एक रहने लायक घर भी नहीं मिल सकता, जबकि मैंने उन्हें कह रखा था कि अपने परिवार के गुजर-बसर के लिए हर हाल में मुझे गाँव में पैसे भेजने हैं। उनके कानों पर एक जूँ तक नहीं रेंगी।'
'अब उस दुखद प्रसंग को भूल जाओ, मतीउर। तुम्हारे अपने इस गाँव में ही एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है, जिसमें तुम्हारी भूमिका सबसे अलग हटकर होगी। तुम हमारे इस अभियान में एकदम खास आदमी होनेवाले हो।'
'तुमलोगों ने जितना कुछ किया है, मैं सुनकर अभिभूत हूँ। मेरे लायक जो भी काम होगा, मुझे बताना। मैं अब पूरी तरह तुमलोगों के साथ हूँ।'
बातों का सिलसिला बहुत देर तक चलता रहा। यह सुविधा थी इस घर में कि खाते-पीते या अन्य काम निपटाते हुए भी घर कभी सभागार में, कभी मनोरंजन गृह में बदल जाता था। आगे भैरव ने फुलेरा बाँध के बारे मे अम्मा के पूछने पर जानकारी दी, 'जमीन को समतल करने का काम तेजी से चल रहा है। आज प्रखंड विकास पदाधिकारी अमीन लेकर आये थे...जमीन की उन्होंने नापी-जोखी की। कुल 170 बीघे का रकबा आँका गया।'
जमीन की लेवेलिंग की बात आयी तो तौफीक ट्रैक्टर की प्रगति के बारे में बताने लगा, 'शफीक मियाँ खेत और घर का बँटवारा करना चाहते हैं। उन्होंने दो भाग करके एक प्रपोजल भी बनाया है। दोनों पर गोटी गिरा दी जायेगी, जो जिसके हिस्से में पड़े। चलो अच्छा ही है...मेरा हिस्सा अलग हो जायेगा तो मैं अपनी वाली जमीन ट्रैक्टर फाइनांस कराने के लिए बैंक के पास आराम से बंधक रख सकूँगा।'
'अब तो उस ट्रैक्टर का ही काम है। पिछले सप्ताह जो थोड़ी वर्षा हुई तो देख रहा हूँ कि आहर और पोखर में काफी पानी जमा हो गया है। मतीउर आ ही गया है...ट्रैक्टर का असल इंचार्ज तो इसे ही होना है।'
'मुझे यकीन नहीं हो रहा कि मैं जो देख-सुन रहा हूँ वह सच है। मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं शहर में ही हूँ और गाँव का ख्वाब देख रहा हूँ...खुशियों और सुकूनों से भरा यह घर...आहर...पोखर...सहकारिता भूमि...ट्रैक्टर...इतना कुछ एक साथ कैसे हो सकता है? ' मतीउर ने माथा चकराने वाले अंदाज में कहा।
'मतीउर...तुम्हें हकीकत से रूबरू करवाने के लिए शाम को हम तुम्हें लेकर सब कुछ दिखाने चलेंगे।'
शाम में मतीउर को लेकर भैरव और सल्तनत आहर के अलँग (बाँध) पर आ गये। भैरव ने कहा, 'देखो, मतीउर, यह है हमारे खेतों का अमृत कुंड।'
हर्ष मिश्रित आश्चर्य से मतीउर की आँखें आहर के पूरे भूगोल को देखती रह गयीं। जो टूट-फूट कर अस्तित्वहीन हो गया था उसका ऐसा कायाकल्प। इस कायाकल्प के मूल में निश्चित रूप से इन दोनों की बेचैनी और कोशिशें ही कारक रही हैं। मतीउर ने फख्र से दोनों को निहारा। प्रेम के इस एक जोड़े का इतना बड़ा कमाल! क्या बादल में समायी बेइंतहा बिजली की तरह प्रेम की तरलता में भी इतनी-इतनी ऊर्जा समाविष्ट रहती है! आहर का लंबा-चैड़ा विस्तार अति रमणीक लग रहा था। यत्र-तत्र ढेर सारे पक्षी जल-विहार कर रहे थे। गाँव के कुछ लोग बंसी लेकर मछली फँसा रहे थे। एकाएक कितना प्राणवंत और बहूद्देशीय हो गया था यह आहर। उसकी बाँध इतनी चैरस और मजबूत कर दी गयी थी कि उस पर आराम से ट्रक दौड़ाया जा सकता था। उसके किनारे लगाये गये पौधे तेजी से फुरफुराने लगे थे। गाँव के किसानों और सहकारिता के लड़कों द्वारा उसकी नियमित देखभाल की जा रही थी...खाद, पानी, कोड़नी-निकौनी और डोर-डंगरों से रक्षा। बिना किसी प्रेरणा, प्रोत्साहन और सरकारी पहल के पर्यावरण संरक्षण का इतना बड़ा कार्य-निष्पादन! यह पूरा आहर भर जाये तो गाँव की दो तिहाई खरीफ फसल तो जरूर ही उपज जायेगी। नहर के कारण पानी का इतना बड़ा जलागार रख-रखाव के बिना ध्वस्त होता चला गया था। किसी को इसे दुरुस्त करने की तरफ न ध्यान आया और न साहस हुआ। नाहक झेलते रहे सुखाड़ का अभिशाप। उन्हें बाँध का एक चक्कर लगाने में पूरा पैंतालीस मिनट लग गया।
इसके बाद वे पोखर पर आ गये जो गाँव की आबादी से बिल्कुल ही सटा हुआ था। खस्ताहाल हो-होकर एक नाले में तब्दील हो गया यह पोखर अब किसी तीर्थस्थल का सुंदर विशालकाय सरोवर लगने लगा था। इसमें पूरब और पश्चिम तट पर दो स्नानघाट पहले से बने हुए थे जो जर्जर होकर बेकाम हो गये थे। दोनों ही घाटों का अब नवनिर्माण से भाग्योदय हो गया था। वे खूब फब रहे थे। इन घाटों पर दर्जनों महिलाएँ कपड़ा धोना, बर्तन माँजना, नहाना आदि क्रियाओं को संपन्न कर रही थीं। आपस में उनके बोलने-बतियाने, झगड़ने, चुगली करने, बच्चों को डाँटने-डपटने आदि से एक ऐसा कोलाहल सृजित हो रहा था जो कर्णकटु नहीं था। इस कोलाहल में गाँव के दुख-सुख व हर्ष-विषाद तथा जीवन-संघर्ष के गतिशील रहने की आहट समायी थी। इन महिलाओं में धर्म और जाति की कोई सीमारेखा या निर्धारित खाँचा नहीं था। जहाँ तुफैल अंसारी की घरवाली बर्तन माँज रही थी, उसी के बगल में दशरथ यादव की मेहरारू अपने बेटे को नहला रही थी। बेटा तड़फड़ा रहा था...रो रहा था।
दक्षिण में ऊपर से ढलान देकर एक घाट जानवरों के लिए खास तौर पर बनाया गया था। वहाँ बहुत सारे जानवर दिख रहे थे...कुछ पगुराते हुए, कुछ एक-दूसरे से छेड़-छाड़ करते हुए, कुछ मचल-मचलकर पानी पीते हुए, कुछ पानी में घुसकर मस्ती करते हुए। दो-तीन भैंसें गहरे पानी में प्रविष्ट करके तैर रही थीं और भीतर के ताप से मुक्ति पा रही थीं। इन्हीं के आसपास दो-तीन किशोर भी तेज-तेज तैरने की होड़ कर रहे थे। तात्पर्य यह कि पोखर अपने चरित्र से पूरी तरह समाजवादी व्यवस्था का चित्र दिखा रहा था। यहाँ बाघ और बकरी एक ही घाट में पानी पी रहे थे। यह सामाजिकता और समरसता का एक केन्द्र था। पछियारी टोले की गनौरवाली को पुरवारी टोले की मंगतूराम की घरवाली से अगर नेनुआ या करेला का बीज माँगना है तो पोखर-घाट से सर्वसुलभ जगह दूसरी नहीं हो सकती थी। सुबह-शाम दोनों को ही आना था नहाने या कपड़ा धोने। ज्यादा दिन नहीं हुए कि मतीउर इस पोखर की दुर्गति से विस्मृत हो जाता। यह गाँव की नालियों और कचड़ों का घूरा बनकर रह गया था। आज इसका पानी बनारस के गंगाजल से भी कहीं ज्यादा साफ और स्वास्थ्यकर था। गाँव की नालियों का निकास कहीं और मोड़ दिया गया था। कूड़ा और कचड़ा फेंकने और इसमें बहाने की आदत सबने अपने-आप ही छोड़ दी थी, चूँकि इसका दुष्परिणाम वे भुगत चुक थे। पोखर के बिना गाँव की रंगत बिगड़ गयी थी...परेशानी बढ़ गयी थी और आपसी लगाव प्रभावित हो गया था।
मतीउर ने मन ही मन तय किया कि सुबह का स्नान वह इसी पोखर में आकर किया करेगा। जब से उसने यहाँ होश सँभाला, इस पोखर को इस रूप में कभी नहीं देखा कि कि इसमें नहाया जा सके। मतीउर ने अपनी आँखों में गर्व भरकर भैरव को निहारा, जैसे कह रहा हो 'लाजवाब काम किया है तुमने, दोस्त!' भैरव ने उसके चेहरे पर ठहरे मौन संवाद को भाँपते हुए कहा, 'यह सब लतीफगंज विकास कमिटी का कमाल है मतीउर, मेरा नहीं।'
मतीउर ने कहा, 'तुम किसी काम के हो, यह तुमने कब स्वीकार किया है कि आज करोगे?'
सल्तनत ने संदर्भ बदलते हुए कहा, 'क्या अब हमलोगों को फुलेरा बाँध भी चलना है? '
'चल सकते हैं,' भैरव ने कहा, 'अभी सूरज डूबा नहीं है, रोशनी रहते हम वहाँ चक्कर मारकर लौट सकते हैं।'
'तुमदोनों बढ़ो, मैं जरा झटपट एक काम कर लेती हूँ।' सल्तनत ने कहा।
'कौन-सा काम?' भैरव ने पूछा।
'मैं कर के आती हूँ न...तुम चलो तो ? '
'अब बताओगी भी...मेरे करने लायक होगा तो तुमसे जल्दी मैं कर लूँगा। अपने पैर की तकलीफ का तो तुम्हें खयाल ही नहीं रहता।' भैरव ने एक अपनत्व भरी झिड़की से उसे राजी करने की कोशिश की।
'हम आ रहे थे तो हरिजन टोली का जोखू माँझी जाल लेकर जा रहा था। मछली पकड़ने में उसकी उस्तादी का सभी लोहा मानते हैं। अब तक वह जाल डालकर एकाध खेप निकाल चुका होगा। आज मतीउर आया है...मछली का यह बेहद शौकीन है। क्यों नहीं एक-डेढ़ किलो हम उससे खरीद लें? '
'तो ऐसा कहो न! मैं जाकर ले आता हूँ। इसके लिए तुम्हें जाने की क्या जरूरत है? अगर वह अब तक नहीं निकाल पाया होगा तो उसे कह दूँगा कि घर में पहुँचा देगा।' भैरव ने उसे अधिकार से बरजते हुए कहा।
'तुम दोनों ही न जाओ और मैं चला जाऊँ तो कैसा रहेगा? ' मतीउर ने छोटे होने के नाते अपना पक्ष रखा।
'जी नहीं...इस काम के लिए सिर्फ और सिर्फ मैं जाऊँगा। तुमलोग धीरे-धीरे फुलेरा बाँध की तरफ बढ़ते चलो।'
भैरव तेजी से मुड़कर चल पड़ा। मतीउर उसकी इच्छा-पालन कार्रवाई पर मोहासिक्त होकर उसे फौरन जाते हुए देखता रह गया। सल्तनत ने उसका भाव समझते हुए कहा, 'भैरव ऐसा ही है, मतीउर...इस पोखर से भी कहीं ज्यादा पवित्र...ज्यादा तरल और ज्यादा गहरा। मेरी परेशानियों को वह अपने दामन में समेट लेने का एक भी मौका खाली जाने नहीं देता।'
'जानता हूँ, आपा...मछली तो बगल से ही लाना था...तुम तारे तोड़कर लाने के लिए भी कह दो तो यह आदमी आसमान में सीढ़ी लगा लेगा। तुम भी तो ऐसी ही हो, इसके बिना तुम्हारी साँस भी ठीक से कहाँ चलती है।'
सल्तनत ने इस मौके को बिल्कुल अनुकूल समझकर टेकमल और इदरीश की शैतान-कथा सुना डाली...टेकमल की गीदड़-धमकी...उसके द्वारा इदरीश का बेजा इस्तेमाल...पंचायत के बहाने से कौमी तंजीम के सदस्यों द्वारा एकतरफा और पूर्वनियोजित फैसले थोपवाने की साजिश तथा गोली चलवाकर खून-खराबे की नीयत का प्रदर्शन। मतीउर अचम्भित रह गया...दुश्मनी का इतना खुल्लमखुल्ला और घिनौना इजहार। गाँव को कमबख्तों ने क्या युद्ध का मैदान बना दिया? इतना कुछ सहना पड़ रहा है इन्हें? प्यार के दुश्मन बन जाने की बुरी आदत क्या यह दुनिया कभी नहीं छोड़ेगी? मतीउर का जबड़ा कस गया। मन ही मन उसने संकल्प किया कि तुम्हें देख लूँगा, टेकमल।
जब मछली के लिए कहकर भैरव आ गया तो वे फुलेरा बाँध तक पहुँच चुके थे। टीलों, पहाड़ी के अवशेषों, झाड़ियों और खर-पतवारों से पूरी तरह भरी रहनेवाली यहाँ की जमीनें किसी काम की कभी बन जायेंगी, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। अभी यह जमीन खेती करने के लिए एकदम फिट हो गयी थी। मतीउर ने गर्दन उठाकर दूर तक नजर दौड़ायी...170 बीघे का भूखंड...बीच में कोई मेड़ नहीं...कोई पार्टीशन नहीं...दो-चार ट्यूबवेल बिठा दिया जायें तो यहाँ से सोना उगाया जा सकता है। मतीउर को पहली बार लगा कि लोग जितनी खोपड़ी शहरों में कारखाना लगाने में करते हैं, उसका आधा भी अगर गाँव के खेतों और परती जमीनों के ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने के बारे में लगायें तो प्रगति की गति कई गुना ज्यादा तेज की जा सकती है।
मतीउर ने कहा, 'भैरव बाबू! तुमलोग यहाँ इतना बड़ा-बड़ा काम कर रहे थे और मैं वहाँ नाहक स्साला बोरा ढोने में वक्त बरबाद कर रहा था।'
'नहीं मतीउर, तुम्हारा समय वहाँ बरबाद नहीं हुआ...तुममें एक नयी समझदारी आयी...ज्ञान बढ़ा...तुम्हारी झिझक खत्म हुई...आत्मविश्वास बढ़ा...गाँव और शहर में फर्क की जानकारी हुई...अपने रिश्तेदारों की अहमियत से वाकिफ हुए...गाँव से बिना गये यह सब सीखने में काफी वक्त लग सकता था।'
भैरव ने कहा तो मतीउर उसका मुँह देखता रह गया। फिर कहा, 'भैरव बाबू, तुम्हारे जैसे ही लोग होते हैं जो बेकार की चीजों से भी काम की चीजें बना लेते हैं।'
सल्तनत को हँसी आ गयी। फिर समर्थन करते हुए कहा, 'भैरव ने ठीक कहा है, मतीउर, तुम्हें देखकर लगता ही नहीं कि तुम वही मतीउर हो जो मंदबुद्धि-सा ठिठुरा, सहमा, चुपचाप और मुरझाया रहता था। कुछ भी हो जाये, घट जाये...उस पर कोई असर नहीं। उसके सिर्फ मिट्टी, फसलें, पशु, पक्षी, पेड़, पहाड़, आसमान, नदी, नाले आदि से ही सरोकार दिखते थे।'
मतीउर ने महसूस किया कि उसके बारे में यह आकलन बिल्कुल ठीक है।
भैरव ने अब जमीन की तरफ सबका ध्यान केन्द्रित किया, 'अब बताओ, इसमें पहली फसल क्या लगनी चाहिए? '
'पहले तो इसमें गोबर-खाद डालने की जरूरत है। ट्रैक्टर आ जाये तो यह काम आसानी से हो सकता है। उसके पहले बैलगाड़ी भी लगायी जा सकती है। पहली फसल ऐसी लगनी चाहिए जिसमें पानी की ज्यादा जरूरत न हो। इस खयाल से आधी जमीन में मूँगफली और आधी में गन्ना लगाना उचित रहेगा।' मतीउर ने कहा।
'गन्ना तो ठीक है...लेकिन इसकी बिक्री कहाँ होगी? चीनी मिल जब से बंद हुई, गन्ने का यहाँ भविष्य ही अंधकारमय हो गया।' सल्तनत ने अपनी राय दी।
'तब तो मूँगफली पर ही पूरा ध्यान केन्द्रित करना होगा।' मतीउर ने कहा।
शाम ढल चुकी थी। जानवर घर लौटने लगे थे। अषाढ़ का शुक्ल पक्ष चल रहा था। अँजोरिया रात थी, लेकिन चाँद बादलों से ढका था। पानी बरसने की अपेक्षाओं वाले ये दिन थे। धान का बिजड़ा गिराने का समय हो गया था। खेतों में किसानों की गतिविधि शुरू हो गयी थी। मतीउर सही समय पर गाँव आ गया था। घर आते हुए कई ग्रामीणों से उसने राम-सलाम किया और खेती का हालचाल पूछा।
टेकमल का दरबार सजा था। उसकी कीर्तन मंडली के लोग बारी-बारी से कीर्तन गाने में मशगूल हो गये थे। उस तक सारी अद्यतन सूचनाएँ विश्वस्त चारणों द्वारा परोसी जा रही थी। संसद का मानसून सत्र चल रहा था, जिसमें पीछे बैठकर ऊँघने के लिए उसे डेढ़ महीने के दिल्ली प्रवास से गुजरना पड़ा। कभी-कभी ऊँघने के स्थान पर उसे कुछ पार्टी वाले हल्ला करने या कुर्सी फेंकने या माइक उखाड़ने आदि का गुरुतर दायित्व भी साग्रह सौंप देते थे। चूँकि सभी जानते थे कि ऐसे कार्य को बखूबी अंजाम देने में उससे ज्यादा दक्षता किसी नेता को हासिल नहीं है। वह निर्दलीय सांसद था इसलिए उसे सुविधा से कोई भी पार्टीवाले हायर कर लेते थे। उसके बेपेंदी के होने का यह एक अतिरिक्त लाभ था। ऐसे मौके उसे सार्थकता प्रदान करते थे और उसे गाँव में न होने का अफसोस जरा कम हो जाता था। यों संसद में ऊँघने और झपकी ले-लेकर सोने का आनंद भी कम नहीं था, चूँकि इसी काम के उसे मोटे भत्ते मिलते थे। कुछ पाने के लिए कुछ तो गँवाना ही पड़ता है।
उसने अपने पूरे क्षेत्र में नये-नये बने दरारों, सूराखों, हादसों तथा त्रासदियों की खबर लेकर एक लंबी साँस ली। अपनी धौंस कायम रखने के लिए जहाँ भी उसे टाँग घुसाने की जरूरत पड़ती थी अपने कारकूनों को वह भिड़ा देता था। कोने-कोने के शातिर प्रतिनिधि उसके कुख्यात दस्ते में शामिल थे। इधर कुछ दिनों से उसकी वक्रदृष्टि का केन्द्र लतीफगंज में चल रही गतिविधियाँ बन गयी थीं। आज भी सभा में लतीफगंज के कई ग्रह-नक्षत्र मौजूद थे...करामत, नन्हकू, शफीक, फजलू, अतीकुर, मुजीबुर और उसके कुछ हिन्दू नामधारी पुछल्ले। इदरीश तो खैर उसके लश्कर का अब स्थायी मुलाजिम था।
नन्हकू मियाँ ने नून-तेल लगाकर चुगली करने का प्रलाप शुरू कर दिया, 'जनाब टेकमल साहेब, उनके हौसले बढ़ते जा रहे हैं...उनकी तादाद बढ़ती जा रही है। वे जो भी काम हाथ में ले रहे हैं, उनमें कोई खलल नहीं पड़ रहा है। फुलेरा बाँध की जमीन डीसी ने उनकी कमिटी के नाम से अलॉट कर दिया...अब उसमें हल चलनेवाला है...इसके लिए नया ट्रैक्टर आ रहा है।'
'नन्हकू मियाँ,' उसे रोकते हुए टेकमल ने कहा, 'मुझे इन बातों की जानकारी हो चुकी है। मैं दिल्ली जाता हूँ तो अपना एक कान यहीं छोड़कर जाता हूँ। लतीफगंज में जो किले फतह किये जा रहे हैं, उन्हें होने दीजिए। दुश्मन को पहले ऊँचाई पर चढ़ने देना चाहिए ताकि गिराये जाने पर फिर उनके उठने का कोई चाँस न रहे।'
'गुस्ताखी के लिए माफी चाहता हूँ हुजूर, तब तक कहीं देर न हो जायें! कहीं वे इतनी ऊँचाई पर न चले जायें कि हम उन्हें गिराने के लिए छोटे पड़ जायें। उनके कार्यक्रमों की मकबूलियत इतनी बढ़ती जा रही है कि दूर-दराज के गाँवों के लड़के भी इनकी तरफ आकर्षित होने लगे हैं। सुना है कि अगले विधान सभा चुनाव में ये लोग अपना उम्मीदवार लेकर मैदान में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। शायद उन्हें मालूम हो गया है कि आप अपने लड़के नेकमल को विधान सभा चुनाव में इस क्षेत्र से खड़ा करनेवाले हैं। कहीं ये लोग लोक सभा चुनाव के वक्त भी खतरे की घंटी न बन जायें? देख रहा हूँ कि जिले के कुछ आला अफसर अपना वरद हस्त इनकी ओर बढ़ाते जा रहे हैं।' इदरीश ने खैरख्वाही जताते हुए कहा।
'तुम बात तो बड़ी अक्लमंदी की कर रहे हो, इदरीश, लेकिन अभी तकाजा यही है कि इन सबको अपनी-अपनी सीमा में कूद-फाँद करने दिया जाये...जानते ही हो कि सुनार की सौ चोट भी लुहार की एक चोट की बराबरी नहीं कर सकती।'
'टेकमल जी, इस लुहार की चोट के लिए कितना इंतजार करना होगा? जिसे आप सुनार समझ रहे हैं कहीं वह लुहार निकल आया तो? ' करामत ने अपनी बेचैनी दिखायी।
'आपका अंदेशा बेजा नहीं है, करामत मियाँ...हमें इसीलिए अपना कदम फूँककर उठाना होगा। उन्हें कैसे रोका जाये...कैसे तोड़ा जाये...कैसे पस्त किया जाये, इसका रास्ता ढूँढ़ना होगा। लोकतंत्र में राजनीतिक गुंडागर्दी का भी अपना एक व्याकरण होता है। सीधे-सीधे सीनाजोरी और लंठई करने से अगले का नुकसान तो हो सकता है लेकिन अपना भला नहीं हो सकता। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमारे किसी प्रहार से उसकी तरफ जनता की हमदर्दी सैलाब बनकर उमड़-घुमड़ जाये। यार, हमारे भीतर की असलियत चाहे जो भी हो बाहर का आवरण एक एम्पी का है...कानून बनानेवाला...न्याय दिलानेवाला। पार्लियामेंट में हमको बैठना पड़ता है...अपने को जनता का सेवक बताना पड़ता है। लोकतंत्र की बाहुबलि चक्की लुके-छिपे, अनभिज्ञ और अनजान बनकर चलायी जाती है...आपलोग जैसा कह रहे हैं, वैसा नहीं हो सकता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं चिंतित नहीं हूँ...बहुत चिंतित हूँ।'
'ठीक है टेकमल जी, आप एक तजुर्बेकार नेता हैं...दस-पन्द्रह साल से राजनीति कर रहे हैं...किसे कैसे ठीक करना है...आप से ज्यादा भला कौन जान सकता है? हमारे लिए आपका क्या हुक्म है...पंचायत की ओर से हमें बुलाया गया है। हम जब आये तो आप दिल्ली जा चुके थे। काफी दिन हमें यहाँ रह जाना पड़ा...अब शहर लौटना है।' शफीक ने एक फरियादी की तरह अपनी स्थिति स्पष्ट की।
'करामत और नन्हकू मियाँ ने आपको बताया नहीं? क्यों करामत जी ? '
'हम इन्हें सब कुछ समझा चुके हैं, हुजूर। इन्होंने कुछ कोशिशें भी करके देख लीं। वे कह रहे हैं कि उन्हें बिरादरी में रहने या उससे निकाले जाने की कोई परवाह नहीं है। किसी के सामने वे हथियार डालनेवाले नहीं हैं।' नन्हकू मियाँ ने अपनी बेचारगी का बयान किया।
'देखिए, आपलोग जायज-नाजायज कुछ भी करके मामला फरिया लीजिए। शादी के वक्त जैसे बेमुरौव्वत होकर पेश आये और उसे इदरीश के घर जाने पर मजबूर कर दिया गया, वैसी ही परिस्थिति फिर से पैदा कर डालिए।' उकसाते हुए कहा टेकमल ने।
'वैसा अब नहीं हो सकता, हुजूर। उस समय सल्तनत अकेली और असहाय थी। इस समय उसके साथ जहाँ खुलकर जकीर की अम्मा है, तौफीक है, मतीउर है, वहीं मंडली के कई दर्जन लड़के हैं।'
'अतीकुर और मुजीबुर को कहो...एक बार पूरा जोर लगाकर देख ले। दोनों उनके अपने भाई हैं...वीटो का इस्तेमाल करें। कितनी बुरी बात है कि ये चुड़ैल लड़कियाँ अपने शौहर को छोड़कर एक हिन्दू लड़के के साथ बेहयाई कर रही हैं और अपने खानदान एवं बिरादरी का नाम मिट्टी में मिला रही हैं।'
'उनकी इस बदचलनी के कारण ही हम गाँव में मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे। सच पूछिए तो हमने इसी कारण से गाँव में आना-जाना एकदम कम कर दिया। हमें बताया गया कि आप अपनी दिलचस्पी और जोर लगाकर कोई रास्ता निकालने में मदद करनेवाले हैं। हम इसी भरोसे से गाँव आ गये।' अतीकुर ने अपना दुखड़ा रोया।
'यार, तुम पढ़े-लिखे समझदार आदमी हो...जानते हो कि हमारा भला भी इसी में है कि तुम्हारी बहनें इदरीश के साथ रहें और भैरव से उनका गँठजोड़ खत्म हो। दोनों के अलग होते ही जनसेवा का तम्बू अपने आप धराशायी हो जायेगा। तौफीक को मैं जानता हूँ, जवानी का जब जोश था तब बिना अवलंब वह उखड़ गया। अब इस उम्र में भैरव और सल्तनत के न रहने से वह भला क्या टिकेगा।' टेकमल ने गहरे पैठकर मोती चुनने की कोशिश की।
'क्या आप भैरव को डरा-धमकाकर या लोभ-लालच देकर सलटा नहीं सकते?' मुजीबुर ने तरकीब सुझायी।
'सब आजमा चुका हूँ, यार...साला वह लड़का और उसका बाप दोनों ही एक नंबर के हरामी हैं। अब यही हो सकता है कि तुमलोग अपनी तरफ से एक बार पूरी ताकत लगा दो...न हो तो कुछ दिनों के लिए अपने पूरे परिवार को अपने साथ शहर लेते जाओ...और अगर इनमें से कुछ भी न कर पाओ तो यह आखिरी उपाय है और अचूक भी...गाँव में दंगा करवा दो। दंगा छिड़ जाये फिर मेरे ब्रिगेड को चमत्कार दिखाने का मौका मिल जायेगा। दंगे की आड़ में खतरे की सभी घंटियों का सफाया करके अपना वर्चस्व बनाना सबसे अचूक नुस्खा है। पिछले दिनों चुनाव जीतने के लिए कई राज्यों में कई मुख्य मंत्रियों ने इसे आजमाया, तुमलोग देख ही चुके हो।' टेकमल ने जैसे किसी गुत्थी को सुलझाते हुए कहा।
'आप ठीक कहते हैं हुजूर, इस देश में हिन्दू और मुसलमान के एक साथ रहने का सबसे ज्यादा फायदा सियासतदान ही उठाते हैं। कुछ लोग मुसलमानों को मरवाकर और कुछ लोग मुसलमानों को बचाकर सत्ता पर काबिज हो जाते हैं।' नन्हकू मियाँ ने कहा।
'तो फिर हम चलते हैं, हुजूर। देखते हैं क्या हो सकता है।' करामत ने उठते हुए कहा। उसके साथ लतीफगंज के सभी लोग उठकर खड़े हो गये।
टेकमल ने दरवाजे तक उनका साथ दिया। जाते-जाते उनके दिमाग में एक बार फिर से घुसेड़ डाला, 'अपनी इज्जत बचाने के लिए आदमी को कभी-कभी हथियार उठाये बिना काम नहीं चलता है। अगर इस तरह का मन बन जाये तो मुझे इत्तिला कर देना...मैं पहले ही दिल्ली चला जाऊँगा। स्थिति बिगड़ने की खबर सुनकर फिर इसे सँभालने के बहाने वापस आ जाऊँगा।'
कीर्तन मंडली के बीच कहीं रूपेश भी बैठा हुआ था। वह अंतिम निष्कर्ष टोहने के लिए टेकमल के पीछे-पीछे आ गया। उसे लगा जैसे लतीफगंज के ये चाटुकार आदमी नहीं, बंदर हैं और यह रक्तपिपासु टेकमल अपने मनोनुकूल इशारे पर नचानेवाला एक बहुरूपिया मदारी है। रूपेश को यह भी महसूस हुआ कि भले ही ये जीहुजूरी में लगे हैं लेकिन इनके चेहरे पर एक असमंजस और बेवकूफ बन जाने का भाव भी अटका हुआ है।
जब टेकमल दोबारा लौटकर अपने आसन पर विराजमान हुआ तो सारे छँटे हुए शोहदे सभासद की तरह फिर से अपनी-अपनी जगह पर टिक गये। टेकमल का नालायक और आवारा बेटा नेकमल काफी देर से पूरे तमाशे को जज्ब कर रहा था। उसने पूछा, 'बाउजी, आपको क्या लगता है, लतीफगंज के ये दुअन्नी-चवन्नी मार्का करामत, नन्हकू, शफीक जैसे नखहीन और दंतहीन लोग कोई मोर्चा खोलने और उस पर टिकने के दमखम रखनेवाले लोग हैं? इन पर आप भरोसा करके कहीं दलदली मिट्टी पर तो पैर नहीं रख रहे?'
'अरे बेटे, भरोसा कौन किस पर करता है? आज राजनीति का जो चेहरा हो गया है उसमें भरोसा तो अपने आप पर भी नहीं है। बस जो चल रहा है उसे चलाते जाना है। महाभारत में सभी अर्जुन ही तो नहीं होते, कुछ तो शिखंडी भी होते हैं। शिखंडी होने की भी अपनी एक अहमियत है। कुछ कर सकते हैं तो ठीक है...नहीं कर सकते तब भी हमारे हाजमे पर कोई असर नहीं होने का। कम से कम इनकी मार्फत एक वोट बैंक तो वहाँ सुरक्षित है ही।' किसी महारथी जुआड़ी की तरह अपने कुछ पत्ते खोलते हुए कहा टेकमल ने। नेकमल को लगा कि सचमुच यह ऐसे ही उसका बाप नहीं है।
'बाउजी, लेकिन आपको यह नहीं लगता कि विधान सभा में अगर तौफीक ने उम्मीदवार खड़ा कर दिया तो वह हम पर काफी भारी पड़ेगा? ' नेकमल राजनीति की पहली सीढ़ी को फलाँगने में कोई संशय नहीं रहने देना चाहता था।
'तुमसे ज्यादा तुम्हारे कैरियर की चिंता मुझे है। तुम्हारी पढ़ाई, तुम्हारा रंग-ढंग, तुम्हारा आचार-विचार आदि देखते हुए यह तो तय ही है कि तुम्हें सिर्फ और सिर्फ राजनीति ही करना है। हक भी बनता है कि नेता के बेटे को नेता बनने का मौका सबसे पहले मिले। पूरे देश में यही रिवाज चल रहा है। इसलिए तुम्हें जीताना और नेता की पहचान देना मेरा दायित्व है। विधान सभा चुनाव में क्या होगा, तुम यह मुझ पर छोड़ दो।' टेकमल ने फाइनली वह मास्टर चाबी घुमा दी जो हर ताले के लिए एक होती है। उसका बेटा गदगद हो गया कि चलो बाप अपना उत्तराधिकार सौंपने के लिए उसकी पात्रता को खारिज नहीं कर रहा है।
शफीक ने अपने घर में निर्णायक कदम उठाने के लिए अपने शुभचिंतकों, पड़ोसियों और कुछ रिश्तेदारों की एक जरूरी मीटिंग बुलायी। उसने पूछा, 'अब आपलोग हमें मशविरा दीजिए कि हम क्या करें? टेकमल को आपलोग बहुत बड़ा बिघ्ननिवारक समझ रहे थे, उसकी क्या वकत है, इसका इजहार आज हमलोगों ने उसके मुँह से ही सुन लिया।'
'शफीक, क्या इजहार सुन लिया...मैं समझा नहीं तुम्हारे कहने का मतलब?' करामत ने जरा ताज्जुब करते हुए पूछा।
'करामत साहब! आप नाहक क्यों इतना अनजान बन रहे हैं? उसके कहने का मतलब आपने नहीं समझा होगा, मुझे तो ऐसा नहीं लगता।' शफीक ने उसे झकझोरने की कोशिश की।
'मियाँ, मुझे तो लगा कि उसने हमें पूरा सपोर्ट करते हुए कुछ तरकीबें बतायीं और अपना साथ देने का भरपूर आश्वासन दिया।' करामत ने अपनी बात कही।
'करामत साहब, हकीकत यह है कि वह हमें इस्तेमाल करना चाह रहा है। अपनी सियासी रोटी सेंकने के लिए हमें जलावन बनाना चाह रहा है। चित भी मेरी और पट भी मेरी का खेल खेलना चाह रहा है। उसने कहा...कुछ उपाय न सूझे तो दंगा करवा दो। आप जानते हैं इसका मतलब?' शफीक ने वहाँ उपस्थित हर चेहरे पर एक सरसरी निगाह दौड़ायी। हर चेहरा मानो एक प्रश्नवाचक चिह्न बन गया। शफीक ने अपने सवाल का खुद ही उत्तर दे दिया,'कहता है वह खुद दिल्ली चला जायेगा और तब उसकी गैरहाजिरी में हमलोग दंगा कर देंगे। दंगा आज तक जहाँ भी हुआ है सबसे ज्यादा खून मुसलमानों का बहा है...सबसे ज्यादा तबाह मुसलमान ही हुए हैं। यहाँ आपलोगों को लग रहा है कि मुसलमान की तादाद अच्छी-खासी है तो आप मार-काट मचाकर फायदे में रहेंगे और आपकी यहाँ धौंस जम जायेगी। अगर ऐसा सोच रहे हैं तो यह आपकी कूढ़मगजी है। यहाँ भी आपका ही खून बहेगा...आपके ही लोग मारे जायेंगे...चूँकि आपको याद रखना चाहिए कि आसपास के उन गाँवों का फासला ज्यादा नहीं है जहाँ हिन्दुओं की तादाद ज्यादा है।'
करामत, नन्हकू, अतीक, मुजीब, इदरीश, फजलू आदि सभी भौंचक्के रह गये। विचार का यह पहलू भी हो सकता है इसका उन्हें कतई इल्म न था। उन्हें लगा कि वाकई जो शफीक कह रहा है उसमें दम है। किसी के पास कोई जवाब नहीं था...कोई खंडन नहीं था। सबको मौन देखकर शफीक ने फिर कहा, 'दो आदमी को सजा देने के लिए पूरे गाँव में जलजला पैदा कर देना...दुश्मनी का दोजख उढ़ेल देना कहाँ तक मुनासिब है? दो आदमी में बने रिश्ते को खत्म करने के लिए गाँव के हजारों वाशिंदों के बीच कायम सारे रिश्तों को हलाक कर देना एक पागलपन से ज्यादा और क्या होगा? '
सबकी आँखें फैलती जा रही थीं। अतीक-मुजीब तक को यकीन नहीं आ रहा था कि अचानक शफीक मियाँ इस तरह की सूफीयाना वाणी बोलने लगेंगे।
इन बातों से फजलू मियाँ को काफी बल मिला। वह करामत और नन्हकू के साथ रहता था लेकिन उनकी कई बातों से उसकी रजामंदी नहीं थी। आज उसे लगा कि शफीक ने उसके भीतर से असहमति निकालकर अपनी जुबान दे दी। वह उत्साहित होकर कहने लगा, 'शफीक मियाँ, आप इतने अक्लमंद हैं, अल्लाह कसम मुझे पहली बार इसका इल्म हुआ। मैं भी इसी लाइन पर सोच रहा था लेकिन कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी कि आप सभी लोग नाराज हो जायेंगे। आपने बिल्कुल ठीक फरमाया... हम नाहक ऐसे हाथों का खिलौना बनते जा रहे हैं जो वहशी हैं, जो असमाजिक हैं और ऐसे लोगों की खिफाफत कर रहे हैं जो हमारे अपने हैं तथा हमारी भलाई चाहनेवाले लोग हैं।'
इदरीश की मानसिक स्थिति साँप-छछुंदर की होती जा रही थी। उसने जरा चिड़चिड़ाकर पूछा, 'आप जरा साफ-साफ बतायेंगे कि कौन हमारे अपने और भलाई चाहनेवाले हैं? अचानक कौन-सा फितूर सवार हो गया आपलोगों के ऊपर कि सुर ही बदल दिया आपने? इस सुर में मेरा क्या होगा, इसकी चिन्ता भी आपलोगों ने छोड़ दी?'
फजलू मियाँ उसी की लय में बोल पड़े, 'अपनी आँखों से खुदगर्जी का चश्मा हटाकर देखो तो दिखाई पड़ेगा, इदरीश...अपने लोग तौफीक मियाँ हैं, मतीउर है, सल्तनत है, अम्मा है, लतीफगंज विकास समिति के सभी लड़के हैं। इनके जरिये से जो भला हो रहा है उसे इस गाँव का अंधा भी महसूस करने लगा है। तुम्हारा मामला इतना बड़ा नहीं है कि इसके लिए सबको कुर्बान कर दिया जाये।'
'आपने भैरव का नाम क्यों छोड़ दिया, उसे भी गिन लिया होता।' तंज कसते हुए इदरीश ने कहा।
'बेशक मैं भैरव का नाम भी जोड़ना चाहूँगा, उस लड़के ने भी भला ही किया है गाँव का। उसने मुहब्बत की है, यह अगर उसकी खता है तो यह हमारी उससे भी बड़ी और नाकाबिलेमाफ खता होगी जब हम गाँव में नफरत की आँधी बहायेंगे और गाँव की भलाई करनेवालों को गिराने के लिए रास्ते में गड्ढे खोद देंगे।'
'फजलू मियाँ, अब ऐसा तो मत कीजिए कि हम आपस में ही लड़ने-भिड़ने लगें? इदरीश को हम इंसाफ दिलाने चले थे...मसला यह है हमारे सामने। अगर टेकमल का कहा हमें खारिज कर देना है तो विचार इस पर होना चाहिए कि दूसरा क्या रास्ता हो सकता है?' करामत ने अपने रुतबे का उपयोग करके बहस पर लगाम लगा दी।
नन्हकू बहुत देर से चुपचाप सुन रहे थे और शफीक के बदले रुख पर पसोपेश में पड़ गये थे। बीच-बचाव की उन्हें एक युक्ति सूझी, 'यहाँ हम सभी लोग बैठे हैं...अतीकुर और मुजीबुर भी मौजूद है...क्यों नहीं सल्तनत, निकहत आदि को बुलाकर हम उन पर एक जबर्दस्त साझा दबाव बनायें? अतीक-मुजीब अपने पूरे हक के साथ उन्हें ताकीद करें कि पूरे खानदान और पूरी बिरादरी की इज्जत दांव पर है, वे अब अपनी हरकत से बाज आयें।'
सबने इसका समर्थन किया और ठीक इसी वक्त उन सबके लिए बुलावा भेज दिया गया।
सल्तनत, निकहत, मिन्नत, तौफीक, मतीउर और अम्मा एक साथ ही सभा-स्थल पर दाखिल हुए, जैसे वे पहले से ही तैयार बैठे हों। इन्हें टेकमल के दरबार में हुए वार्तालाप की जानकारी हो चुकी थी। इसलिए इस तरफ भी आरपार की कार्रवाई करने की मानसिकता बना ली गयी थी।
करामत ने बात शुरू की, 'पंचायत ने जो फैसला दिया है उसे अमल में लाया जाये, इसी के वास्ते एक और कोशिश के तौर पर सारे लोग यहाँ जुटाये गये हैं।'
'मेरी जाती जिंदगी में दखल देने का हक किसी को नहीं है, पंचायत को भी नहीं। खासकर उस पंचायत को तो बिल्कुल नहीं जिसके पंच वे लोग हैं जिसने मेरे साथ ज्यादती और जुल्म करने में साथ निभाया। आगे कहिए अगर बुलाने का कोई और सबब हो तो?' दो टूक जवाब दे दिया सल्तनत ने। तमतमाकर उठ खड़ा हो गया अतीक। उसने आँख तरेरते हुए कहा, 'सल्तनत, इतने बुजुर्ग और मोतवर लोगों के सामने तुम्हें तमीज से पेश आना चाहिए।'
अपनी आँखों में बेपनाह नफरत और गुस्सा भरकर देखा सल्तनत ने, 'तमीज का तुम्हें खयाल है तो तुम्हें अपनी उम्र का भी खयाल होना चाहिए। तुमसे उम्र में बड़ी हूँ मैं, मेरा नाम लेकर बुलाते हुए तुम्हें जरा भी शर्म आती है? छोटे मामू हमारे अब्बा की उम्र के हैं और तुम दोनों की तालीम की डगर पर आगे बढ़ाकर रोशनी देने वाले शख्स ये ही हैं...है तमीज तुमलोगों में कि इनसे जरा दुआ-सलाम भी कर लें? दो साल में तुमलोगों ने अम्मी के......।'
'बस करो,' बीच में ही टपक पड़ा मुजीबुर, 'तुम्हारे मुँह से यह सब जरा भी अच्छा नहीं लगता। जो अपनी पूरी बिरादरी और खानदान के नाम पर धब्बा हो, उसके मुँह से ऐसी बातें शोभा नहीं देतीं। तुम्हारी मनमानी अब बहुत हो गयी, अब तुम्हें हर हाल में सुधरना होगा। निकहत, तुम्हें भी। इदरीश हमलोगों का लिहाज करके अभी भी अपनत्व बनाये हुए है...अपने दरवाजे खुले रखे हुए है। अब इसका ज्यादा इम्तहान लेना ठीक नहीं।'
'बर्दाश्त करने का इम्तहान अब हम भी देने के लिए तैयार नहीं हैं। तुम्हारे जैसे जालिम और बर्बर सलूक करनेवाले को अब हम भाई मानने के लिए भी राजी नहीं हैं। आज से तुमदोनों का नाम हमारे दुश्मनों की फेहरिश्त में होगा।' इस बार निकहत ने अपना गुस्सा दिखाकर सबको चैंका दिया।
'तुम्हारे मानने, न मानने से तुम्हें मनमरजी करने की इजाजत नहीं मिल जाती। आज से तुम दोनों को इदरीश मियाँ के घर रहना होगा नहीं तो सचमुच हम दुश्मन ही की तरह तुमदोनों के साथ आज पेश आयेंगे। अब तक तुमने हम सबकी शराफत देखी है, आज तुम्हें हम अपनी हैवानियत से भी तअर्रुफ करा देंगे। इदरीश मियाँ, अपना असली रूप दिखाइए और इन दोनों को अपने साथ ले जाइये।' अतीकुर ने एक मँजे हुए डॉन की तरह इदरीश को इशारा किया तो चीते की तरह फुर्ती दिखाते हुए इदरीश ने कमर से एक पिस्तौल निकाल ली और फटाक से दरवाजे से होते हुए आँगन की तरफ एक हवाई फायर कर दिया। फिर सबको हड़काते हुए कहा, 'खबरदार जो किसी ने मुझे रोकने की कोशिश की। सल्तनत और निकहत, चुपचाप हमारे साथ चलो।'
पल भर के लिए तो निकहत, सल्तनत और तौफीक सन्न रह गये। इस फिल्मी नजारे की तो किसी को भी कोई उम्मीद न थी। इदरीश पिस्तौल ताने हुए सल्तनत और निकहत की तरफ बढ़ने लगा। पल भर के लिए सबकी अक्ल गुम हो गयी।
ठीक इसी वक्त एक और फिल्मी करतब दिखाते हुए मतीउर अपनी जगह से छलाँग लगाकर कूद पड़ा इदरीश पर और उसकी पिस्तौल की बिना परवाह किये उसके जबड़े पर ताबड़तोड़ तीन-चार घूँसे जड़ दिये और उसके हाथ मरोड़कर उससे पिस्तौल छीन ली। चीखते हुए कहा, 'तुम्हारी गुंडागर्दी अब नहीं चलेगी, इदरीश। आज से कान खोलकर सुन लो...मेरी इन बहनों की तरफ नजर उठाकर भी तुमने देखा तो माँ कसम मैं तुम्हारी आँखें निकाल लूंगा।...और अतीकुर-मुजीबुर, तुम दोनों भी आज साफ-साफ समझ लो...भाई की तरह अगर पेश नहीं आये तो दुश्मन की तरह तुम्हें भी हम नहीं बख्शेंगे। तुमलोग अपने को भाई कहते भी किस मुँह से हो, कौन-सी जिम्मेदारी निभायी तुमलोगों ने बड़े भाई होने की? माँ तक को जो नहीं पूछता वो चला है रिश्ते का दम भरने।'
मतीउर का यह अप्रत्याशित और आक्रामक रूप देखकर सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। इदरीश और अतीक-मुजीब ने ऐसी खतरनाक योजना बना रखी है, इसकी जरा भी भनक करामत, नन्हकू, फजलू आदि को नहीं थी। उनलोगों ने यहाँ से कन्नी काटकर निकल जाना ही बेहतर समझा। वे जाने लगे तो तौफीक ने उन्हें दुत्कारते हुए संबोधित किया, 'क्यों मोहतरम हजरात, मुराद पूरी हो गयी कि कुछ कसर बाकी है? जाते-जाते जरा यह फैसला तो करते जाइए कि आप सबके इस अजीज हीरो को आपके हवाले कर दिया जाये या पुलिस के?'
सब दायें-बायें देखने लगे। किसी ने होंठ तक नहीं फड़फड़ाये।
तौफीक ने आगे कहा, 'इस तरह मुँह चुराने से आप बरी नहीं हो जायेंगे...आपलोगों को चुल्लू भर पानी में डूबकर मरना होगा। एक नामुराद दरिंदे और हैवान की तरफदारी में इतने अंधे व हठधर्मी हो गये कि पूरे गाँव के अमन-चैन, भाईचारे और प्रेम को दाँव पर लगा देने में जरा-सी भी हिचकिचाहट नहीं हुई। जुर्म, दहशत और हैवानियत के सरगना टेकमल को आपलोगों ने अपना आका बना लिया और उसके कहने पर आपलोग यहाँ दंगा करवायेंगे...वाह, क्या खूब! इसे कहते हैं कौम और मजहब का सच्चा अलमबरदार होना...सच्चा हितैषी होना...सच्चा राहबर होना। चलिए शुरू कीजिए...आपलोगों की जेब में भी तो पिस्तौलें या रिवाल्वर होंगी ही...आका ने दिया ही होगा...तो निकालिए और भून दीजिए हम सबको। बना दीजिए गाँव को कब्रिस्तान और राज कीजिए हम सबकी कब्रों पर। लानत है आप जैसे मुल्लों, मौलवियों, हाफिजों और रहनुमाओं पर जिन्हें अच्छे-बुरे और पाक-नापाक में फर्क करने की तमीज तक नहीं आती। क्या यही रास्ता दिखायेंगे आप भूले-भटके अवाम को...यही गोली चलाने का...कत्ल करने का...मारकाट मचाने का?'
सबके सिर झुक गये और उनकी आँखें निस्तेज जैसी हो गयीं। इस बार अम्मा ने मोर्चा सँभाल लिया, 'कान खोलकर सुन लो तुमलोग...सल्तनत और भैरव की जोड़ी हम कभी टूटने नहीं देंगे और इस करमजले जल्लाद इदरीश का नापाक इरादा भी कभी पूरा होने नहीं देंगे। अब तुमलोग जैसे ढोंगियों-पाखंडियों को हमलोग अपनी बिरादरी से निष्कासित करते हैं। आज से हमारे तुमलोगों से कोई रिश्ते नहीं रहेंगे।'
पासा इस तरह उलटा पड़ जायेगा इसका किसी को अनुमान नहीं था। मतीउर अब तक इदरीश की कलाई मरोड़कर दबोचे हुए था। हट्टा-कट्ठा, बलिष्ठ और मिट्टी के सपूत मतीउर से टकराने में यहाँ कोई सक्षम नहीं था। उसकी इस हालत पर बिना तरस खाये एक-एक कर उनके हमदर्द निकलते चले गये थे। अतीक-मुजीब और शफीक मूक तमाशबीन जैसे मुँह बाये हुए थे। तौफीक ने इस प्रहसन का पटाक्षेप करने के उद्देश्य से कहा, 'मतीउर, छोड़ दो अब इस बेहया को। इसे हाजत के भीतर भी करवा दें तो इसके गॉडफादर हजरत टेकमल इसे छुड़वा ही लेगा।'
मतीउर ने उसे दुरदुराते हुए झटक दिया। मिन्नत बहुत देर से तमाशा देखती जा रही थी। चलते-चलते उसने कहा, 'अतीक-मुजीब, हमें खुशी नहीं दे सकते तो तकलीफ तो न दो। मेरी कोख को इतना शर्मिंदा न करो कि मुझे तुम्हारे जन्म देने पर अफसोस करना पड़े। जाओ, चुपचाप अपना घर सँभालो और आदमी को पहचानना सीखो। चलो मेरे बच्चो, यहाँ अब मेरा दम घुट रहा है।'
मिन्नत घर से निकल गयी। उसके पीछे-पीछे सल्तनत, निकहत, अम्मा, मतीउर और तौफीक भी निकल गये।
ट्रैक्टर आ गया। लाल रंग का चमचमाता हुआ नया ट्रैक्टर। तौफीक खुद ही चलाकर लाये शहर के शोरूम से। लविस (लतीफगंज विकास समिति) के सारे लड़के साथ गये थे और डाला में लदकर वापस आये। इस गाँव के लिए यह एक बड़ी घटना थी। भैरव के साथ जकीर अक्सर ट्रैक्टर का सपना देखा करता था। ट्रैक्टर आकर रुका तो गाँववालों की भीड़ जुट गयी। अम्मा ने इंजिन के ऊपर अगरबत्ती दिखायी और नारियल फोड़ा। भैरव शहर से ही लड्डू लेकर आया था। सल्तनत नारियल और लड्डू सबमें बाँटने लगी। सभी लोग खुशी से आह्लादित थे। लविस के लड़कों में एक विशेष उत्साह और जोश दिखाई पड़ रहा था। गाँव के कुछ बड़े जोतदार चुन्नर यादव, फल्गू महतो, नगीना सिंह आदि भी आ गये थे। धीरे-धीरे ये लोग भी लविस को मान्यता देने लगे। लगातार मिल रही सफलता का इन पर असर होने लगा था। शुरू में ये लोग थोड़े कटे-कटे रहे। आहर और पोखर जीर्णोद्धार में इनका योगदान बहुत सहमा और फीका रहा था।
तौफीक से मिलकर चुन्नर यादव ने कहा,'यह बहुत शानदार काम हुआ है, कामरेड, हमको बहुत खुशी हो रही है।'
नगीना सिंह ने कहा, 'जो हमलोग नहीं कर पाये उसे आप एक-एक कर फतह करते जा रहे हैं...अब आप हमें भी अपने साथ समझिए, तौफीक भाई।'
फल्गू महतो ने भी अपनी खुशी छलका दी, 'गाँव में बहुत सारा शक-शुबहा व्यक्त किया जा रहा था, आपने सबका निराकरण कर दिया। अब हम आपसे और दूर रहकर अलग-थलग नहीं होना चाहते।'
तौफीक ने इनके समर्थन को एक महत्वपूर्ण ताकत मानते हुए अपना आभार जताया और कहा, 'यह ट्रैक्टर किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे गाँव का है। आप इसे अपनी मदद दीजिए और इससे मदद लीजिए।'
तौफीक अब कुछ लड़कों को ड्राइविंग सिखाने लगे। मतीउर, भैरव, तारा, चन्द्रदेव आदि उनकी सीट के आसपास ट्रैक्टर पर सवार हो गये। अम्मा के घर के सामने काफी खुली जगह थी, जहाँ टेड़ा-मेढ़ा, आड़ा-तिरछा कैसे भी चलाया जा सकता था। गाँव की औरतें, बच्चे, बूढ़े सब हसरत से देख रहे थे। पड़ोसवाले घर की खिड़की से अतीक-मुजीब, शफीक और उसकी बेगम भी ट्रैक्टर के दृश्य को नजर बचाकर ईर्ष्या भाव से उचक-उचक कर देख रहे थे। इन्हें लगने लगा था जैसे उनका कुछ खो गया है और जो खो गया है इनके हिस्से में आ गया है। शफीक ने तीन-चार दिन पहले अपनी जमीन और घर का दो भाग करवा लिया था। चूँकि कलकत्ता में स्थायी तौर पर बस जाने वाले दो अन्य भाई हनीफ एवं रदीफ का खेत-घर से कोई मतलब नहीं रह गया था। वे वहाँ खूब खुश और सुखी थे। अब शफीक शहर लौट जाने की तैयारी कर रहे थे। हवा में खबर थी कि वे अपने हिस्से के खेत और घर इदरीश को सुपुर्द करने वाले हैं। इसका आशय यह था कि इतना कुछ होने के बावजूद इदरीश के प्रति शफीक के दृष्टिकोण में कोई फर्क नहीं आया था। तौफीक को इसी बात का जरा दुख हुआ, वरना उसे कोई आपत्ति नहीं थी...उसकी सम्पति वह चाहे जो करे।
नयी लगन और गहरी संलिप्तता से फटाफट कई लड़के ट्रैक्टर चलाना सीख गये। तीन दिन बाद ही फुलेरा बाँध की जमीन की जुताई का कार्यक्रम बना लिया गया। डीसी से उन्हें लीज का अनुमति पत्र प्राप्त हो गया था। डीसी को तौफीक ने टेकमल के खूनी इरादे की जानकारी देते हुए इदरीश को मोहरा बनाकर गाँव की शांति भंग करने के लिए उसके द्वारा चली जा रही चाल का पूरा विवरण बयान कर दिया, ताकि भविष्य में ऐसी कोई अप्रिय घटना होने पर टेकमल की गर्दन सीधे पकड़ी जा सके। डीसी ने आश्वासन देते हुए कहा, 'ऐसा कुछ भी होने का आसार दिखाई पड़े या गुप्त सूचना मिले तो कार्यालय में तुरंत इत्तिला करें। गुनाह करनेवाला कितना भी बड़ा बाहुबली हो, उसके खिलाफ प्रशासनिक कार्रवाई करने से जरा भी नहीं हिचकेंगे। मुझे इसकी अपुष्ट जानकारी पहले से है कि वह हमारे कुछ मातहत अधिकारियों को पटाकर रखा हुआ है, जिनकी मदद से वह अपनी निरंकुशता और ऐंठ बहाल रखता है।'
उन्होंने आगे आग्रह करते हुए फिर कहा, 'जब तक मैं यहाँ पदस्थापित हूँ टेकमल की लगाम ढीली नहीं की जायेगी। लेकिन आपलोगों को उस स्थिति के लिए भी तैयार रहना चाहिए कि मेरा कभी भी तबादला हो सकता है और हमारी जगह लेने वाला अधिकारी टेकमल का समर्थक निकल सकता है या उसके रवैये के प्रति उदासीन रहने की नीति अपना सकता है।'
टेकमल ने इदरीश को झिड़कते हुए जोरदार फटकार लगायी, 'अनाड़ी की तरह तुम्हें हरकत करने की किसने सलाह दी थी? अगर तुम्हें बंदूक की नोक पर उन दोनों बहनों को अगवा कर लेना था तो मुझसे पहले कहे होते, मैं अपना कुछ और आदमी वहाँ लगा दिया होता। फिर देखते कि वहाँ कोई होंठ भी कैसे फड़फड़ा लेता। दूसरी बात कि अगर तुमने पिस्तौल निकाल ली और उस लौंडे ने हमला कर दिया तो उस पर सीधे गोली दाग क्यों नहीं दी?'
'दाग तो देता ही हुजूर। छाती में नहीं तो टाँग तो छेद ही देता साले की। बहन की तरह एक पैर का अपाहिज बना घूमता फिरता। लेकिन वह इतनी तेजी से झपट पड़ा कि मुझे मौका ही नहीं मिला। मुझे माफ कर दीजिए इस बार, बहुत बड़ा सबक मिल गया मुझे।' गिड़गिड़ाते हुए कहा इदरीश ने।
'दिक्कत यह है कि तुम्हारे इस अनाड़ीपन के कारण अब बहुत दिनों तक उनके खिलाफ कुछ भी करना मुमकिन नहीं होगा। चूँकि कुछ भी होगा तो शक की सुई खट से तुम्हारे ऊपर चली जायेगी। खामखा तुम बदनाम भी हुए और कोई काम भी न हुआ।'
'हुजूर, बदनाम हो ही गये हैं तो छोड़ेंगे नहीं...उनके ट्रैक्टर के सभी चक्कों में गोली मार देंगे...जोतें साले कैसे जोतते हैं फुलेरा बाँध की जमीन!'
'इस तरह की बेवकूफी करने से हमारे मकसद को कोई फायदा नहीं पहुँचनेवाला है। नाहक वे लोग पकड़वाकर हाजत के भीतर करवा देंगे। झंझट मेरा बढ़ जायेगा तुम्हें निकलवाने का। जनता में हमारी किरकिरी होगी सो अलग।'
'क्या करें हुजूर देखा नहीं जाता। ट्रैक्टर लाकर इस तरह इतरा रहे हैं कि मेरी छाती पर साँप लोटने लगा है। शफीक और अतीक-मुजीब भी अब वापस लौट जानेवाले हैं। वे लोग काफी मायूस और नाउम्मीद हो गये हैं। शुक्र है कि वे अब भी मेरे फेवर में हैं और मुझसे उनका मोहभंग नहीं हुआ है। शफीक ने अपने हिस्सेवाली जमीन और घर मेरे हवाले कर दिया है।'
'अच्छा! तुमने तो यार गजब का जादू कर दिया है उन लोगों पर! लेकिन जमीन लेकर करोगे क्या...तुम तो उन्हें आबाद करने से रहे...परती ही रहेगी सारी जमीन। तुमसे होगा भी नहीं...अब बैठकर खाने की तुम्हें आदत जो हो गयी है। पिस्तौल धारण करने के बाद तो देह और भी मेहनतचोर हो जाती है। एक फायदा होगा कि तुम उनके बगल में रहकर खुफियागीरी कर सकोगे और न होगा तो चुनाव के समय हम संपर्क ऑफिस के तौर पर उसे इस्तेमाल में लायेंगे।'
इदरीश ने समर्थन में अपनी मुंडी हिला दी।
फुलेरा बाँध की जमीन की कई-कई बार गहरी जुताई की गयी। इसमें मवेशियों का गोबर-गनौरा पहले ही खूब डाल दिया गया था। गाँव में जहाँ-तहाँ जमा इस तरह की देसी खाद की ट्रैक्टर से भी ढुलाई कर ली गयी। लड़कों में ट्रैक्टर से काम करने का गजब का उफान था। बारी-बारी से वे भिड़ जाते थे और थकते ही नहीं थे। नयी जमीन पर अंततः मूँगफली (चीनियाबादाम) की फसल ही उपयुक्त समझी गयी। मतीउर ने बड़ी-बड़ी क्यारी बनवायी और ट्रैक्टर के फाल द्वारा लाइन से खींचे गये गड्ढे में दो-दो फुट की दूरी पर बीज गिरवाये। इस काम में सबने सहयोग किया। बीज गिराने के बाद ट्रैक्टर के पीछे से फाल हटाकर सपाट पट्टा लगाकर जमीन समतल बना दी गयी। एक महीने में चीनियाबादाम के दाने मिट्टी की कोख में अंकुरित होकर बाहर झाँकने लगेंगे।
अषाढ़ अब खत्म होनेवाला था। अम्मा और तौफीक के सारे खेतों का कर्णधार मतीउर अब उनके लिए जुगाड़-पाती में लग गया था। धनहर खेतों के लिए उसने धान का बिजड़ा गिरा दिया था। ट्रैक्टर से चास करने में उसे खूब मजा आ रहा था। बैलों से हल जोतने में दिन-दिन भर झींकना पड़ता था और काम बहुत कम निकल पाता था। अब बैल रखने का झंझट खत्म।
ट्रैक्टर होने से यह सहूलियत थी कि कभी मतीउर, तो कभी भैरव, तो कभी तौफीक जुताई करने लग जाते थे। तौफीक अब मतीउर के साथ खेती में पूरा समय देने लगे थे। तौफीक ही नहीं, लगभग पूरा परिवार ही मतीउर का सहायक बन गया था। उसकी अम्मी मिन्नत अब पूरे मनोयोग से अपने बेटे के आगे-पीछे जुटी रहती थी। खाना बनाकर निकहत जब फुर्सत में होती तो वह भी माँ के साथ खेत पहुँच जाती। कभी खाना लेकर, कभी पानी लेकर, कभी बीज लेकर, कभी खाद लेकर, कभी कुदाल या गैंता लेकर। ट्रैक्टर की ड्राइविंग सल्तनत भी सीख गयी थी और सबके मना करने के बावजूद जब जुताई हो रही होती तो दस-बीस मिनट वह भी चला लेती।
सल्तनत को शुरू से ही वर्जनाओं को तोड़ने में आनंद मिलता रहा था...चाहे बुर्के की सरहद को तोड़ना हो...अन्तरजातीय प्यार करना हो...ऊँची तालीम लेनी हो...अनशन पर बैठना हो...खेत-खलिहान घूम-घूमकर जन संपर्क चलाना हो और अब औरत होकर हल जोतना हो...।
यों तो सभी किसानों की जमीनें पूरे गाँव की चैहद्दी में दूर-दूर तक फैली थीं। बहुत बड़ा प्लॉट एक ही जगह हो ऐसा किसी के साथ नहीं था। हाँ, ऐसा जरूर था कि उस खास एक ही खंधे अर्थात बाँध, जिसे लोग घोघरा बाँध कहते थे, में तौफीक के पाँच कट्ठे-सात कट्ठे के कई प्लॉट थे। इसी घोघरा में जकीर के भी कई प्लॉट थे। यहाँ उसने अपने एक खेत के कोने में ट्यूबवेल लगवा रखा था, जिसकी क्षमता आराम से पाँच-सात बीघा जमीन सींचने की थी। मतीउर ने इसका अधिकतम उपयोग शुरू कर दिया।
इस ट्यूबवेल के पास एक पेड़ था जो धड़ के मामले में दो पेड़ था...या कह सकते हैं कि वहाँ दो पेड़ था जो जड़ के तौर पर एक पेड़ था। जड़ जामुन की थी जिसकी दो मोटी शाखाओं के बीच एक आम का पेड़ उभर आया था। इसकी विशालता अद्भुत थी। उनके फलों में एक विचित्रता समाविष्ट रहा करती थी। आम का आकार बहुत छोटा होता था और उसे खाते हुए ऐसा लगता था कि आम के साथ जामुन भी खा रहे हैं। यही स्थिति जामुन के साथ थी। जामुन अपने आकार से बड़ा फलता था और उसे खाते हुए आम का स्वाद भी लिया जा सकता था।
एक सौ फुट की परिधि में इस पेड़ की टहनियाँ छितरायी हुई थीं और नीचे उनकी बहुत गाढ़ी छाया उतरती थी। धूप-पानी से राहत के लिए किसान इसी पेड़ के नीचे आश्रय तलाशते थे। पेड़ के ऊपर चिड़ियों-चुरगुनों के सैकड़ों घोंसले थे। कोई नीचे बैठ जाये तो उनके कलरव का वैविध्य किसी कंसर्ट की अनुभूति देने लगता था। जकीर ने इस पेड़ के बगल में कतार से कई और गाछ लगा दिये थे, जो अब बड़े-बड़े हो गये थे। सल्तनत इस जगह जब भी आती थी खिंचकर बैठ जाती थी और देर तक पक्षियों की आवाजें सुनती थी तथा उनके कौतुक देखती थी...इस डाल से उस डाल पर फुदकना...तिनका-तिनका चुनकर घोंसला बनाना...अपने चूजे के लिए दाना लाकर उनके मुँह में डालना...एक-दूसरे को चोंच मारकर खिलंदड़ी करना...नर-मादा के बीच यौन क्रिया का होना। यहाँ आकर उसे अनायास जकीर के अस्तित्व का भी आभास होने लगता था। उसका लगाया ट्यूबवेल, उसके लगाये वृक्ष, उसकी बनवायी कोठरी...प्रतीत होता था जैसे किसी संत के आश्रम में आ गये। आसपास के सारे किसान दोपहर का कलेवा इसी जगह करते थे।
जिस दिन धनरोपा शुरू हुआ उस दिन घर में एक उत्सववाले खास दिन की चहल-पहल उतर आयी...कई व्यंजन, कई पकवान और कई तरह के चटकदार भोजन। निकहत ने अम्मा के निर्देशन में अपनी पाक कला के तरकश में जितने तीर थे, सारे लगा दिये। खेतों में मतीउर, तौफीक और भैरव जी-जान से भिड़ गये थे। भैरव के पिता प्रभुदयाल भी आ गये और वे भी उन्हें साथ देने लगे। दोनों परिवारों के बीच संबंधों की प्रवाहित अन्तर्धारा में व्याप्त अपनापन अब साफ महसूसा जा सकता था। करीब पचास धनरोपनी महिलाएँ एक साथ लगा दी गयी थीं। एक महिला दो से ढाई कट्ठे में रोपा कर लेती है। इस हिसाब से इनके लिए खेत तैयार करना, मोरी (पहले चरण के खेत से उखाड़े गये धान के छोटे पौधे) उपलब्ध कराना, मेड़ दुरुस्त करना...कई तरह की व्यस्तताएँ थीं, जिसके लिए एक तजुर्बेकार मास्टर माइंड किसान की खास जरूरत थी। इस मायने में प्रभुदयाल जी से उपयुक्त दूसरा कोई नहीं हो सकता था। लविस के कुछ लड़के भी मदद के लिए स्वतः आ गये थे।
सभी परिवार जनों और धनरोपनियों के लिए अम्मा, अम्मी, निकहत और सल्तनत एक साथ इसी गाछ के नीचे अपनी विषिष्ट तैयारी लेकर हाजिर हो गयीं। मिट्टी और कादो में सबके हाथ-पैर लिटाये-पिटाये थे। पसीने और थकान से सबके चेहरे लाल थे। सबने ट्यूबवेल पर जाकर अच्छी तरह हाथ-मुँह धोये। सबको पत्तल देकर खाना परोसा जाने लगा। विभिन्न बर्तनों में सजी चटपटी और लजीज खाद्य सामग्रियों से भूख बढ़ा देनेवाली खुशबू निकलकर पूरे विश्राम स्थल पर पसर गयी। भैरव लंबी साँस लेते हुए खुशबू को भीतर उतारने लगा। सल्तनत ताड़ गयी और कनखियों से देखकर हल्के-से मुस्कान बिखेरती हुई काम में लग गयी।
खाने के बाद जरा सुस्ताकर सभी चले गये। भैरव परोसने में लग गया था इसलिए सबके निवृत्त हो जाने के उपरांत उसने खाना शुरू किया। घर की अन्य महिलाएँ भी चली गयीं, सिर्फ सल्तनत रह गयी। वह देख रही थी उसका हुलिया। खेत के कादो और धूप में लगातार रहने से उसका रंग साँवला हो गया था। भैरव ने खाते हुए पूछा, 'इतना क्या देख रही हो?'
'कब नहीं देखती हूँ तुम्हें? कितना भी देखती हूँ, फिर भी देखना पूरा नहीं होता। आज काफी थक गये लगते हो!' उसके माथे से कादो का एक थक्का निकालते हुए कहा सल्तनत ने।
'थक गया था लेकिन अब कोई थकान नहीं है। निकहत ने कमाल किया है...इतना अच्छा भोजन और वह भी तुम्हारे हाथ से तुम्हारे सम्मुख। सुबह से लगता है तुम भी बहुत व्यस्त रही। थकी हुई तो तुम भी दिख रही हो।'
'निकहत के साथ लगी रही सुबह से। थक गयी थी लेकिन अब मुझे भी थकान नहीं है।'
दोनों हँस पड़े एक साथ।
'आज तो मामू ने भी गजब कर दिया है, लगता ही नहीं कि खेती-गृहस्थी से वे वर्षों दूर रहे। मतीउर के लिए इससे बड़ा वरदान और क्या होगा...एक तो मामू और ऊपर से बाउजी भी हाथ बँटाने आ गये।'
'सच पूछो तो पूरे धनरोपा ऑपरेशन का हीरो मतीउर ही है, हमलोग तो बस शामिल बाजा हैं। मतीउर के बिना हम सब अधूरे थे। उसने आकर हमें पूर्णता दी है...उस दिन भी इदरीश के चंगुल से मतीउर ने जिस तरह तुम्हें मुक्त करवाया, ऐसी जाँबाजी कोई हीरो ही दिखा सकता था।' भैरव ने कहा।
'लेकिन जानते हो, मतीउर का इस तरह जोखिम उठाना मुझे बहुत डरा गया है। पहले इदरीश की खार तुमसे थी, अब उसमें मतीउर भी शामिल हो गया है।'
'इदरीश कुछ नहीं कर पायेगा...तुम नाहक इस तरह का खयाल अपने मन में लाती हो...खयाल रखना ही है तो अपना रखो। तुम्हें बताया था न कि उससे निपटने की हमने भी तैयारी कर ली है।'
'तैयारी का कुछ मतलब तब निकलता है जब दुश्मन को भी अपनी जान का डर हो। इदरीश तो एक पागल, झक्की और दूसरों के इशारों पर नाचनेवाला कठपुतला है। ऐसा आदमी जिद पर आकर अपनी परवाह नहीं करता। जब उसे यह लग जायेगा कि उसने अपनी सारी लड़ाइयाँ हार लीं तो वह आत्मघाती मंसूबा लेकर कुछ भी करने पर उतारू हो जायेगा।'
'सल्तनत...तुम अब किसी की प्रेमिका या किसी की बहन भर नहीं हो। यह सब बातें तुम्हारे दिमाग में इसलिए आती हैं कि प्यार को तुमने अपनी धड़कन का हिस्सा बना लिया है। अपने प्यार पर तुम कोई खरोंच तक आने नहीं देना चाहती। अपनी तरलता को थोड़ा कम करो, सल्तनत।'
'कैसे कम करूँ? तुम्हारे और मतीउर के बिना जिंदगी में रह क्या जायेगा। सुबह रूपेश आया था...।'
'रूपेश !' चौंक पड़ा भैरव, चूँकि रूपेश के आने में किसी न किसी गोपनीय सूचना मिलने का अभिप्राय छिपा होता था। 'मुझसे तो उसने भेंट नहीं की?'
'तुम निकल चुके थे घर से। उसने मुझे बताया कि आज कोई गड़बड़ी हो सकती है। बाहर के अपरिचित अपराधकर्मियों की मार्फत टेकमल ने उपद्रव व आतंक फैलाने की योजना बनायी है। रूपेश ने बताया कि इदरीश कुछ चेहरों और गाँव की गलियों की पहचान करवाने के लिए किसी अजनबी को अपने साथ आज घुमानेवाला है। मैंने तुरंत समिति के कुछ लड़कों को खबर करके बुलवा लिया।'
'अच्छा तो तुमने बुलवाया है इन लड़कों को? अब समझ में आया इनके आने का औचित्य! इसीलिए देख रहा हूँ कि कुछ लड़के आने के बाद आसपास की गश्त लगा रहे हैं और हर आने-जानेवालों को सतर्कता से देख रहे हैं! '
धनरोपा वाले खेतों से होकर दो-तीन लड़के इस तरफ ही आते हुए दिख गये। वे पास आ गये तो भैरव ने पूछा, 'क्यों, सब ठीक है न! '
एक लड़के ने सामने का एक तड़बन्ना दिखाते हुए कहा कि वहाँ कुछ लोगों के साथ इदरीश बैठकर ताड़ी पी रहा है। भैरव ने सूचना को सही मानते हुए अनुमान लगाया कि ताड़ी पीने के बाद वह इस तरफ आ सकता है। उसने उन लड़कों के साथ सल्तनत को घर चले जाने का इशारा किया।
धान की फसल लहलहाने लगी। कई वर्षों बाद धान की ऐसी खेती यहाँ खुशियों की महमहाती बालियाँ उगानेवाली थीं। चुन्नर यादव का छोटा भाई रात में आल्हा टेरने लगा था। उसके आल्हा टेरने का मतलब होता था आसन्न सुख भरे दिनों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति। औरतें कंधा जोड़कर रात में झूमर गाने लगी थीं।
नहर में पानी दो-तीन दिन ही उस अवस्था में आ सका जब नदी बाढ़ से लबालब उपरा गयी। इन दो-तीन दिनों का भी अच्छा उपयोग कर लिया गया। आहर और पोखर की दशा ठीक होने से उसे खजाने के तौर पर इस्तेमाल के लिए भर लिया गया।
गाँववालों पर इतराहट का एक नया चँदोवा तन गया। आसपास के गाँवों में भी इस तरह की योजनाओं को शुरू करने के लिए लविस के लड़कों की कवायद तेज हो गयी। गाँववालों के साथ वे बैठकें करने लगे। खासकर अब तक अलग-थलग रहे युवा बेरोजगार लड़कों को प्रेरित करने...कन्विंस करने का काम शुरू कर दिया गया था। संगठन का नतीजा उनके सामने था, जिसे अनुकरणीय मानने में किसी में कोई संशय नहीं था।
ऐसे समय में जब किसानों की उम्मीदें अच्छी फसल के रूप में खेतों में लहलहा रही थीं, विधान सभा चुनाव की घोषणा हो गयी। पहले से ही इस विषय पर सहमति बना ली गयी थी कि विधान सभा में अपना एक उम्मीदवार जरूर खड़ा करके जिताना है ताकि इस क्षेत्र के बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करने का आधार तैयार हो सके। नहर का पुनरुद्धार, रेल स्टेशन पर गाड़ियों की समयबद्ध उपलब्धता, टूट-फूट कर गड्ढों में बदल गयी सड़कों को जीवनदान और बिजली की पुनर्बहाली आदि कई ऐसे सार्वजनिक महत्व के काम थे, जिन्हें सरकार और उसके प्रतिनिधि ही कामयाब कर सकते थे।
लविस की ओर से उम्मीदवार किसे बनाया जाये, यह एक अहम मुद्दा था जिसे हल करना था। तौफीक के नाम पर सबकी आम सहमति थी लेकिन वे खुद उम्मीदवार नहीं होना चाहते थे। लड़कों के नाराज होने पर उन्होंने समझाया, 'अगर मैं उम्मीदवार बन जाता हूँ तो संदेश यही जायेगा और यही प्रचारित किया जायेगा कि यहाँ जो कुछ भी किया गया वह नेता बनने के लिए एक सुनियोजित अभियान था। जाहिर है कि हमारी निष्ठा एवं निस्वार्थ भावना इससे आहत होगी। हमारा लक्ष्य इससे गतिरोध को प्राप्त होगा। दूसरी बात कि हमारे उम्मीदवार बन जाने भर से ही जीत जाना तय नहीं हो जाता। चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवार की पात्रता को कई समीकरण और परिस्थियों की कसौटी पर कसना पड़ता है। पूर्व विधायक, जो एक राष्ट्रीय पार्टी का थोपा हुआ उम्मीदवार था और जीतने के बाद उसने अपनी शक्ल शायद ही कभी कभार दिखायी, महज जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर यहाँ से उतारा गया था। अब वही समीकरण लेकर टेकमल अपने बेटे को उतारने जा रहा है। जाहिर है इस समीकरण के आसपास ही हमें भी अपना निर्णय करना होगा।'
कुछ लड़के चौंक गये। चन्द्रदेव ने पूछा, 'मतलब आप उम्मीदवार नहीं होंगे तो क्या सल्तनत भी नहीं बनायी जायेंगी?'
तौफीक ने सल्तनत की तरफ देखा, जिसका मतलब था कि इसका जवाब सल्तनत ही दे। सल्तनत ने चन्द्रदेव को स्नेह से देखा और मुस्कराते हुए कहा, 'मैं जानती हूँ कि तुम सभी साथियों ने अपने हृदय में मुझे बहुत ऊँचा आसन दे रखा है, मैं इसके लिए सबका तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ। एक बात हमें अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि हमारे बीच से उम्मीदवार कौन बनेगा, यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि उम्मीदवार जो भी बनेगा उसे जीतना है और जीतकर लविस के उद्देश्यों के अनुरूप अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करना है। सिटिंग सांसद टेकमल और सीटिंग विधायक भूरेलाल की तरह जनता की तिजोरी में डाका डालना और अपने खानदान की किस्मत चमकाना हमारी राजनीति का हिस्सा नहीं हो सकता। हमें अपनी साख बनाने और ऐश करने के लिए नहीं बल्कि एक कठिन टास्क पूरा करने के लिए विधान सभा या लोक सभा पहुँचना है। ऐसा नहीं कि हमें उम्मीदवार बनाकर किसी को पारितोषिक देना है या उसके काम का मूल्यांकन करना है। जिसे भी हम भेजेंगे उसमें हम सबके चेहरे प्रतिबिम्बित होंगे, हम सबका मान बढ़ेगा, उसके गौरव से हम सभी गौरवान्वित होंगे। वह भले ही अकेला जीतकर जायेगा, लेकिन वह हम सबकी सामूहिक जीत होगी। इसलिए मेरा आप सभी से निवेदन है कि आप इस पहलू पर ध्यान मत दीजिए कि उम्मीदवार कौन होगा और क्यों होगा? ध्यान हमें इस पर देना है कि जो जीत सके उसे ही उम्मीदवार होना है।'
उपस्थित सारे लड़के सल्तनत के निहितार्थ से अच्छी तरह वाकिफ हो गये। उन्हें आभास हो गया कि निर्णय किसी ऐसे नाम पर होना है जो चुनावी समीकरण के अनुकूल साबित हो।
एक लड़के ने अपनी रुष्टता जाहिर करते हुए कहा, 'अगर हमलोग भी जात-पाँत की संकीर्णता और क्षुद्रता को ही आधार बनाकर राजनीति करेंगे तो फिर उनमें और हममें फर्क क्या रह जायेगा?'
'बेशक यह हमारे लिए दुखद है,' तौफीक ने कहा, 'लेकिन मौजूदा सियासी सूरतेहाल का जो विकृत खाका है उसमें सैद्धान्तिक होकर फिट नहीं हुआ जा सकता। चुनाव के गटर को पार करना है तो उसमें घुली गंदगी, कीचड़ और प्रदूषण में उतरना ही पड़ेगा। इस गटर के डर से ही अच्छे लोग, काम करनेवाले लोग, सफेद कपड़े की तरह स्वच्छ आचरण रखनेवाले लोग उतरते ही नहीं गंदगी में, नतीजा होता है कि बुरे और बदनाम लोगों का ही जमावड़ा बनकर रह जाते हैं प्रतिनिधि सदन। सवाल यह है कि अगर वाकई आपको काम करना है...नया विहान लाना है...समाज का नक्शा बदलना है तो वहाँ गये बिना नहीं हो सकता। और वहाँ जाना है तो आपको बुरे, गंदे, घिनौने और कमीने लोगों से मुकाबला करना होगा...और इनसे मुकाबला करना है तो आपको उन्हीं की शैली में उन्हीं की तरह अस्लों से जवाब देना होगा। आपलोग सभी जानते हैं कि इस समय चुनाव जीतने के लिए जातिवाद सबसे बड़ा औजार है।'
सारे लड़के चुप हो गये। शायद इसका कोई माकूल जवाब अब किसी के पास नहीं था।
चन्द्रदेव ने पूछा, 'तो कौन है वह जो जीत दर्ज कराने की पात्रता रखता है?'
तौफीक ने कहा, 'इसका निर्णय करना मुश्किल काम नहीं है।'
भैरव ने पूछा, 'इस क्षेत्र के निवासियों में किस जाति की संख्या सबसे ज्यादा है?'
किसी ने कहा, 'यह तो सभी जानते हैं कि टेकमल की जाति के लोग तादाद में सबसे ज्यादा हैं।'
तौफीक ने पूछा, 'अपने सदस्यों में टेकमल की जाति के कौन-कौन लोग हैं? '
एक लड़के ने कहा, 'मैं हूँ, रामपुकार है, तारानाथ है, धेनूचंद है, खेमकरण है, रामजीत है, सम्पत है, जगदेव है।'
'ठीक है...जितने भी लोग हैं, उनमें हमें एक नाम चाहिए...और वह एक नाम हम लाटरी करके निकाल लेते हैं।' तौफीक ने युक्ति सुझायी।
चन्द्रदेव ने कहा, 'माफ कीजिए अंकल, मुझे लगता है कि लॉटरी से नाम निकालना उचित तरीका नहीं है। मान लीजिए कोई ऐसा नाम निकल गया जो इस पद को सँभालने की बिल्कुल योग्यता नहीं रखता। आखिर उसमें हाजिरजवाब होने की, बोलने की, तार्किक होने की, विश्लेषण करने की क्षमता भी तो होनी चाहिए। अपने क्षेत्र की समस्या रखनी है, विधान सभा में भाषण देना है...जनता के बीच भाषण देना है, प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देशित और अनुशासित करना है...। '
'चन्द्रदेव, तुम्हारा कहना ठीक है लेकिन हम लॉटरी जिनके बीच करने जा रहे हैं, उनमें कोई ऐसा नाम नहीं है जो स्नातक की डिग्री से कम पढ़ा हो, बल्कि आधे से ज्यादा तो स्नातकोत्तर भी पास हैं। इनमें से जो भी चुना जायेगा, वह नाकाबिल नहीं होगा। लॉटरी के अलावा अगर हम अन्य कोई भी विधि अपनायें वह निर्विवाद और निष्पक्ष नहीं हो पायेगा। संसद और विधान सभा में तो ऐसे-ऐसे लोग पहुँच जाते हैं जिनकी तालीम से, इंसानियत से और जनता की भलाई से जानी दुश्मनी रहती है। ज्यादा दूर न जाकर बगल के टेकमल को ही देख लो। इस तरह देखो तो मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि अपने लड़कों में जो कोई भी चुना जायेगा वह हर कसौटी पर सर्वथा उपयुक्त साबित होगा।'
शायद अब किसी में कोई संशय नहीं रह गया।
सबके नाम की पर्ची बनाकर मोड़ दी गयी और एक पर्ची निकाल ली गयी। संयोगवश पहली पर्ची में तारानाथ का नाम निकल आया। जाहिर है इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी थी। इस तरह तय हो गया कि लतीफगंज विकास समिति की ओर से तारानाथ विधान सभा का उम्मीदवार होगा।
तारानाथ के नाम से टेकमल की नींद उड़ गयी। उसके दरबारियों का आकलन तो कुछ और ही था। उनके अनुसार उम्मीदवार तौफीक को या नहीं तो सल्तनत को या नहीं तो भैरव को बनना था। वह निश्चिंत था कि इनमें से किसी के उम्मीदवार होने से उसके वोट बैंक पर कोई असर नहीं पड़ेगा, मगर तारानाथ के होने से जातीय वोट बैंक में सेंध लगनी ही लगनी थी। अन्य जातियों के वोट भी गिरेंगे तो इसके ही पक्ष में। टेकमल के नाम पर एक तो आम उदासीनता इसलिए होगी कि उसे दो-दो बार लोगों ने मौका देकर देख लिया...कुछ भी हिल-डुल नहीं सका...उसने कुछ भी नहीं किया। लविस द्वारा बिना किसी साधन, स्रोत और मान्यता के काफी कुछ कर दिखाना और काफी आशाएँ जगा देना भी उसके खिलाफ ही हवा बहा देनेवाला था। जनता का भरोसा जीतने का जहाँ तक सवाल होगा, तारानाथ का ही पलड़ा भारी रहेगा। पूरे क्षेत्र में फैले हर जाति और वर्ग के लविस के सदस्य भी इसके प्रचारक होंगे। टेकमल बिना विशेष मगजमारी के सीधे-सीधे समझ सकता था कि इस परिस्थिति में उसकी दाल गलना आसान नहीं है। लिहाजा उसके पास एक ही ब्रह्मास्त्र बचता था।
उसने तारानाथ के बाप की तलब की और उस पर अपना रौब गालिब करने लगा, 'तारानाथ को तुम मैदान से हटा लो, वह गलत लोगों के चक्कर में पड़ गया है। उसे शरीफों वाली खुशहाल जिंदगी जीनी है तो मैं उसका बन्दोबस्त कर दूँगा। अच्छी नौकरी दिला दूँगा।'
तारानाथ के बाप ने उसे कोसते हुए कहा, 'इस तरह की फुसलाने और बहलाने वाली सयानागीरी करने का जमाना लद गया है, टेकमल। होशियारी अब औरों को भी समझ में आने लगी है। मैं आपके झाँसे में आकर अपने बेटे को मैदान से हटा भी दूँ तो ऐसा नहीं है कि आपका मैदान साफ हो जायेगा। लविस का कोई दूसरा सदस्य उम्मीदवार बन जायेगा। वह उम्मीदवार इसलिए है कि लविस का सदस्य है, इसलिए नहीं कि मेरा बेटा है। फिर मैं उसे कैसे रोक सकता हूँ? '
टेकमल ने अपने अंदर के शातिरपन को चेहरे के भाव में उजागर करते हुए कहा, 'प्रतिद्वन्द्वी की लड़ाई लड़ते हुए अगर उसे कुछ हो गया तो वह लविस की ही क्षति नहीं होगी, बल्कि तुम्हारी निजी क्षति भी होगी और मेरे खयाल में तुम्हारी क्षति इतनी बड़ी और ऐसी होगी कि उसकी भरपाई नहीं हो पायेगी, जबकि लविस में फिर कोई ऐरा-गैरा सदस्य बन जायेगा। इसलिए सिर्फ अपना सोचो और कोई दूसरा खड़ा हो जायेगा यह बहाना छोड़कर अपने बेटे को मैदान से हटा लो।'
'मतलब, आप सीधे-सीधे कह रहे हैं कि मैं नहीं हटाऊँगा तो मेरे बेटे की हत्या कर देंगे?'
'देखो, जिससे लड़ने और जिसे हराने के लिए कोई लंगोट कस कर मैदान में उतरेगा तो वह सामनेवाला जैसे भी मैदान जीतने के लिए अपनी पूरी ताकत लगायेगा ही...कोई यह तो नहीं कह देगा कि आओ भाई, मैं हट जाता हूँ, तुम जीत जाओ।'
'टेकमल जी, मेरा बेटा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरा है, जिसका निर्णय जनता के वोट के द्वारा होना है। लेकिन आप तो ऐसा कह रहे हैं जैसे वह मुर्गे की लड़ाई में पैर में चाकू बाँधकर मैदान में उतरा है और शारीरिक ताकत से पेट में चाकू घोंपकर इसका निर्णय होगा।'
'वोट के लिए आदमी की लड़ाई और मुर्गे की लड़ाई में ज्यादा अंतर नहीं है। तुम्हारा बेटा भी तो एक तरह से मुर्गा ही बनाया गया है। तुम जरा खुद देखो कि इसे लड़ानेवाले खुद क्यों लड़ नहीं रहे? '
'अगर वे खुद लड़ लेते तो आपमें यह खलबली कैसे समाती। खैर, आप मुझे समझा, डरा या बहका नहीं सकते, टेकमल जी...आप एक बेकार की कोशिश कर रहे हैं। आपमें ताकत है तो आजमाइश कर लीजिए...इस तरह प्रतिद्वन्द्वी को मैदान से हटने के लिए कहना यह साबित करता है कि आप कितने डर गये हैं। ...चलता हूँ...राम-राम।'
उसे सन्नाटे में छोड़कर तारानाथ के पिता आराम से चलते बने।
नामजदगी का पर्चा भर देने के बाद प्रचार-कार्य शुरू कर दिया गया। लविस की उपलब्धियों और तारानाथ के जीतने के उपरांत जनहित में होनेवाले कार्यों से संबंधित पम्पलेटों, पोस्टरों, नारों और भाषणों से पूरा क्षेत्र पाट दिया गया। तौफीक जानते थे कि चुनाव कैसे लड़ा जाता है और इसमें क्या-क्या उपकरण इस्तेमाल में लाने पड़ते हैं। ट्रैक्टर तो मुख्य प्रचार गाड़ी का काम कर ही रहा था, मदद के लिए तौफीक के कुछ शहरी दोस्तों की भी गाड़ियाँ आ गयी थीं। डीसी का भी नैतिक समर्थन इनके साथ था और अप्रत्यक्ष रूप से वे कुछ मदद भी भिजवा रहे थे। चर्चा थी कि फुलेरा बाँध की जमीन को लेकर टेकमल से उनकी तनातनी हो गयी थी और उसने इन्हें देख लेने की धमकी दे डाली थी। डीसी फनफनाकर बिना कुछ कहे मजा चखाने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे थे। वह अवसर शायद आ गया था जब टेकमल धूल चाटे और खाक में मिल जाये। कहते हैं मदद के लिए दूरदराज के क्षेत्रों से कई जीपें आ गयी थीं, सबने अंदाज लगा लिया था कि यह उन्हीं का सौजन्य है।
तारानाथ के पक्ष में तो जैसे हवा बहने लगी थी। सल्तनत, भैरव और तौफीक ने प्रचार का पूरा कमान सँभाल लिया था। सल्तनत भाषण करती थी तो लोग एकटक सुनते रह जाते थे। इस क्षेत्र की वह पहली ऐसी लड़की थी और वह भी मुस्लिम समुदाय से, जो धाराप्रवाह बोलती थी और सुननेवालों पर अपनी आवाज का मानो सम्मोहन उड़ेल देती थी। तौफीक और भैरव भी बोलते थे, इनके साथ कुछ अन्य लड़के तारानाथ, चन्द्रदेव आदि भी, लेकिन यह सबकी एकमुश्त स्वीकारोक्ति थी कि सल्तनत की वक्तृत्व कला का किसी से कोई मुकाबला नहीं। भैरव ने कहा था, 'तुम बोलती हो तो ऐसा लगता है कि तुम्हारा बोलना और उसे मेरा सुनना कभी खत्म न हो। तुम कयामत तक बोलती रहो और मैं तुम्हें अपलक देखते हुए सुनता रहूँ। कविताओं, शाइरियों, छोटी-छोटी बोध कथाओं, मुहावरों, लोकोक्तियों और प्रेरक प्रसंगों का जिस तरह तुम इस्तेमाल करती हो, मुझे हैरत होती है कि तुमने अपने ज्ञान-भंडार में इन्हें कब और कैसे संचित कर लिया। कई वर्षों से हम एक-दूसरे में हुए हर उतार-चढ़ाव के गवाह रहे हैं, मगर इसकी तो मुझे हवा तक नहीं लगी कि कब तुमने अपने भीतर एक विलक्षण वक्ता की सिफत उतार ली।'
'भैरव, वे सारे इल्म जो तुम्हें मुझमें दिखते है, तुम्हारे ही जुटाये हुए है। वे सारी चमकने-दमकने वाली चीजें जो मेरे अंदर हैं, मैंने तुम्हीं से ग्रहण की हैं। तुम इतने उदार हो कि मैं तुमसे ले लेती हूँ और तुम्हें पता भी नहीं चलता।'
'यह तुम्हारी ग्रहणशीलता का कमाल है सल्तनत कि तुम इस तरह ले लेती हो कि देनेवाले को भी पता नहीं चलता। वर्षा का पानी देखो समान रूप से हर जगह बरसता है लेकिन कोई उसे मोती बना देता है और कोई जहर।'
'तुम तो बस वैसे ही हो, मुझमें तो कोई त्रुटि तुम्हें दिखती ही नहीं।'
'तुम सचमुच ऐसी हो, सल्तनत।' भैरव ने उसके हाथ चूम लिये और सल्तनत ने उसकी पेशानी पर अपने होंठ रख दिये।
टेकमल भी अपने बेटे नेकमल के लिए पूरा जोर लगाये हुए था। उसके चाटुकार सभासद भिड़ गये थे जन संपर्क, जयजयकार, गोष्ठी और सभा करने में। जीपों और कारों पर लाउडस्पीकर बँधवाकर नेकमल को वोट देने की अपील कर करके वातावरण की शांति में एक शोर भरा जा रहा था। यथासंभव वे पूरी उछल-कूद मचा रहे थे लेकिन वे देख रहे थे कि पब्लिक का रिस्पांस एकदम ठंडा है। उन्हें इसका आभास मिलना शुरू हो गया कि स्थिति काबू में नहीं है और जनता का रुख उनके अनुकूल नहीं है।
टेकमल ने सबका हौसलाआफजाई करते हुए कहा, 'बिना हताश हुए प्रचार कार्य को आगे बढ़ाते रहिए। आखिरी और निर्णायक कार्रवाई तो मतदान केन्द्र पर होगी, जिसके लिए आप सभी लोग पर्याप्त रूप से सक्षम हैं। चुनाव सिर्फ जनता के बल पर ही नहीं जीता जाता। हरेक मतदान केन्द्र के लिए स्थानीय लुमेड़ों को पटाकर सेट कर देने का अभियान जारी है। पैसा और अस्ला की बदौलत वोट का होलसेल प्रबंध इस तरह कर दिया जायेगा कि तौफीक ऐंड पार्टी मुँह टापते रह जायेंगे।'
रूपेश ने टेकमल के इन मंसूबों से भैरव को अवगत करा दिया था। यों तौफीक पहले से अनुमान लगा रहे थे कि टेकमल हारी हुई बाजी जीतने के लिए कोई भी कुकर्म करने पर आमादा हो सकता है। बूथ कब्जा करके बोगस पोलिंग करवाने में उसकी कुटिल वृत्ति पहले से ही मशहूर रही है। तौफीक ने इस सीनाजोरी से टक्कर लेने की यथासाध्य तैयारी की लेकिन उसे इसका इल्म था कि टेकमल को अपने बलबूते एकदम रोक देना नामुमकिन होगा। अतः उसने डीसी को आगाह कर दिया कि प्रशासनिक सख्ती में इजाफा कर दिया जाये, मतकेन्द्रों के आसपास धारा 144 लगा दी जाये और उपद्रवी तत्त्वों को देखते ही गोली मार देने का आदेश जारी किया जाये। डीसी ने भरोसा दिलाया कि वे फेयर ऐंड फ्री इलेक्शन कराने के लिए हर संभव उपाय करेंगे।
जनता के मोहभंग एवं उपेक्षा को देखते हुए टेकमल में बौखलाहट बढ़ने लगी। उसके खरीदे हुए हुड़दंगी कार्यकर्ता लविस के पोस्टर और बैनर उखाड़ने लगे। किसी गली या सड़क पर आमना-सामना हो जाने से ऐसा लगता था जैसे वे हमला कर बैठेंगे या पकड़कर कच्चा चबा जायेंगे। तनाव बढ़ते-बढ़ते आखिर एक भिड़ंत हो ही गयी। एक गाँव के मैदान में लविस की ओर से तारानाथ के लिए सभा हो रही थी। सल्तनत को संबोधित करना था। सुनने वालों की अच्छी भीड़ जुट गयी थी। सल्तनत के नाम पर अब सुननेवाले खिंचे चले आते थे। सल्तनत कह रही थी, 'आपलोगों ने अपने वोटों का महत्व आज तक नहीं समझा। या तो आपको वोट देने नहीं दिया गया और दिया गया तो आपने उम्मीदवार की जाति देखी, काम नहीं। वोट के प्रति अपनी इस लापरवाही के कारण आप हर उस सुविधा से वंचित रहे, जो आपको मिलनी चाहिए थी। अब तक आपने काफी कुछ गँवा दिया...काफी भुगतान भुगत लिया...अब इस वोट में निहित ताकत का आप सर्वोत्तम उपयोग करें। आप अपना वोट व्यक्तिगत हित के लिए नहीं, एक सार्वजनिक मकसद के लिए दें। आप अपना वोट सल्तनत को नहीं, भैरव को नहीं, तौफीक को नहीं, तारानाथ को नहीं, अपने आपको दीजिए। तारानाथ एक व्यक्ति जरूर है...एक नाम जरूर है, लेकिन वह हम सब की सामूहिक आकांक्षाओं का प्रतीक है। तारानाथ एक व्यक्ति जरूर है, लेकिन वह एक गारंटी कार्ड है सड़क के सड़क की तरह होने का...रेल को रेल की तरह होने का...नहर को नहर की तरह होने का...आहर-पोखर को आहर-पोखर की तरह होने का, बिजली को बिजली की तरह होने का...स्कूल को स्कूल की तरह होने का। अगर यह सब नहीं करना होता...सिर्फ राजनीतिक पद हासिल कर अपना उल्लू सीधा करना मकसद होता, तो हम तारानाथ को उम्मीदवार नहीं बनाते...उम्मीदवार मैं बनती...या भैरव बनता या तौफीक मामू बनते। कई वर्षों से जिसे आप जिताते रहे हैं, वह अगर करने के नाम पर कुछ न किया होता, फिर भी माफी के काबिल था, लेकिन उसने जो किया वह कतई माफी के लायक नहीं है। उसने आम जनता के लिए गिरने के गड्ढे खोदे...बनी-बनायी सुविधाओं को चैपट करने में साथ दिया, और तो और उसने बदअमनी फैलाने की भी कोशिश की। एक-दो महीने पहले की बात है, उसने कुछ लोगों को भड़काकर गाँव में दंगा और मारकाट करवाने की योजना बनायी थी। मेरी जाती जिंदगी को उसने अपना राजनीतिक बिसात बनाकर चालें चलना शुरू कर दिया। मेरे साथ ज्यादतियाँ होती रहीं, मेरे अपने कहानेवालों ने मुझे मुसीबतों के पहाड़ के नीचे ठेलकर मुझे कुचल देने की कोशिश की। मुझे अपना एक पैर गँवाना पड़ा...मेरी बहनों को और मेरी माँ को जिल्लतों के दरिया से गुजरना पड़ा। यह सारा कुछ महज इसलिए कि मुझे दुबककर, छुपकर, आँख-मुँह बंदकर रहना मंजूर नहीं था। मैं जाति और मजहब के दायरे में बँधकर अपनी जिंदगी को एक तंग चारदीवारी में रखने को राजी नहीं थी। मैंने भैरव के साथ मिलकर सार्वजनिक मुद्दों के लिए खेतों, खलिहानों, घरों, गलियों और चैराहों पर जा-जाकर संघर्ष करने का रास्ता चुना। मेरी यही खता है...मेरा यही जुर्म है। जो नहीं चाहते गाँवों का भला हो...मजहब और जाति की दीवार टूटे, वे मेरे दुश्मन बन गये। लेकिन मुझे उनकी परवाह नहीं है...मुझे मरने की चिंता नहीं है। मैं आपकी बेटी हुई...आपके लिए काम आ गयी बस जन्म लेना सार्थक हो गया। यह पूरा क्षेत्र खुशहाल था...मगर इसकी खुशहाली में इसके अपनों ने ही सेंध लगा दी। हमारे अरमान हैं कि फिर से इसे खुशहाली वापस मिले। यह बिल्कुल संभव है...सिर्फ आपको अपने वोट देने में एहतियात वरतना है। आप वोट उसे दें जो आपका खिदमतगार होना चाहता है, उसे न दें जो आपका मुख्तार बन जाना चाहता है.....।'
सल्तनत का वक्तव्य चल ही रहा था कि मैदान के दूसरे छोर पर टेकमल के आदमियों ने माइक लगाकर हल्ला-गुल्ला और गाली-गलौज शुरू कर दी। उनकी मंशा जाहिर हो गयी कि किसी तरह लफड़ा पैदा करने के लिए खुचटी मोल ले रहे हैं। लविस के लड़कों पर भी गुस्सा तारी होने लगा। लगा कि अब आमने-सामने का टकराव शुरू हो जायेगा। भाषण सुन रही जनता स्थिति की नजाकत को भाँपकर एक-एक करके सरकने लगी। भैरव ने अपने लड़कों को बिल्कुल शांत और संयमित रहकर मैदान खाली कर देने की हिदायत दी। कुछ लड़के तो बुरी तरह जिदियाकर उनसे आज दो-दो हाथ कर लेने पर उतारू हो गये। भैरव ने सीधे मना कर दिया, 'दरअसल यही तो वे चाहते हैं कि हिंसा और खूनी झड़प का दौर शुरू हो जाये जिससे चुनाव स्थगित करने की माँग करने का उन्हें बहाना मिल जाये। हमें उन्हें किसी भी कीमत पर यह मौका नहीं देना है।'
लड़के खून के घूँट पीकर मैदान खाली करने के लिए अपना सामान समेटने लगे। इसी बीच उधर से पत्थरबाजी शुरू हो गयी। लड़के बचते-बचाते जीपों पर लदने लगे और लदते-लदते छह-सात पत्थर आकर किसी के पैर को, किसी की पीठ को, किसी के सिर को निशाना बना गये। सल्तनत को मंच से उतारकर ले जाते-ले जाते भैरव भी चपेट में आ गया और एक पत्थर उसके ललाट को भी लहूलुहान कर गया। जीप जल्दी से भगाकर लतीफगंज लायी गयी। एक डॉक्टर के पास जाकर सबकी मरहम पट्टी करायी गयी।
बाद में रूपेश ने बताया कि वे सल्तनत को बुरी तरह घायल कर देना चाहते थे ताकि वह भाषण देने के काबिल न रह जाये। उसके मोहिनी और पटाऊ भाषण से उन्हें सबसे ज्यादा चिढ़ हो रही थी। भैरव की वजह से उनकी मुराद अधूरी रह गयी। सल्तनत ने भैरव को जी भर कर प्यार किया, इतना प्यार कि भैरव की पीड़ा जैसे सल्तनत की पीड़ा बन गयी। सल्तनत जानती थी कि उसे बचाने के लिए पत्थर तो क्या, गोली भी खानी पड़े तो यह आदमी परवाह नहीं करेगा। सल्तनत ने कहा, 'आन्दोलन के लिए तुम्हारी जरूरत ज्यादा है। अतः मेरे लिए पत्थर खाना कतई अक्लमंदी की बात नहीं होगी।'
'अक्लमंद जो होते हैं, वे प्यार नहीं करते, सल्तनत। तुम जानती हो कि मैं कभी अक्लमंद नहीं रहा।'
'कहीं तुम यह तो नहीं कह रहे कि मैं अक्लमंद हो गयी हूँ अर्थात...।'
'अब मैं क्या कहता हूँ, अगर यह जान जाऊँ, फिर तो अक्लमंद हो गया।'
खिलखिलाकर हँस पड़ी सल्तनत। भैरव को ऐसा लगा जैसे इस हँसी ने उसके घाव को पूरी तरह भर दिया।
पत्थरबाजी के जो अभियुक्त थे, लड़के उन्हें पहचानते थे। तौफीक ने थाने में जाकर उनके नाम से प्राथमिकी दर्ज करवा दी और डीसी के पास इसकी खबर भिजवा दी ताकि पुलिस इस मामले को हलके से न ले। तौफीक सोचने लगे थे कि टेकमल के आदमी अगर चाहते तो गोली भी चला सकते थे और एक बहुत बड़ी घटना को अंजाम दे सकते थे। लेकिन उसने ऐसा नहीं करवाया...सिर्फ पत्थरबाजी तक ही सीमित रह गये...क्यों? इसके पीछे जरूर कोई ऐसी चाल होगी जिसका सिरा अभी पर्दे की ओट में है। उसने शुक्र मनाया कि चलो कोई बड़ी क्षति नहीं हुई।
अगले दिन जब पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए उन्हें ढूँढ़ रही थी तो अचानक रूपेश प्रकट हुआ और बताने लगा,'टेकमल ने अपने बेटे नेकमल को चुनाव मैदान से हटाने का फैसला कर लिया है। इतना ही नहीं, वह एक पम्पलेट जारी करने जा रहा है जिसमें यह अपील होगी कि वह लविस के तारानाथ का समर्थन करता है, इसलिए उसे चाहनेवाले लोग तारानाथ को वोट दें।'
तौफीक, सल्तनत, भैरव, तारानाथ समेत सभी लोग अचम्भित रह गये...टेकमल में और ऐसा चमत्कारिक परिवर्तन...मानो कुत्ते की दुम अचानक सीधी हो गयी या फिर एक माँस नोचनेवाला गिद्ध अचानक राम-राम जपनेवाला तोता बन गया! इसे यकीन करना आसान नहीं था, लेकिन रूपेश ने आज तक कोई गलत खबर नहीं दी थी। कई कोणों से इसके विश्लेषण शुरू हो गये...क्या तारानाथ की जीत को सुनिश्चित मानकर अपनी इज्जत बचाने के लिए उसने यह रास्ता अपना लिया! या क्या उसकी आँखों पर पड़ा पर्दा हट गया! या क्या उसे अपनी हैसियत का एहसास हो गया!
सल्तनत बेसाख्ता कह गयी, 'टेकमल अगर अभी भी अपना रवैया बदल ले और हमारे कार्यक्रमों के साथ जुड़ जायें तो उसके किये सारे पाप को हम माफ कर सकते हैं।'
भैरव ने जरा गहराई से विचार-मंथन करते हुए कहा, 'उसके बारे में इतनी जल्दी कोई राय बना लेना उचित नहीं होगा। जिसकी नस-नस में कुटिलता, नृशंसता और छल समाया हो, वह अगर रंग बदल रहा है तो जरूर इसके पीछे कोई खतरनाक अंजाम छिपा है। हमें इसका अध्ययन करना चाहिए।'
तौफीक ने कहा, 'उसकी योजना चाहे जो भी रही हो...मौजूदा सत्य यही है कि उसने हमारे पक्ष में आने का ऐलान किया है, जिससे हमारी जीत का मार्ग एकदम अवरोधरहित हो गया है। आगे अगर उसने कोई चालाकी दिखायी तो ऐसा नहीं कि हम आँख मूँदे हुए रहेंगे। अभी हमें अपनी ओर से न उत्साहित होने की जरूरत है, न उस पर कोई टिप्पणी करने की जरूरत है। उसके इस रवैये में कितनी शुद्धता और सच्चाई है, इसका पता तो अपने आप ही चल जायेगा।'
खबर सच निकली। टेकमल ने सचमुच ही मैदान छोड़ दिया। ऑफिशियली नाम वापस लेने की तारीख बीत चुकी थी इसलिए मतपत्र पर तो उसका नाम आना ही था। लेकिन आम जनता के बीच उसने यह संदेश जारी कर दिया कि दौड़ में वह शामिल नहीं है। दौड़ में अब जो भी प्रतिद्वन्द्वी बचे थे, बहुत कमजोर थे और उनसे अब किसी प्रकार की कोई होड़ नहीं रह गयी थी। मतदान में जिस अशांति और उपद्रव की आशंका थी, वैसा कुछ भी नहीं हुआ। मन ही मन अंदेशा लगा था कि टेकमल पता नहीं कौन-सा गुल खिला दे! पहले जब आमने-सामने का खुला टकराव था तो मनःस्थिति में निपटने की तैयारी समाविष्ट रहती थी। अब मैदान छोड़ने की घोषणा करके मानो उसने और भी डरा दिया था। क्या पता निश्चिंत और इत्मीनान हालत में लाकर कोई ऐसा कांड कर जाये जो सारे किये-धरे को चैपट कर दे।
शुक्र है उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उसके और उसके आदमियों की कहीं पंख तक फड़फड़ाने की आहट नहीं आयी और तारानाथ भारी मतों से चुनाव जीत गया। तारानाथ...एक गरीब किसान का बेटा...जिसने कभी एक साथ पाँच हजार रुपये तक नहीं देखे...एक भोला और सीधा-सादा युवक...बंदूक और गोली तो क्या उसने कभी हाथ में डंडे तक नहीं पकड़े...किसी से ऊँची जबान में बात तक नहीं की...सायकिल और बैलगाड़ी के अलावा मोपेड तक कभी नहीं चलाया...ऐसे शरीफ और नेक लड़के के रास्ते से तमाम बुराइयों का एक बाहुबली पिटारा अपने आप हट गया। एकजुटता हो, संगठनात्मक निष्ठा हो, ईमानदारी से समाज बदलने का संकल्प हो तो इस तरह मामूली और सुपात्र आदमी भी सत्ता के गलियारे तक दूरी तय कर सकता है, इसे साबित करने के लिए यह एक करारी मिसाल कायम हो गयी।
तारानाथ जैसे छोटे और गुमनाम व्यक्ति की जीत पूरे सूबे में एक बड़ी खबर बन गयी। उसे लग रहा था जैसे यह सब कुछ सपने में घटित हो रहा है। वह इसका सारा श्रेय तौफीक, सल्तनत और भैरव को दे रहा था। तौफीक कह रहे थे, 'इसका श्रेय लतीफगंज विकास समिति के हर सदस्य को जाता है। दरअसल यह जीत तारानाथ के रूप में लविस की जीत है...संगठन और एकजुटता की जीत है।'
लड़कों ने एक यादगार विजय जुलूस निकालकर इसे सेलीब्रेट करने की इच्छा जतायी। तौफीक ने इससे असहमति व्यक्त करते हुए कहा,'विजय जुलूस हम तब निकालेंगे जब उन कार्यों को हम संपन्न कर लेंगे जिसके हमने वायदे किये हैं और जिन्हें एजेंडा बनाकर हमने राजनीति में कदम रखे हैं।' जरा गहराई में उतरते हुए उन्होंने कहा, 'हाँ, तुमलोग इतना कर सकते हो, ट्रैक्टर में जितने लोग लद सकते हो लद जाओ और अपने क्षेत्र के हर गाँव का दौरा कर लो।'
लड़कों ने ऐसा ही किया। सल्तनत ने ड्राइविंग सीट सँभाल ली। बगल में भैरव ने जगह ले ली। इंजन और डाला में तमाम लड़के घुँघरू की तरह सज गये। जिन-जिन गलियों और गाँवों में ट्रैक्टर जा सकता था, वहाँ-वहाँ जाकर सबने हाथ जोड़-जोड़कर गाँववालों के प्रति आभार जताया।
टेकमल के गाँव भुआलचक भी वे गये। उसकी विशाल कोठी के सामने एक मातमी सन्नाटा पसरा था। उसके चिलमची, मशालची, बावर्ची, बंदूकची कोई नजर नहीं आ रहे थे। इदरीश भी कई दिनों से लापता हो गया था। कुछ लोग कह रहे थे कि टेकमल के रवैये (खासकर नाम वापस लेने) से क्षुब्ध होकर वह अतीकुर-मुजीबुर के पास चला गया है।
लड़कों का काफिला जब गश्त लगाकर लौटा तो लविस केन्द्र अर्थात अम्मा निवास पर जश्न का माहौल बन गया। अम्मा ने मतीउर से कहकर एक टोकरी फूलों की माला मँगवा ली थी। उसने बारी-बारी से हरेक लड़के को माला पहनायी और मिठाई खिलायी। गाँववालों की भी भीड़ जुट आयी थी जिनमें चुन्नर यादव, फल्गू महतो और नगीना सिंह भी शामिल थे। नगीना सिंह गुलाल लेकर आये और सभी लड़कों के ललाट में लगाकर उनका अभिनंदन करने लगे। भैरव और सल्तनत को गुलाल लगाया तो दोनों ने श्रद्धासिक्त होकर उनके पैर छू लिये। नगीना सिंह की आँखें नम हो गयीं। भीगी आवाज में उन्होंने कहा,'तुम दोनों की दोस्ती मुझे कभी अच्छी नहीं लगी। सल्तनत पर जुल्म होते थे तो मुझे लगता था कि ठीक हो रहा है। आज मैं आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारी दोस्ती अमर रहे। तुम दोनों के बीच प्यार कभी कम न हो।' दोनों को उन नगीना सिंह ने गले से लगा लिया जो इस गाँव के सबसे बड़े जोतदार थे। तौफीक, मतीउर, निकहत, मिन्नत, अम्मा आदि देख रही थीं यह अप्रत्याशित दृश्य। यह एक यादगार अवसर था कि नगीना सिंह जैसा परंपरावादी और कूपमंडूक आदमी एक विजातीय प्रेम को मान्यता दे रहा था। तौफीक ताली बजाने लगे तो उनकी देखा-देखी सभी उनका साथ देने लगे।
अम्मा ने एलान किया, 'मेरे बच्चो, यह कामयाबी जितना तारानाथ की है उतना ही चन्द्रदेव, रामपुकार, खेमनाथ, धेनुचंद, सम्पत...की है,' एक-एककर सभी लड़कों का नाम लेकर आगे कहा, 'और उससे ज्यादा सबको रास्ता दिखानेवाले मियाँ तौफीक की है...और सबसे ज्यादा सभी को एक सूत्र में बाँध कर रखनेवाले मेरी लाड़ली सल्तनत और मेरे दुलारे भैरव की है। मुझे लगता है कि ये फल जो आज हमें मिला है, मुहब्बत के दरख्त में ही फला है। अगर आपलोग मुझसे इत्तफाक रखते हैं तो मेरे साथ बोलिए...सल्तनत और भैरव की मुहब्बत जिन्दाबाद...।'
वहाँ जमा सारे लोगों ने एक स्वर में कहा, 'जिन्दाबाद...जिन्दाबाद।'
'अम्मा...।' भीड़ से एक अलग आवाज उभरी, 'आज मैं भी जिन्दाबाद कहने और मुबारकबाद देने आया हूँ।' सबने उस आवाज की तरफ देखा, वे फजलू मियाँ थे।
अम्मा ने खुशी जताते हुए कहा, 'आपका इस्तकबाल है, फजलू मियाँ...शुक्रिया कि हमारे बीच आप भी आ गये और आप ऐसे समय में आये कि अभी बहुत देर नहीं हुई है। मतीउर, मिठाई खिलाओ फजलू मियाँ को।'
हर्ष-उल्लास का दौर देर रात तक जारी था। आज अम्मा के कहने पर मिन्नत और निकहत माँ-बेटी ने मिलकर लविस के सभी सदस्यों के लिए एक भोज की तैयारी कर डाली थी। खाना-पीना शुरू हो गया था। इसी दरमियान भैरव को पूछते हुए दबे पाँव एक आदमी ने घर में प्रवेश किया। भैरव ने उसे देखते ही पहचान लिया, वे रूपेश के पिता जगधर शर्मा थे। उनके चेहरे पर एक बेचैनी ठहरी हुई थी। भैरव ने पूछा, 'क्या हुआ चचा, सब कुशल-मंगल तो है? '
उन्होंने कहा, 'चार दिन हो गये, रूपेश घर नहीं आया। बिन बताये वह आज तक घर से कभी गैरहाजिर न रहा। टेकमल के अड्डे पर पूछने से भी कुछ अता-पता नहीं चल रहा, कोई वहाँ साफ-साफ बताने के लिए तैयार नहीं है। लगता है जैसे वे टाल-मटोल कर रहे हैं।'
भैरव के दिमाग को अचानक एक झटका लगा। अब जाकर उसे समझ में आया कि पिछले तीन-चार दिनों में इतनी-इतनी घटनाएँ घटीं और रूपेश की परछाईं तक नजर क्यों नहीं आयी। मतदान होने, मतगणना होने, परिणाम घोषित होने जैसे सभी मौकों पर टेकमल और उसके दरबारियों की प्रतिक्रिया जानने हेतु रूपेश की उसे याद आती रही, लेकिन वह नदारद रहा। जुलूस जब निकालने का निर्णय हुआ तब तो उसने खास तौर पर उसकी तलाश की, ये जानने के लिए कि टेकमल क्या सोच रहा है...क्या रणनीति बना रहा है...कहीं ऐसा नहीं कि उनके ट्रैक्टर पर वह निशाना साध ले!
रूपेश ने लविस के लिए एक बहुत बड़ी भूमिका निभायी। उसके सहयोग के बिना टेकमल जैसे आतंक केन्द्र से इतनी आसानी से निपट लेना कतई मुमकिन नहीं था। उसकी विश्वसनीयता का भैरव हृदय से कायल और कृत्तज्ञ था। एक दिन भैरव ने कहा था उससे, 'रूपेश, तुम इतनी बुद्धिमता और सफाई से टेकमल की कब्र खोद रहे हो कि उसे पता भी नहीं चल रहा। तुम्हारे इस तरह जोखिम उठाने और हिम्मत करने के प्रति मैं वाकई तुम्हारा ऋणी हूँ, यार।'
उसने कहा था, 'मैं कोई एहसान नहीं कर रहा, भैरव। गाँव की बिगड़ी तस्वीर को बदलने जैसे एक बड़े मिशन में तुम और तुम्हारे साथी जी-जान लगा रहे हैं...उसमें पूरी तरह अपने को झोंक दे रहे हैं...मैं भी गाँव की ही एक इकाई हूँ, भैरव, फिर क्या इतने बड़े काम में मेरा कोई फर्ज नहीं बनता? चाहता तो हूँ कि मैं भी तुम्हारे साथ खुलकर आ जाऊँ...साले टेकमल चांडाल की कमीनगी और कसाईपन अब बर्दाश्त नहीं होता।'
भैरव ने उसके दोनों कंधों को आत्मीयता से हिलाकर उसके विश्वास को पुख्ता बनाते हुए कहा था, 'तुम्हें मैं हमेशा अपने साथ ही महसूस करता हूँ, रूपेश। बस हम कुछ सीढ़ी और ऊपर चढ़ लें, फिर तुम ताल ठोंककर आ जाओ हमारे साथ। अभी हमें टेकमल की अंदरूनी खबरों की वाकई बहुत जरूरत है।'
रूपेश ने उसकी बात मान ली थी, 'ठीक है भैरव, तुम कमांडर हो यार और मैं एक सिपाही हूँ, जिस रूप में चाहो मेरा उपयोग कर लो।'
दोनों ठहाका लगाते हुए गले से लिपट गये थे।
रूपेश के अचानक इस तरह गायब हो जाने की सूचना ने भैरव को मानो भीतर से हिलाकर रख दिया। उसके भीतर एकबारगी एक बड़ा संशय खड़ा हो गया...कहीं ऐसा तो नहीं कि टेकमल को रूपेश की सच्चाई का पता लग गया? उसकी गुप्तचरी पर अपनी सारी असफलताओं का दोषारोपण कर ऐसा तो नहीं कि उसने उसकी हत्या करवा दी? भैरव चिंतित हो उठा। जगधर शर्मा चुपके से आये थे उसके पास, चूँकि सार्वजनिक तौर पर रूपेश टेकमल का खास आदमी माना जाता था। उसने उन्हें ढाढ़स बँधाते हुए कहा, 'मैं अपना पूरा जी-जान लगाकर रूपेश की तलाश करूँगा, चचा। उसका न होना हमारे लिए भी एक बहुत बड़ा नुकसान है। वह मेरा जिगरी दोस्त है और लविस का सच्चा हितैषी भी।'
भैरव ने सचमुच कई तरह से उसका पता लगाने की कोशिश की। अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं रह गया कि टेकमल ने उसे मरवाकर कहीं गायब करवा दिया। मतलब साफ था कि शत्रु भाव से वह अपना फन उठाये अब भी डँसने के लिए तैयार था। अतः किसी भी तरह इस मुगालते में रहना एक बेवकूफी थी कि उसने समर्थन देकर अपना रवैया बदल लिया। भैरव उसके शोक में बहुत दिनों तक बहुत उदास रहा। उसे कई बार यह अपराध बोध मथने लगता कि रूपेश को मौत के मुँह में ठेलने की जिम्मेवारी उसकी ही है।
तौफीक ने उसकी रिसती व्यथा पर मरहम लगाते हुए कहा, 'जिस तरह रूपेश को खत्म किया गया, यह दुखद और अफसोसनाक है। लेकिन बदलाव की बड़ी मुहिम चलायी जाती है तो ऐसे नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना पड़ता है। हो सकता है आनेवाले दिनों में हमें और भी बड़े शोक से गुजरना पड़े। क्या पता कल मेरी ही बारी हो।'
भैरव उसका मुँह देखता रह गया और सल्तनत जैसे कुछ पल के लिए एकदम कठुआ गयी। उसने कहा, 'ऐसा न कहिए, मामू। ऐसी बातें सुनकर मैं एक नामालूम-से सदमे में घिर जाती हूँ। हमें कोशिश करना चाहिए कि बिना नुकसान उठाये भी अपना काम पूरा कर लें।'
'मैं जोखिम की बात कह रहा हूँ, सल्तनत। कोशिश तो सभी लोग ऐसी करते ही हैं।'
सल्तनत के मन में भैरव का खयाल आ गया तो जैसे एकबारगी उसका चेहरा पीला पड़ गया। भीतर एक अन्तर्संवाद गूँजने लगा। 'नहीं...बिल्कुल नहीं...भैरव की कीमत पर मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। इस मुद्दे पर मुझे बहादुर नहीं दुर्बल ही बनकर रहना गवारा है। नहीं चाहिए मुझे कोई तमगा या बड़े से बड़ा त्याग करने का खिताब। भैरव ही मेरी दुनिया है...भैरव ही मेरा तमगा है...भैरव ही मेरी क्रांति है...भैरव ही मेरा कुल जमा हासिल है। इस मामले में दुनिया मुझे स्वार्थी, क्षुद्र और नासमझ कहना चाहे तो कहे, मुझे परवाह नहीं। अगर किसी एक को जाना है...शहीद होना है तो मैं जाऊँगी...मैं शहीद होऊँगी। चूँकि मैं कई बार कह चुकी हूँ कि मुझे खुद के मरने का डर नहीं है, लेकिन भैरव के बिना जीने का डर मेरे लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह है।'
धान में बालियाँ निकलने लगी थीं और उसमें दूध भरने लगा था। रात को इन बालियों की महक बाँध से होती हुई गाँव तक पहुँच जाती थी। ज्यों-ज्यों ये बालियाँ गदरा रही थीं, त्यों-त्यों किसानों की उम्मीदें भी गदराती जाती थीं। अभी इनकी जड़ों में कम से कम पन्द्रह-बीस दिन भरपूर पानी की जरूरत थी। मगर आहर और पोखर एक बार लबालब भरने के बाद दोबारा फिर भर न सके और लगातार खाली होते चले गये। नदी एकाध बार और उफनती तो शायद नहर में एकाध धक्का पानी फिर ठेला जाता। मगर ऐसा नहीं हुआ। वर्षा भी शुरू में तो जमकर हुई, बाद में बस फुहार और फलासी तक ही सिमटकर रह गयी। किसानों की सोलह आने की उम्मीद क्रमशः घटने लगी और लगभग बारह आने पर आकर रुक गयी। उन्हें फिर भी संतोष था कि जहाँ पिछले तीन सालों से वे एक दाने के लिए तरस रहे थे, वहाँ बारह आना फसल भी कोई कम बड़ा तोहफा नहीं है। ट्यूबवेल के आसपास के खेतों को मतीउर ने रात-दिन पानी से पटा-पटा करके शत प्रतिशत परिणाम देने के लायक बनाये रखने में कामयाबी पा ली थी।
इधर चीनियाबादाम के पेड़ भी जोरदार जम गये थे और नीचे उसकी जड़ों में पुष्ट फलियाँ लगने लगी थीं। फुलेरा बाँध हरी-भरी वादियों का एक लंबा-चैड़ा लैंडस्केप जैसा लग रहा था। जहाँ तक निगाह जा रही थी मूँगफली के ठेहुने भर ऊँचे और छतनार पौधे बिहँसते और झूमते एक नयी छटा उकेर रहे थे। इस खेती की एक सिफत है कि इसमें ज्यादा सुश्रुषा की जरूरत नहीं पड़ती। बस कभी-कभी पौधों के बीच उग आये खर-पतवार की निकौनी कर देनी होती है। मतीउर का अनुकरण करते हुए लड़के एक साथ भिड़ जाते थे और काम फटाफट पूरा हो जाता था। अब जब फसल तैयार हो गयी है और बेहतर परिणाम की आशा बँध गयी है, जानवरों से या फिर मुफ्तखोर व शातिर तत्त्वों से निगहबानी करनी पड़ रही थी।
एक दिन मतीउर कुछ लड़कों की मदद से कच्ची फलियों के रसास्वादन और जीफेरन के लिए एक कट्ठा फसल उखाड़कर घर ले आया। अनुमान लगाया गया कि प्रति कट्ठा तीस किलो की दर से पैदावार ठहरेगी। अर्थात एक बीघा में छह क्विंटल और एक सौ सत्तर बीघा में एक हजार बीस क्विंटल। बाजार भाव प्रति किलो सात रुपये पचास पैसे यानी सात सौ पचास रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से एक हजार बीस क्विंटल से कुल आय सात लाख पैंसठ हजार रुपये। इसे बयालीस सदस्यों में विभाजित करने पर प्रति सदस्य अठारह हजार दो सौ चौदह रुपये पड़ेंगे। सबने संतोष जाहिर किया कि एक फसल में इतनी आय कम नहीं है। लड़कों की नजर में तौफीक मियाँ की वह थ्योरी मानो सच साबित होने जा रही थी जिसमें उन्होंने कहा था कि हम चाहें तो कृषि को उद्योग की तरह लाभकारी बना सकते हैं।
कच्चे बादाम को आग में ओराहा गया और आँगन में बैठकर सबने एक साथ एक-एक फली तोड़-तोड़कर खाने की प्रक्रिया शुरू की। लग रहा था जैसे कोई फिल्मकार पंजाब की सांझा चूल्हा संस्कृति का एक दृश्य फिल्मा रहा हो। कच्ची फलियों की मिठास का सबने खूब लुत्फ उठाया। मतीउर ने कहा कि दस दिनों के अंदर फसल पूरी तरह तैयार हो जायेगी। एक-एक पौधे को जमीन से निकालकर उसकी फलियों को अलग करने का काम काफी मेहनत भरा है। हरेक को इसमें लगना होगा तब जाकर डेढ़-दो सप्ताह में काम पूरा हो सकेगा।
सभी लोग उस दिन का इंतजार करने लगे। उनके रास्ते में अब भी कोई दुश्मन है, इसका उन्हें कोई इल्म नहीं रह गया था। यह एक बहुत बड़ी भूल साबित हुई। जिस दिन से उस काम को अंजाम देना था, उसके दो दिन पहले पूरी योजना पर जैसे वज्राघात कर दिया गया। सबने अपना सिर पीट लिया। जब तक फसल घर में न आ जाये, किसान को निश्चिंत नहीं होना चाहिए, इस कहावत ने फिर से उनकी अक्ल को झकझोर कर उन्हें पाश्चात्ताप के गड्ढे में ढकेल दिया। दुश्मनों ने रात में ट्रैक्टर से पूरे बाँध की जुताई कर दी और तैयार फसल को पूरी तरह मिट्टी में मिला दिया। अनुमान था कि एक साथ दो-तीन ट्रैक्टर चलवा दिये गये। उस बाँध से गाँव की दूरी इतनी थी कि जरा-सी भी आहट किसी को नहीं लगी।
यह एक बहुत बड़ा सदमा था जिसकी कसक हरेक की छाती में शूल बनकर चुभने लगी। एक सपना जो सच में ढलने के सारे संघर्ष लाँघ चुका था, पलक झपकते बालू की भीत्ति की तरह भरभराकर ढह गया। खेत में मचान बनाकर रात में भी अगोरवाही कर ली जाती तो आफत टूटने का ऐसा मंजर सामने न आता।
तौफीक ने सबको सांत्वना देते हुए कहा, 'किसान को बेफिक्र कभी नहीं होना चाहिए, यह सबक है हमारे लिए। खैर, हमें आघात जरूर पहुँचा है, लेकिन हम पस्त नहीं हुए हैं। उन्होंने हमारी फसलें रौंदी हैं, हमारी हिम्मत नहीं। हमारा काम उगाना है, हम फिर उगायेंगे और उनके रौंदने की मंशा को कड़ी चुनौती देंगे।'
इस घटना ने पूरे इलाके में सनसनी मचा दी। डीसी ने एक पत्र लिखकर अपनी हार्दिक संवेदना व्यक्त की और कहा कि इस वारदात के पीछे जिसके हाथ होने की आशंका दिखती हो, उसका नाम बतायें, वे कार्रवाई करेंगे।
टेकमल ने भी एक पैगाम भिजवाया और इस घटना पर दुख व्यक्त करने का स्वाँग करते हुए इसे कायराना हरकत करार दिया। तौफीक जरा चौंक गये...टेकमल अपने शातिर दोमुँहेपन का ऐसा नरम मुखौटा क्यों दिखा रहा है...जरूर उसकी कोई कुटिल चाल छिपी होगी।
बात सच ही निकल गयी। एक दिन लविस कार्यालय में टेकमल का चार-पाँच कारों और जीपों का एक काफिला आकर रुका। लविस के सभी लड़के धड़धड़ाकर नीचे उतर आये और किसी अप्रिय स्थिति के लिए तैयार होने लगे। इसी बीच उसके एक दूत ने आकर खबर दी कि नेताजी तौफीक साहब से मिलना चाहते हैं। तौफीक ने टेकमल को ऊपर बुलवा लिया। हॉलनुमा कमरे में एक गोलमेज के चारों ओर कुर्सियाँ लगी थीं और उन पर तौफीक, भैरव, सल्तनत, तारानाथ, चन्द्रदेव, खेमकरण सहित अधिकांश लड़के विराजमान थे। टेकमल को भी एक कुर्सी दी गयी। टेकमल ने कमरे के पूरे क्षेत्रफल का जायजा लिया और कहने लगा,'भाई तौफीक मियाँ, बहुत अच्छा नेतृत्व दे रहे हो इन लड़कों को। तारानाथ के विजयी होने पर मेरी बधाई स्वीकार करो और इसी के साथ मैं अपना अफसोस भी लेकर आया हूँ कि मूँगफली की पूरी फसल को बरबाद करके किसी ने बहुत बड़ा अत्याचार किया है। हम उसके नाम लानत भेजते हैं।'
'टेकमल, तुम इतने औपचारिक कब से होने लगे भाई। अच्छे नहीं लगते यार तुम्हारे मुँह से ऐसे अल्फाज। आगे कहो, इतना ही कहने तो तुम नहीं आये होगे।'
'तुम मुझे मौका देकर देखो तौफीक, मैं उतना बेरहम नहीं हूँ जितना लोग समझते हैं। शिष्टाचार और शालीनता का निर्वाह करना मुझे भी आता है, यार।'
'चलो, यह वाकई एक अच्छी खबर है। चाय पियोगे?'
'तुम्हारे घर आया हूँ, जहर भी पिलाओगे तो पी लूँगा।'
'सल्तनत, निकहत को आवाज दे दो, हम सबके लिए चाय और इनके लिए एक प्याली जहर।'
सभी हँस पड़ते हैं। कुछ देर यों ही फालतू के हँसी-मजाक करके आत्मीय बनने का पाखंड करता रहा टेकमल। अब तक चाय आ गयी थी। चुस्की लेते हुए वह अपने असल मुद्दे पर आ गया, 'लोक सभा चुनाव नजदीक है। जिस तरह विधान सभा में मैंने तुम्हारी मदद की, उसी तरह लोक सभा में मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। तुम्हारे जो अभियान चल रहे हैं, उन्हें अब मेरा पूरा सपोर्ट रहेगा। यह मेरा वादा है। अब तक गलतफहमी में जो हो गया उसके लिए वाकई मैं दुखी हूँ। अब तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी।'
तौफीक ने बारी-बारी से अपने सभी लड़कों के चेहरे देखे, जैसे वे पढ़ रहे हों कि उनके जवाब क्या हैं। उन्होंने कहा, 'हमने विधान सभा में तुमसे कोई मदद नहीं माँगी थी, टेकमल। तुम्हें हमने कभी नहीं कहा कि मैदान से तुम अपने बेटे को हटा लो।'
'तो क्या मैंने अपनी ओर से पहल करके दोस्ती का हाथ बढ़ाया, यह अच्छा नहीं किया?'
'दोस्ती जैसे पाक लफ्ज की तौहीन न करो, टेकमल! विधान सभा मैदान से हटकर तुमने एहसान नहीं किया हमारे ऊपर, बल्कि तुमने अपनी इज्जत बचायी और लोक सभा के लिए हमें पटाने का एक बैंकग्राउंड तैयार किया। तुम्हारी दिक्कत यही है कि तुम खुद को सबसे होशियार और ताकतवर समझ लेते हो।'
'तौफीक मियाँ, मैं तुम्हारे घर आया हूँ, इसका मतलब यह नहीं कि तुम मुझे बहुत गरजू समझकर हिकारत की जबान में बात करो। मैं एक बार फिर कहना चाहता हूँ कि मेरे दोस्ती के बढ़े हुए हाथ की उपेक्षा न करो।'
'दोस्ती के हाथ,' एकाएक फनफना उठे तौफीक, 'तुमने रूपेश को मरवा दिया, महज यह जानकर कि उसकी हमसे करीबी थी, ये तुम्हारे दोस्ती के हाथ हैं? तुमने हमारी चीनियाबादाम की तैयार फसल को ट्रैक्टरों से रौंदवा दिया और आज उस घटना पर दुख व्यक्त करके हमें बुड़बक बनाना चाह रहे हो। क्या हम जानते नहीं कि इस इलाके में किसी के पास इतना साहस और सामर्थ्य नहीं कि इतना बड़ा कारनामा कर जाये और कहते हो, दोस्ती के हाथ? अब तक जिसे मैंने छिपाकर रखा था, आज उसे भी उजागर कर देता हूँ...तुमने भैरव और सल्तनत को मरवाने की सुपारी दे रखी है, कहो तो सुपारी लेनेवाले को खड़ा कर दूँ मैं तुम्हारे सामने...क्या ये हैं तुम्हारे दोस्ती के हाथ?'
सारे लड़के अचरज से तौफीक के मुँह देखते रह गये। सल्तनत और भैरव की आँखें तो ताज्जुब से फटी की फटी रह गयीं। उनकी हत्या के सौदे हो गये और मामू ने इसे छुपाये रखा! सल्तनत की आँखों से जैसे चिनगारी निकलने लगी और घृणा से उसके जबड़े कस गये।
टेकमल ने इत्मीनान की एक लंबी साँस लेकर अपने घाघ अंदाज को कायम रखते हुए कहा, 'मैं यही तो कहने आया हूँ तौफीक कि जो हो गया उन्हें भूलकर दोस्ती की बात शुरू हो, लेकिन लगता है तुमलोगों ने दुश्मनी करने की ही ठान ली है।'
'दोस्ती का बड़ा दम भरने चले हो तो लो करो दोस्ती। शर्त यह है कि लोक सभा का चुनाव हम लड़ेंगे, तुम नहीं। तुम तीन बार जीतकर अपनी सर्वनाश-लीला दिखा चुके...अब रहा-सहा भी चैपट करने के लिए तुम्हें एक बार फिर लोक सभा भेजने की जोखिम नहीं उठायी जा सकती।'
'तौफीक, तुम काफी चबर-चबर कर चुके। मत भूलो कि खुलकर दुश्मनी पर उतर जाऊँगा तो मेरे सामने अपने इन थके-हारे और भूखे-बेरोजगार कारकूनों को लेकर एक मिनट नहीं टिक सकोगे। कान खोलकर सुन लो, लोक सभा चुनाव में अगर तुमने दखलअंदाजी करने की कोशिश की तो महादेव की सौगंध, सूखी हुई नहर में पानी नहीं खून की धारा बहा दूँगा। तुमने ठीक कहा कि मैंने सुपारी दी है और देखना अब तमाशा कि एक-एक कर तुम्हारे आदमी कैसे मारे जाते हैं? अब तुम्हें अपनी असली ताकत दिखाऊँगा।' टेकमल की आवाज और भंगिमा जैसे पूरी तरह राक्षसी हो गयी। वह तमतमाकर उठ गया अपने आसन से।
तौफीक उसे एक मुँहतोड़ जवाब सौंपना ही चाहते थे कि सल्तनत ने अपना तेवर रौद्र कर लिया, 'ताकत तुम्हें ही नहीं, हमें भी दिखाने आता है, टेकमल। देखो मेरे हाथ में क्या है?' सल्तनत ने अपने कंधे में लटके बैग से एके 56 निकाल लिया। देखकर भैरव और तौफीक के चेहरे भी सन्न रह गये, चूँकि सल्तनत ने कभी इस तरह के हथियारों का पक्ष नहीं लिया था। उसने आगे कहा, 'ऐसा खिलौना अब तुम्हारे पास ही नहीं, हमारे पास भी है और ये तुम्हें और तुम्हारे आदमी को ही नहीं हमें भी चलाने आते हैं। तुम हमारे घर में नहीं होते तो चलाकर आज दिखा देती। इस मुगालते में मत रहना टेकमल कि तुम हम पर गोलियाँ चलाओगे तो हम तुम पर फूल बरसायेंगे। भैरव को अगर कुछ हुआ तो माँ भवानी की सौगंध तुम जहाँ भी रहोगे, तुम्हें मैं मारूँगी अपने इन्हीं हाथों से...।'
'देख लूंगा मैं तुम्हें बदजबान लड़की...अब तुमलोगों की खैर नहीं...।' पैर पटकता हुआ टेकमल हॉल से बाहर निकल गया।
अम्मा दीवार के पीछे से सारे घटना-क्रम पर कान लगायी हुई थी। टेकमल के जाते ही उसने ताली बजाकर खुशी जताते हुए व शाबाशी देते हुए हॉल में प्रवेश किया और सल्तनत को अपने सीने से लगा लिया। हुलास भरे स्वरों में कहा, 'आज मुझे भरोसा हो गया कि टेकमल को दबाने और कुचलने में हम कहीं से भी उन्नीस नहीं पड़ेंगे। लोक सभा चुनाव में हमारा उम्मीदवार जरूर उतरेगा और वह उम्मीदवार दूसरा कोई नहीं, सिर्फ और सिर्फ भैरव होगा।'
अम्मा के इस प्रस्ताव का तौफीक, सल्तनत और तारानाथ सहित सभी लड़के हर्षनाद करते हुए तालियाँ बजाकर समर्थन करने लगे। अब तक वहाँ आ चुकी मिन्नत, निकहत और मतीउर भी उनमें शामिल हो गये।